नत-मस्तक हूँ
- 1 April, 1951
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https://nayidhara.in/kavya-dhara/hindi-poem-nat-mastak-hun-by-poet-ramanujlal-srivastava-nayi-dhara/
- 1 April, 1951
नत-मस्तक हूँ
नत-मस्तक हूँ, पद-नख धर दो।
मेरे बंधन टूट चुके सब; तुम भी मुझे मुक्त अब कर दो॥
नत-मस्तक हूँ॥
आँखें रहते देख न पाई राह, तुम्हें भी देख न पाया।
मैंने पीछा बहुत किया, पर आगे रही तुम्हारी छाया।
दौड़-धूप के अंतिम क्षण में, हे विद्युद्छवि! तनिक छहर कर
रवि-शशि-शून्य, गहन तम-पथ को, पद-नख-चंद्र-छटा से भर दो॥
नत-मस्तक हूँ॥
बाहर बहुत ढूँढ़ कर देखा, मुझको कोई ठौर नहीं है।
भीतर कभी-कभी ऐसा लगता है, तुम हो और नहीं है।
भीतर-बाहर की रेखा पर, खड़ा हुआ हूँ, अंधकार में।
हृदय-कालिमा, हे पद्माम्बुज! चरण-लालिमा से निज; हर दो॥
नत-मस्तक हूँ॥
आना-जाना नियम जगत का, किंतु यही मैंने जाना है।
हर क्षण जगत बना लेते हो, हर क्षण जाना औ’ आना है।
ऐसे में मैं पास तुम्हारे होऊँ, या कि दूर हो जाऊँ।
चरण-कमल में लीन रहूँ, हे कमल-चरण! मुझको यह वर दो॥
नत-मस्तक हूँ, पद-नख धर दो॥