कश्मीरी कपड़े का करिश्मा

कश्मीरी कपड़े का करिश्मा

मेरे मित्र तो कई हैं, मगर इस हास्य-कथा के उद्गम और हँसोड़पन के उस्ताद–भाई केसर देव बुबना की बात कुछ और है। गप्पों का गुब्बारा और चुटकुलों का चौबारा उनके बाएँ-दाएँ है। जिस मजलिस में गए, उसके होके रहे। जिस महफिल में बैठे, उसमें जिंदगी आ गई! कहकहों का आलम! ठहाकों का समाँ!! बस, यूँ कहिए कि बुबना जी मज़ों और लुत्फों की लाजवाब लावनी हैं जो गाई भी जाय, और जिसके ताल पर अंग-अंग थिरक उठें!!!

पिछले दिनों एक कवि-सम्मेलन के सिलसिले में मैं धनबाद गया। बुबना साहब को यह खबर किसी उड़ती चिड़िया से पहले से ही मालूम हो चुकी थी। वे सतीश जी के साथ अतिथि-निवास में अचानक धमक गए और हँसी का फौव्वारा छोड़ते हुए बोले–‘आज आप कवि-सम्मेलन कर लीजिए! कल मेरे साले साहब मदनलाल जी अग्रवाल के बाहरी बँगले पर गप्प-गोष्ठी जमेगी।’ उनके इस प्रस्ताव का विरोध कौन करता, बल्कि हर तरफ से पुरजोर समर्थन हुआ और दूसरे दिन सुबह ही सारी मंडली अग्रवाल जी के प्रकृति-प्रधान प्रांगण में पधार गई। घनघोर जलपान और भीषण भोजन के बाद जो गोष्ठी जमी तो आठ घंटों तक तार ही नहीं टूटा। रुद्र जी, प्रगल्भ जी, गोपी वल्लभ और परिमल कविता सुनाते-सुनाते जब पसीने से (जाड़े में भी) लथपथ हो गए तब बुबना साहब का ताव जागा। उन्होंने तपाक से उठकर ऐलान किया कि अब कवियों की जान बख्शी जाए और उपस्थित समुदाय बाहर के पाटल-प्रांगण में चले। वहीं पर मैं एक गप्प-गोष्ठी का अनुष्ठान कर रहा हूँ। उनका सुझाव फौरन से पेश्तर माना गया और सभी लोग सामने के उस हरित दुर्वादल के कालीन पर आ विराजे, जिसके चारों ओर गुलाबों की किस्में किलक-किलक कर रूप और गंध की आँधी उठाए हुए थीं। ऐसी मादक फिजाँ में रसिकों का मस्तमौला मंडल रासमंडल का भौंरा बन उठा और गप्पों के खजाने, पंखुड़ियों की तरह खुलने-खिलने लगे। जब मेरी बारी आई तो मैंने अपनी एक आपबीती घटना सुनाई, जिसमें एक बाफ्ते नामक कपड़े की चर्चा थी। उसका चार-दस पंक्तियों में सार यह था कि मैंने बाफ्ता कपड़े का सूट सिला लिया और धुलाकर एक बारात में शामिल होने चला गया मगर बारात के द्वार लगने के वक्त जब सूट पहना तो पैंट, हाफ पैंट का भतीजा और कोट ‘टी शर्ट’ का नाती निकल गया। पानी में नहीं फुलाकर सीने से और ठीक से इस्त्री कर देने से उसकी यह गत हो गई थी। और उसके चलते जो मेरी दुर्गत हुई वह तो बयान के बाहर ही थी!

मेरी इस आत्म-कथा पर सभी खूब हँसे, मगर बुबना साहब चुप रहे। उन्होंने कहा–“भाई साहब! मैं आपबीती तो नहीं सुना रहा हूँ, मगर अपने एक दूर के साले साहब की एक ठीक ऐसी ही पर-कथा सुना रहा हूँ। आप लोग यह कथा सुनकर कहेंगे कि नारायण जी का बाफ्ता साले जी के रेशमी के सामने यूँ है जैसे चार्ली के सामने आग़ा।”

बुबना जी की यह बात सुनकर सभी लोग तो उत्सुक हो ही गए, मैं भी कम नहीं घबड़ाया!! खैर, ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। बुबना साहब ने अपनी कुर्सी बीच में कर ली और धीमे स्वर में कुछ कहने लगे। उनके पास बैठे उनके एक और दूर के साले साहब ने टोक दिया–“अरे, जनानियों की तरह क्या घुसुर-पुसुर कर रहा है?” तो बुबना साहब ने अपनी आवाज और धीमी कर ली और गंभीर होकर कहा–“अबे साले! यह कहानी जिस साले साहब की है उसके कान बड़े तेज हैं। है तो वह दस मील पर, मगर वहीं से सब कुछ सुन सकता है, अगर आवाज जरा भी तेज हो गई। समझा???”

इस पर सारा समुदाय ठठा कर हँस पड़ा और दूर के साले साहब बुबना साहब के एकदम करीब आ गए फिर कहानी शुरू हुई :–

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“मेहरबान! यह कहानी कोरी गप्प नहीं है। यह मेरे सगे साले साहब के अपने चचेरे भाई साहब के बदन पर बिलकुल बीती हुई बात है। आप इसे गप्प मान लेंगे तो यह सरासर ज्यादती होगी।”

एक बार वे अर्थात् उनका थोड़ी देर के लिए नाम रख लीजिए ‘मोदक जी’–(बेचारे) कश्मीर गए। वहाँ उन्होंने प्रदर्शनी की एक सबसे बड़ी कपड़े की दूकान से सबसे कीमती दाम का एक थान खरीदा। थान इतना ही बड़ा था कि उसमें उनका सूट हो जाए। वे उसे लेकर श्रीनगर के सबसे बड़े दर्जी के यहाँ गए और उसे कहा कि सूट उन्हें परसों शाम तक हर हालत से तैयार मिल जाना चाहिए। दर्जी ने जल्दी के पचास रुपए ज्यादा माँगे। मोदक जी ने उसे स्वीकार कर लिया और दर्जी को चेतावनी दी कि खबरदार ! एक घंटे की भी देर हुई तो पैसा जब्त!

खैर सूट ऐन वक्त पर तैयार हो गया और ताजी-ताजी इस्त्री देकर दर्जी ने उन्हें अपनी दूकान में ही उसे पहना कर दिखा दिया। ऐसी कमाल की फीटिंग थी कि दाँतों तले उँगली! मोदक जी ने खुश होकर दर्जी को दस रुपए ऊपर से बख्शीश के दे दिए। दर्जी ने झुक कर सलाम किया और मोदक जी सूट पहने हुए सीधे झेलम में जाकर शिकारे पर सवार हो गए। शिकारे से चलते-चलते वे अपने हाउस बोट पर गए। उन्होंने जैसे ही शिकारे से अपना पैर बोट पर रखा कि शिकारा पीछे हट गया और वे झेलम में गिर गए। शुक्र था कि पानी वहाँ गले तक ही था। जान बच गई, मगर सूट एकदम भींग गया। उन्हें शिकारे वाले ने तुरंत बाहर निकाला और बोट में चढ़ा दिया। जब वह पैसे लेकर चला गया और मोदक जी ने अपना सूट निकाल कर बोट की छत पर के घेरे पर फैलाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं। सूट सिकुड़ कर एकदम आधा हो गया था। इतने कीमती कपड़े की यह दुर्दशा देखकर उनका रोआँ-रोआँ क्रोध से काँप गया। वे फौरन पुराना सूट पहन कर उलटे पाँव उस दर्जी के पास पहुँचे और जितनी गर्मी और तेजी में बोल सकते थे, बोल गए। दर्जी उनकी बात पर तैश में न आकर हँसता रहा। उसकी इस बदतमीजी पर उनका गुस्सा बेपनाह हो गया। उन्होंने कहा–‘मैं अभी थाने में जाकर पुलिस को खबर देता हूँ। तुम्हारी सारी शेखी जो नहीं झड़वा दी तो मेरा नाम मोदकचंद नहीं।’

तब दर्जी धीरे से बाहर आया और बड़ी विनम्रता से बोला–‘साब! आप खामखा गुस्सा करता है। अगर सूट आधा हो गया तो क्या बुरा हुआ। उसको तो वैसा होना ही था!’

मोदक जी को तो जैसे बदन में लग गई। बोले–‘ऊपर से बदमाशी करता है! मैं मैं मैं…।’

दर्जी ने सलाम बजाकर सर झुकाया और कहा–‘साब ! यह कपड़ा कश्मीर का है। इसका करिश्मा आप नहीं जानता है। इसे ठण्डी में रख दो तो सिकुड़ जाएगा और गर्मी में रख दो तो अपनी सही शक्ल में आ जाएगा! क्या आप साब को साबजादा है?’

‘हाँ है तो!’
‘कितनी उमर का है?’
‘यही, करीब पंद्रह साल का होगा।’

‘तब तो कमाल है साब! यह सूट सर्दी में उसको पहनाना और गर्मी में खुद पहनना। जब उसको कुछ बड़ा हो तो थोड़ा पानी का छींटा उस पर मार देना और जब आपको कुछ छोटा हो तो उस पर इस्त्री कर देना। बात की बात में फैल कर बराबर पर आ जाएगा! साब! यह एकदम आजमूदा है। मैंने इस तरह का अभी एक तेरह सूट सीया है। आप इतमीनान रखो।’

दर्जी की यह करिश्मावाली बात सुनकर मोदक जी ने उछलकर उसके दढ़ियल गाल को चूम लिया और ऊपर से फिर दस रुपए की बख्शीश दे दी। बड़ी बेशकीमती खुशी लेकर अपने बोट पर लौट आए!

सो भाइयो! कल कवि-सम्मेलन के मंच पर आपने उन्हें जो बिना शिकन का सूट पहने हुए देखा, वह, वही सूट था। तुरंत इस्त्री कराके लाए थे। अगर आपको विश्वास नहीं हो तो आप मई के कवि-सम्मेलन में आ ही रहे हैं। अपनी आँखों देखेंगे कि वही सूट पहनकर उनका किशोर पुत्र आपकी बगल में बैठा है!!!

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बुबना साहब का इतना कहना ही था कि कवियों के साथ सारा उपस्थित समुदाय इतने जोर से हँस पड़ा कि आसपास के पेड़-पौधे और पहाड़ तक हिल उठे! वाह रे कपड़े का करिश्मा!!


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