आपके रास्ते
- 1 April, 1964
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- 1 April, 1964
आपके रास्ते
जब कभी भी ‘रास्ता’ शब्द सुनता हूँ, तो मुझे गाँव की वे पगडंडियाँ याद आ जाती हैं, जो गाँव की धूल भरी जमीन से निकलकर आम के बगीचों या लहलहाते खेतों में खो जाती हैं। शायद यह मेरे बचपन का संस्कार है, जो अपनी जगह आज भी सुरक्षित है। फिर हाई स्कूल वाले कस्बे की रोड़े-पत्थरों वाली सड़क याद आती है। और, अभी मैं जिस रास्ते से होकर यहाँ तक आया हूँ, वह अलकतरा पुता, खूबसूरत है। इसे कैसे नहीं याद रखूँ?
ये रास्ते हैं, जिन पर मेरे पाँव चलते रहे हैं। गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी और राजधानी की खूबसूरत सड़कें। लेकिन जब मैं गंभीरतापूर्वक सोचता हूँ, तो लगता है कि मैंने जिन रास्तों का जिक्र किया है, वस्तुत: वे ऐसे नहीं कि इंसान को ढोकर एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुँचा दे। अगर ऐसा होता तो आप केवल मेरी ही बातें अभी क्यों सुनते?
मन कहता है कि आदमी पाँव से नहीं, सर से चलता है। सर से चलना मुहावरा है, जिसके अर्थ के साथ मेरी स्थापना का तारतम्य जोड़कर आप हँस सकते हैं। क्योंकि मेरी स्थापना में यह भी समाहित है कि जिस बात को मैं गंभीरतापूर्वक लूँ, उसे आप हँसी में ले सकते हैं। तुलसीदास ने कहा है…
मारग सोई जाको जो भावा
तुलसीदास की यह पंक्ति मिल गई, तो लगता है, मैं अपनी बातें आप पर स्पष्टतापूर्वक प्रकट कर सकूँगा। आखिर तुलसीदास के इस ‘मारग’ का क्या अर्थ हो सकता है? क्या बनारस से वृंदावन जाने के लिए आप बनारस से पूरब की तरफ चलेंगे और बर्मा होकर वृंदावन जाने का कोई रास्ता खोजेंगे? शायद नहीं। मतलब यह कि इंसान अपनी जिंदगी गुजारने के लिये एक रास्ता चुनता है और हमेशा उस पर चलकर कुछ प्राप्त करना चाहता है। यही कारण है कि एक ही बाप के तीन बेटे कोई डॉक्टर, कोई राजनीति का पहरुआ और कोई शब्दों का साधक कवि, लेखक होता है। हर आदमी बुद्धि की एक इकाई है और उसे हक है कि वह अपना रूप चाहे जैसा गढ़े। यह ईश्वर की दी हुई व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। यह वैज्ञानिक सत्य है। यानी, अगर व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात सही है, तो जीवन के उतने ही रास्ते हैं, जितने लोग भूगोल पर जी रहे हैं। आदमी की हर इकाई को अपने तरीके से जीने का हक है, यानी ‘मारग सोई जाको जो भावा।’ लेकिन तुलसीदास ने इस पंक्ति का प्रयोग व्यंग्य में किया है। इस पंक्ति के जरिए उन्होंने बौद्धिक अराजकतावादियों की निंदा की है। शायद वैसा ही व्यंग्य, जैसा ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना’ में ध्वनित है।
तब मनुष्य की मानसिक यात्रा के लिए कैसे रास्ते हों? गाँव की छोटी-छोटी, टेढ़ी-मेढ़ी, सामयिक पगडंडियाँ या राजधानी का प्रशस्त राजमार्ग? प्रश्न विचारणीय है। सारी दुनिया के लोग बड़ी तत्परता से इस बात पर विचार कर रहे हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि बनारस से वृंदावन जाने के लिये बर्मा होकर अगर कोई तैयार है, तो ठीक है। लेकिन कुछ लोग ऐसे यात्री को दिग्भ्रमित मानते हैं। बनारस से वृंदावन जाने के सीधे रास्ते हैं जिनके द्वारा श्रम और साधन को बचाया जा सकता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह कहते हैं कि कहाँ का बनारस और कहाँ का वृंदावन? आदमी को अगर यात्री बनना है, तो वह यात्री बने; मात्र यात्री। उसका धर्म सिर्फ चलते चलना है। पाँव का धर्म! वह क्यों सोचे कि कहाँ और कैसे जा रहा है।
मानव की इस यात्रा के विषय में चिंतन करने वालों में राजनीतिज्ञ, समाज-शास्त्री और साहित्यकार प्रमुख हैं। दुनिया की वर्त्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि राजनीतिज्ञ इस प्रश्न के सिलसिले में चिंतन कम, आदेश अधिक देते हैं। राजनीति के साथ अधिकार जुटा है। अधिकार समूह से व्यक्ति की ओर उन्मुख है। व्यक्ति समूह से प्राप्त अधिकार को समूह पर लादता है। और, तब चिंतन की अधिक गुंजाइश नहीं बच जाती। अधिकार निर्देशित चिंतन हमेशा मानसिक कुंठा का जनक सिद्ध होता है। समाजशास्त्री व्याख्यता-शैली में चिंतन करता है। उसके द्वारा सत्य वैज्ञानिक ढर्रे पर उद्घोषित होता है, मगर उस सत्य के आरोपण में संयमी तटस्थता होती है। साहित्यकारों का चिंतन इन दोनों से भिन्न होता है। उसके चिंतन की प्रक्रिया तटस्थ होती है, किंतु उसकी उद्घोषणा प्रतिश्रुत।
इसलिए राजनीतिज्ञों के समक्ष सिर्फ यह सवाल है कि वह समूह को रास्ते पर ले चल रहा है या नहीं, समाजशास्त्री के लिए इतनी ही बातें अलम हैं कि रास्ते की विश्लेषण-व्याख्या वैज्ञानिक हुई या नहीं, मगर साहित्यकार के लिये दोहरा दायित्व है–उसकी प्रक्रिया तटस्थ है या नहीं तथा उद्घोषणा प्रतिश्रुत है या नहीं।
फिर यह प्रश्न उठता है कि साहित्यकारों को दोहरा दायित्व क्या ढोना ही चाहिए? शायद इसका उत्तर स्वीकारात्मक है। क्योंकि, अगर उसकी प्रक्रिया तटस्थ नहीं होगी, तो वह बनारस से वृंदावन जाने के सही रास्ते की पहचान नहीं कर पाएगा और उसकी उद्घोषणा अगर प्रतिश्रुत नहीं होगी, तो वह जन-मानस को यह विश्वास नहीं दिला पाएगा कि रास्ते कौन अच्छे होते हैं।
कुछ बौद्धिकों को इन बातों से विरोध हो सकता है। वे तर्क की भूमि पर, यात्रा का अर्थ, पाँवों का धर्म कह सकते हैं। दुनिया के कुछ कोनों से वे समर्थन के उदाहरण भी पेश कर सकते हैं। अपने समर्थन में वे तुलसीदास को भी उद्धृत करने से बाज नहीं आते–मारग सोई, जाको जो भावा। एक आम कहावत है–कहाँ जा रहे हो? कहीं भी नहीं। क्या चाहते हो? कुछ भी नहीं।
ऐसी मानसिक स्थिति मृत्यु-बोध है। हम जीवित प्राणियों की चर्चा करते हैं, अत: कहाँ जा रहे हो और क्या चाहते हो का उत्तर देना ही होगा। यह जीवन का सही और सीधा तकाजा है।
तब, हर वर्ग के बौद्धिकों के लिए रास्ते के प्रति एक शर्त हो जाती है कि रास्ते के प्रति प्रतिश्रुत होना होगा। राजनीति या समाजशास्त्र या साहित्य या ज्ञान का कोई भी कोना हो, जीवन के रास्ते के प्रति इंसान को प्रतिश्रुत होना ही होगा। और, खासकर उनके लिये, जो अपने को मानव की यात्रा का विधायक मानते हैं, यह शर्त बहुत आवश्यक है। यह शर्त्त अपने में उत्तर है। अगर हम मानव की यात्रा की बात करते हैं, तो स्वत: सिद्ध है कि वह विजय या पराजय की ओर होगी। पराजय की ओर दौड़नेवाले मृत्युमुखीन चिंतकों, विचारकों के लिए फूलों की तरह खिलने वाले इंसान के समाज में शून्य का आसन होता है। फिर यह जरूरी हो जाता है कि हम ज्ञान या कर्म की जो भी विधा अपनाएँ, मानव की जय-यात्रा के लिए प्रतिश्रुत होना है। अगर ऐसा नहीं होता है, तो ये बड़े-बड़े नगर, रेल और जहाज, रेडियो, टेलिवीजन, साहित्य के बड़े-बड़े ग्रंथ निरर्थक हैं।
गाँव की छोटी पगडंडियाँ हों या विस्तृत राजमार्ग, वे उन धमनियों की तरह हैं, जिनका लक्ष्य एक निश्चित मात्रा में रक्त-वहन कर प्राणों की धड़कन कायम रखना है। शरीर के लिए रक्त-वाहिनी धमनियाँ हैं। इंसान के समूह को जिंदा रखने के लिए विचारकों की मानस-पद्धतियाँ होनी चाहिए। यही मानवता का सत्य है। और जो सत्य है, वह चिरंतन है। इसलिए ‘ओई सोई मारग’ भ्रांत लोगों के लिए है। बुद्ध-विधायकों को आज के दिन निश्चित रास्ता अख्तियार करना होगा, वरना निर्माण की मंगलमय वेला कुहासे से ढँकी रह जायगी।