‘दारिद दुष्टन को गहि काढ़ौ’

‘दारिद दुष्टन को गहि काढ़ौ’

“चंद्र बदनि मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाँहि” के ही लेखक रूप में आचार्य केशव को लोग आम तौर पर जानते हैं। पर कवि का व्यक्तित्व इतना संकुचित नहीं हो सकता। हिंदी के इस वयोवृद्ध आचार्य ने अपने इस लेख में उनकी कविता के दूसरे पहलू की ओर भी हमारा ध्यान खींचा है।

केशव का नाम सूर और तुलसी के साथ सदा से लिया जाता है और वास्तव में होना भी ऐसा ही चाहिए! किंतु हिंदी काव्य के साथ जो दुर्व्यवहार पिछले वर्षों में हुआ उसका दुष्परिणाम यह निकला कि लोग केशव को भूल से गए और शिक्षाक्रम में हिंदी को स्थान मिला भी तो लोग उनकी बहुछंदी रचना रामचंद्रिका का ही अध्ययन-अध्यापन करते रहे। बहुत हुआ तो साहित्य-शास्त्र के नाते उनकी ‘कवि-प्रिया’ और ‘रसिक-प्रिया’ का नाम भी कान में पड़ गया, पर किसी का ध्यान उनकी उस रचना की ओर न गया जिसमें उनका जीवन बोल रहा है। यदि किसी इतिहास के प्रेमी ने उसका उल्लेख भी किया तो उपेक्षा के साथ। किंतु समय-समय पर कुछ लोगों के द्वारा जब-तब जहाँ-तहाँ उसका उल्लेख होता अवश्य रहा। आज जबकि राष्ट्र स्वतंत्र हो गया है और जैसे-तैसे हिंदी को राष्ट्रभाषा भी मान चुका है तब हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था भी पक्की होनी चाहिए। और सच तो यह है कि इसके बिना हमारा वह कुसंस्कार भी दूर नहीं हो सकता जो इतने दिनों की दासता के कारण हममें घर कर चुका है। हमारा धर्म आज हमें क्या सिखाता है और आज ‘धर्म’ के नाम से हमारे मन में क्या भाव उठता है, इसे भी हम नहीं कहते, हमारे कहे बिना ही इसे आप भली भाँति जान लेते हैं। परंतु आज हमें कहना यह है कि कभी केशव के ‘धर्म’ ने कहा था–

राज करौ चिर वीर नरप्पति
वामन के पद सौं पद बाढ़ौ।
दु:ख हरौ नित दीननि के नृप
विक्रम ज्यौं करि विक्रम गाढ़ौ
भूतल तैं कहि केसव बेगि दै
दारिद दुष्टन कौ गहि काढ़ौ।
ऐसेहि भाँति सदा तुमसौं हरसौं
हरि सौं गुरु सौं रति बाढ़ौ।

यह है केशव के धर्म की कामना। कौन है आज राष्ट्र का ऐसा देशप्रेमी जो इस कामना में मीनमेष करे और इसकी पावन भावना में कहीं से खोंच निकाले? पर साथ ही कितने हैं ऐसे देशप्रेमी हिंदी-भक्त भी जो इसे जानते भी हैं? हाँ, केशव ने इसमें ‘हर’ का भी नाम लिया है और लिया है ‘हरि’ का नाम भी; पर साथ ही भूला नहीं है नाम ‘गुरु’ का भी। आप चाहें हर-प्रेमी बनें, चाहें हरि-प्रेमी बनें, चाहें गुरु-प्रेमी बनें, चाहे जो प्रेमी बनें, पर प्रत्येक दशा में आपको लोक में भी कुछ करना है और वह यही कि–

भूतल तैं कहि केसव बेगि दै
दारिद दुष्टन कौ गति काढ़ौ।

हाँ अपने घर से नहीं, परिवार से नहीं, गाँव से नहीं, जनपद से नहीं, प्रांत से नहीं, देश से नहीं, समस्त राष्ट्र से नहीं। हाँ, भूतल से, समस्त भूतल से। समस्त भूतल से क्यों? कारण प्रत्यक्ष है। भूतल के बोध बिना ‘हर’ और ‘हरि’ का बोध नहीं हो सकता और नहीं हो सकता वास्तव में ‘गुरु’ का भी पता। निदान समस्त भूमंडल से निकाल देना होगा दारिद्रय और दुष्ट को। इसके बिना किसी राष्ट्र का सच्चा कल्याण कहाँ? कुछ दिन के लिए सुख का धोखा भले ही हो ले। अंत में किसी न किसी दिन दु:ख तो उसे भी देखना ही है और नित्य की चिंता तो सुख के साथ चलती ही रहती है।

किंतु भूतल से ‘दरिद्र’ और ‘दुष्ट’ का लोप कब होगा? तभी न जब–

‘दु:ख हरौ नित दीननि के नृप विक्रम ज्यौं करि विक्रम गाढ़ौ’ को अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाएँगे? दीन जनों का दु:ख हरना किसी पर्व पर नहीं हो सकता। नहीं, यह तो प्रतिदिन का काम है और है नित्य का धर्म। किसी दिन किसी भावावेश में आ कुछ कर देने से अथवा किसी ताव में आ कुछ दे देने से दीनता दूर नहीं होती, नहीं हो सकती। नहीं, इसके लिए तो नित्य ही कुछ-न-कुछ करना ही होगा। पर इसकी प्रेरणा मिलेगी कहाँ से? केशव कहते हैं–कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं। यहीं और इसी देश में हो गए हैं एक ‘विक्रम’। बस उन्हीं के पराक्रम को लो और कुछ ऐसा ‘विक्रम’ कर दिखाओ कि उन्हीं की भाँति तुम्हारा भी सिक्का चल निकले पर यह होगा तभी जब करोगे गाढ़ा विक्रम। गाढ़ी कमाई के बिना लोक का कल्याण कहाँ?

पर यह विक्रम हो किस प्रकार? इसका भी तो कुछ मार्ग होना चाहिए। केशव यहाँ भी मौन नहीं। राजा भले ही न रहे, पर राज्य तो होगा ही। देखते नहीं, राजा मिटे पर ‘राज्य’ तो नहीं मिटे? तो फिर केशव के–

राज करौ चिर वीर नरप्पति
वामन के पद सौं पद बाढ़ौ।

का अर्थ क्या? अत्यंत सरल। इसी को कर लीजिए–

राज करौ चिर वीर ‘रजंदर’
विक्रम ज्यो करि विक्रम गाढ़ौ।

अथवा–

राज करौ चिर वीर ‘जवाहिर’
विक्रम ज्यौं करि विक्रम गाढ़ौ

अर्थात् राज कोई करे पर करे गाढ़ा विक्रम कर के ही। अर्थात् बाप के बल पर नहीं, अपने बल पर राज करे, और राज करे अपने हित के लिए नहीं अपितु दीन-दुखियों के हेतु। दारिद्रय और दुष्ट-दलन के लिए, कुछ आव ताव के लिए नहीं।

हाँ, इसमें कहीं ‘धर्म’ का नाम नहीं आया, पर केशव के ‘वीर सिंह देव चरित’ में कहा गया है यह राज्याभिषेक के उपरांत ‘धर्म’ की ओर से ही। केशव का ‘धर्म उवाच’ देखने के योग्य है। ‘उवाच’ संस्कृत में है न?


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