कल्पना के चरण

कल्पना के चरण

पंथ खोजा किए कल्पना के चरण
लौट जब वे गए स्वर्ग के द्वार से!

प्राण यौवन मिला मोड़ पर, भर गया–
साँस में बाँसुरी की नई रागिनी,

और दिन सी उजेली नई आँख में
थी मचलने लगी रात उन्मादिनी,
गंध भीनी पवन फूल पर झूमती,
पर डगर पर चरण थे मगर मन कहीं,
थीं स्मरण की चिताएँ सजीं शूल से
होश खोए पड़ा तन, पड़ा मन कहीं।

साँझ आई अगुरु घूम की गंध भर
मुक्तकेशी चरण लाल अंगार से।
पंथ खोजा किए कल्पना के चरण
लौट जब वे गए स्वर्ग के द्वार से!

साँझ हल्की दिवस प्यार पा हँस उठी,
लाज लाली खिली, बह चली बात भी,
तितलियों सी लहर गीत बन बह उठी,
और लेने लगी करवटें रात भी।
चाँद गाने लगा गोद में रात के,
बेखबर किंतु यौवन रहा आप में।
फूल नहाते रहे, भौंर गाते रहे,
प्राण जलते रहे, प्राण के ताप में।

स्वप्न आए बने जागरण भी नहीं,
जागरण खो गए स्वप्न संसार से।
पंथ खोजा किए कल्पना के चरण
लौट जब वे गए स्वर्ग के द्वार से!

प्राण कंकाल मद-रूप-सर में नहा
स्वर्ण सौदामिनी की छटा से चपल,
देह सीमा चले लाँघ छवि मेष-घन
बाँध निज अंक में मृत्यु जीवन सबल।
कल्पना में उभरते गए रूप पर
वे न जी ही सके छंद के बंद में,
मैं यही प्रश्न करता गगन से रहा
पूछता पुष्प के कुंद मकरंद से–

चाहिए स्वर्ग वह जो चिरंतन नया
म्लान होता नहीं रूप व्यापार से।
पंथ खोजा किए कल्पना के चरण
लौट जब वे गए स्वर्ग के द्वार से!


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