शबनम की जंजीर

शबनम की जंजीर

हाँ, प्रतिमाएँ तो बन गई हैं–किंतु उनमें दम कहाँ, जान कहाँ? उनमें प्राण-प्रतिष्ठा होनी चाहिए–किंतु करे कौन? कलाकार हुंकार कर रहा है–‘विज्ञान काम कर चुका, हाथ उसका रोको!’ हाँ, हाँ, प्रयोग के लिए ही सही, ‘कला-कल्याणी’ को भी एक अवसर दिया जाना चाहिए। ‘लोहे की कड़ियाँ’ तो बेकार साबित हो चुकीं–‘शबनम की जंजीरों’ को भी क्यों नहीं आज़मा देखते?

रचना तो पूरी हुई; जान भी है इसमें?
पूछूँ जो कोई बात, मूर्ति बतलाएगी?
लग जाए आग यदि किसी रोज देवालय में,
चौंकेगी या यह खड़ी-खड़ी जल जाएगी?

ढाँचे में तो सब ठीक-ठीक उतरा लेकिन,
बेजान बुतों के कारीगर! कुछ होश करो।
जब तक पत्थर के भीतर साँस नहीं चलती,
सौगंध इसी की तुम्हें, न तुम संतोष करो।

भर सको, अगर, तो प्रतिमा में चेतना भरो,
यदि नहीं, निमंत्रण दो जीवन के दानी को;
विभ्राट, महाबल जहाँ थके-से दीख रहे,
आगे आने दो वहाँ क्षीणबल प्राणी को।

तैरता हवा में जो, वह क्या भारी होगा?
सपनों के तो सारथी क्षीणबल होते हैं;
संसार फूल से अपने को भूषित करता,
ये गंध-भार अपनी आत्मा ढोते हैं।

हाँ, सपनों का सारथी, यान जिसका कोमल
आँखों से ओझल हृदय-हृदय में चलता है;
जिसके छूते ही मन की पलक उघर जाती,
विश्वास भ्रांति को भेद दीप-सा बलता है।

सपनों का वह सारथी, रात की छाया में
आते जिसकी श्रुति में संवाद सितारों से;
सरिताएँ जिससे अपना हाल कहा करतीं,
बातें करता जो फूलों और पहाड़ों से।

पपड़ियाँ तोड़ फूटते जिंदगी के सोते
रथ के चक्के की लीक जहाँ भी पड़ती है;
प्रतिमा सजीव होकर चलने-फिरने लगती,
मिट्टी की छाती में चेतना उमड़ती है।

छेनी-टाँकी क्या करें? जिंदगी की साँसें
लोहे पर धरकर नहीं बनाई जाती हैं;
धाराएँ जो मानव को उद्वेलित करतीं,
यंत्रों के बल से नहीं बहाई जाती हैं।

विज्ञान काम कर चुका, हाथ उसका रोको,
आगे आने दो गुणी! कला कल्याणी को।
जो भार नहीं विभ्राट महाबल उठा सके,
दो उसे उठाने किसी क्षीणबल प्राणी को।

मानव-मन को बेधते फूल के दल केवल,
आदमी नहीं काटता बरछों से, तीरों से;
लोहे की कड़ियों की साजिश बेकार हुई,
बाँधों, मनुष्य को शबनम की जंजीरों से।


Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma