नीली झील
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
नीली झील
एकांकी
नाटक के माध्यम से इतिहास के पन्नों को बहुत कुरेदा गया। अब जरूरत है वर्तमान के भयंकर सत्य का सामना करने की। इस दिशा में ‘नीली झील’ अपनी तरह की अनूठी चीज है, सिर्फ अपने नएपन के लिए ही नहीं बल्कि उस साहस के लिए भी जिसके बिना इस तरह नग्न सत्य का सामना करना असंभव था।
पात्र
नीली झील का तांत्रिक
नीली झील की पहली संतान
नीली झील की दूसरी संतान
नीली झील की आत्माहीन संतान
समय
ईसा जन्म के 1950 वर्ष के बाद
[अजब से बेडौल शक्ल वाले, काले-कुबड़े पर्वत शिखर, जिनको बीच-बीच में टेढ़े-मेढ़े रहस्यमय साँपों जैसे दर्रे चीरते हुए अँधेरे में खो जाते हैं। चट्टाने जहाँ खत्म होती हैं वहाँ से झील तक भूरी, सुनहरी, सूखी घास वाले मैदान की एक चंद्राकार पट्टी है। उसके बाद शांत नीली झील है, ज्यामिति के अठकोण के आकार की। किनारे पर एक बिल्कुल अपरिचित ढंग का पेड़ है जिसमें झील के आकार और रूप-रंग के बड़े-बड़े लंबे पत्ते। पेड़ की कई जड़ें फूटी हैं।
पहाड़ों पर एक हल्का आलोक छाया है जिसमें कोहरे की एक हल्की चादर किसी विशाल गरुड़ के पंखों की तरह छाई है। सारा दृश्य इंद्रजाल मालूम होता है। न पहाड़ असली है, न पेड़, न कोहरा, न झील और न बाँसुरी का वह संगीत ही इस लोक का मालूम होता है, जो जादू के इन नकली रहस्यमय पहाड़ों में रह-रहकर गूँज उठता है। बाँसुरी की तेज होती हुई आवाज के साथ कोने की एक बड़ी चट्टान को हाथ से हटाते हुए एक बूढ़ा प्रवेश करता है। झील के रंग की पोशाक, माथे पर रक्त-चंदन, बाल भौंहें तक हिमश्वेत हैं। पीठ दोहरी हो गई है। पैर और गर्दन काँपती है। स्टेज पर आकर झील के किनारे वह रुक जाता है। झुक कर झील में अपनी छाया देखता है और फिर दर्शकों की ओर देखता हुआ कहता है :–]
नीली झील! मैं नीली झील का बूढ़ा तांत्रिक हूँ। मेरी इन बूढ़ी आँखों ने न कभी झील को सूखते हुए देखा है और न विक्षुब्ध होते हुए। इन काली-सूखी, नंगी और क्रूर चट्टानों के बीच यह झील हम में रस का संचार करती हैं, हमें जीवन देती हैं। हम और हमारी जाति लाखों वर्षों से इन्हीं चट्टानों के बीच, इसी झील के किनारे रहते आए हैं।
[स्टेज पर एक ओर से एक व्यक्ति बाँसुरी लिए हुए और दूसरी ओर से दूसरा व्यक्ति एक हाथ में हँसिया, दूसरे में धान के पूले लिए आता है]
यह हमारी जाति के लोग हैं, जो चट्टानों की छाती फोड़ कर जिंदगी उगाते हैं, और बाँस की टहनियों को गुदगुदा कर संगीत बिखेरते हैं।
पहला व्यक्ति–ये चट्टानें हमें बल देती हैं।
दूसरा व्यक्ति–ये वृक्ष हमें छाया देते हैं।
पहला व्यक्ति–यह झील हमें जीवन देती है।
दूसरा व्यक्ति–हम झील के किनारे चट्टानों के बीच, फूलों की तरह खिलते हैं।
पहला व्यक्ति–हम धूप और वर्षा, रेत और तूफान झेल कर फूलों की तरह मुर्झा जाते हैं।
दूसरा व्यक्ति–फिर माँ धरती अपनी बाहें खोल कर हमें सुला देती है।
पहला व्यक्ति–और हमारी हड्डियाँ भी जम कर चट्टान बन जाती हैं।
[तांत्रिक पुन: आगे आता है]
तांत्रिक–मुझमें चट्टानों से लड़ने की ताकत नहीं रही। मेरी इन धुँधली आँखों ने तिरसठ चंद्रग्रहण देखे हैं। मेरी इन मुट्ठियों ने सवा सौ फसलें काटी हैं। अब मैं चट्टानों से नहीं लड़ सकता। अब मैं तांत्रिक हूँ, ये फसलों की देख-भाल करते हैं।
पहला व्यक्ति–और तांत्रिक हमारी आत्मा की देख-भाल करता है।
दूसरा व्यक्ति–जैसे चरवाहे भेड़ों की गिनती रखते हैं वैसे तांत्रिक हमारी आत्मा की गिनती रखता है।
तांत्रिक–जब ये झील के किनारे चलते हैं, इनकी परछाँई झील में लहराती है। जिस दिन इनमें से कोई अपनी आत्मा कहीं खो आता है उस दिन झील क्रुद्ध हो जाती है। उस दिन इनकी परछाँई झील में नहीं झलकती। उस दिन मैं इनसे पूछता हूँ–तुम्हारी आत्मा कहाँ गई और उस दिन जो निरुत्तर हो जाता है, उसे इन अंधी घाटियों से अपनी आत्मा खोजने अकेले जाना पड़ता है, बिल्कुल अकेले।
पहला व्यक्ति–(मायूसी और भय से) उनमें से कोई आज तक लौट कर नहीं आया। [इसी बीच में बाईं ओर के पहाड़ों में से एक बिल्कुल आधुनिक ढंग की पोशाक पहने व्यक्ति, हाथ में एक सुंदर थैला लिए धीरे-धीरे स्टेज के किनारे आकर खड़ा हो जाता है, ठिठका हुआ-सा। उसे देखते ही दूसरा व्यक्ति सहम कर बूढ़े तांत्रिक का कंधा छूकर संकेत से आगंतुक को दिखाता है ]
दूसरा व्यक्ति–(आकुलता से) कौन है यह?
पहला व्यक्ति–(विरोध के स्वर में) यह यहाँ कैसे आया?
दूसरा व्यक्ति–(आकुलता से) हम पर कोई आपत्ति आने वाली है।
तांत्रिक–(बूढ़ी आँखों पर काँपती हुई हथेली रख कर ध्यान से देखता हुआ) कौन हो तुम?
[आगंतुक खामोश]
पहला युवक–(धमकी से) तुम यहाँ कैसे आए? [आगंतुक खामोश]
दूसरा युवक–यह हमारा देश है। नीली झील की संतानों का देश।
पहला युवक–यहाँ हमारे पूर्वज रहते आए हैं। यहाँ उनकी हड्डियाँ चट्टान बन गई हैं।
[आगंतुक खामोश रहता है पर आगे बढ़ता है ]
तांत्रिक–यहाँ न कोई जिंदा आ पाता है, न यहाँ से वापस जिंदा जा पाता है। (आगंतुक खामोश बढ़ता है) पागल लड़के लौट जा, सिवा नीली झील की संतानों के, यहाँ कोई कदम नहीं रख सकता।
पहला व्यक्ति–तुम्हारी हड्डियों में मोर्चा लग जाएगा।
दूसरा व्यक्ति–तुम्हें नीली झील निगल लेगी।
आगंतुक–मैं भी नीली झील की संतान हूँ।
तांत्रिक–तुम?
आगंतुक–हाँ मैं, आज से बीस चंद्रग्रहण पहले पछुआ हवाओं के पीछे-पीछे मैं यहाँ से चला गया था, उधर उस देश में जहाँ झीलें बाँध दी गई हैं, जहाँ नदियों से रोशनी खींची जाती है।
तांत्रिक–अच्छा याद आया। हमलोगों ने तुम्हारी बहुत खोज की। तुम नहीं मिले, तो हमने पूज्य पर्वतों से तुम्हारे कल्याण की कामना की।
पहला व्यक्ति–हमने तुम्हारे लिए नीली झील से कुशलता का आशीर्वाद माँगा।
तांत्रिक–और तुम्हें नीली झील ने वापस बुला लिया। इधर आओ तुम्हें देखूँ। (तांत्रिक स्नेह से उसकी बाँह टटोलता है। दोनों व्यक्ति आश्चर्य से उसकी पोशाक छूते हैं। उसका थैला देखते हैं)
आगंतुक–मैंने उस देश में दिग्विजय की और जब कुछ भी ऐसा न बचा जिसे मैं जीत सकूँ तो मुझे याद आई नीली झील की। मैं पर्वतों और झीलों को अर्पण करने के लिए सोना लाया हूँ।
[सोना निकालता है]
पहला व्यक्ति–(आश्चर्य से) सोना।
दूसरा व्यक्ति–(लालसा से) सोना।
तांत्रिक–(डाँट कर) सोना! रख दो उसे। तो तुमने वहाँ सोना निकलवाया।
आगंतुक–मैंने जंगलों से काले हब्शी पकड़े। उनसे खानें खुदवाईं, उनको कोड़े लगवाए और उनसे सोना निकलवाया।
तांत्रिक–और क्या किया उस सोने से?
आगंतुक–मैंने उस सोने से औरतें खरीदीं, उन औरतों के लिए हाथी दाँत की शैया और मोती के हार खरीदे।
पहला व्यक्ति–हार! कितना सुंदर है यह। (तांत्रिक ताड़ना की नजर से देखता है, वह चुपचाप हार रख देता है)
तांत्रिक–और?
आगंतुक–और उनके लिए बारीक से बारीक कपड़े खरीदे जिनमें वे और भी निर्लज्ज दीख पड़ें।
तांत्रिक–और?
आगंतुक–और जब उन गुलामों, उन औरतों और उनके पिलपिले बच्चों से तबीयत ऊब गई तो मैंने फौलाद की भट्टियाँ बनवाई जिनमें उन्हें घास-फूस की तरह झोंक दिया।
पहला व्यक्ति–फौलाद की?
आगंतुक–हाँ फौलाद की भट्टियाँ। उनको लोग मशीनें कहते हैं। लेकिन उन मशीनों ने उन गुलामों और औरतों को पीस कर और भी चतुर बना दिया और वे पता नहीं किस चीज के लिए लड़ने लगे जिसे वे (याद करते हुए) अधिकार कहते थे।
तांत्रिक–तब?
आगंतुक–तब मैंने भी उसी अधिकार की बात कहनी शुरू की। और एक ओर उन मशीनों और दूसरी ओर उन गुलामों पर कब्जा जमाया और मेरे हाथ में राज दंड आ गया और…
तांत्रिक–और?
आगंतुक–और तब प्रजाओं का राज्य हुआ! प्रजातंत्र! सत्ता मेरे हाथ में थी, तंत्र प्रजाओं का था। फिर प्रजातंत्र दो हुए। सोने के प्रजातंत्र और जनता के प्रजातंत्र, और सोना मेरा था और जनता के दिमागों पर कब्जा मेरा था और प्रजातंत्र दो थे, एक का तानाशाह मैं था और दूसरे का तानाशाह मैं था और मैं अपने से लड़ने लगा।
तांत्रिक–तुम अपने से लड़ने लगे?
आगंतुक–हाँ। नहीं; मैं तो सिर्फ हुक्म देता था। एक ओर से मेरी प्रजाएँ लड़ती थीं और दूसरी ओर से मेरी प्रजाएँ लड़ती थीं और एक ओर से मेरी प्रजाओं का रक्त बहता था और दूसरी ओर से मेरी प्रजाओं का रक्त बहता था। और इस तरह एक युद्ध हुआ, दूसरा युद्ध हुआ, तीसरा युद्ध हुआ और प्रजाओं को खून का चस्का लग गया और वे कटती-मरती रहीं…मैं उनका सोना, उनके कपड़े, उनका अन्न, उनका वैभव, उनका तेज, उनका बल लेकर चला आया नीली झील के देश में।
तांत्रिक–तो तुम उस देश से अपना सोना सही-सलामत ले आए।
आगंतुक–मैं उस देश से अपना सोना सही-सलामत ले आया।
तांत्रिक–तुम उस देश से अपना अन्न, बल, वैभव, तेज सही-सलामत ले आए?
आगंतुक–मैं उस देश से प्रजाओं का अन्न, बल, वैभव, तेज, सही-सलामत ले आया।
तांत्रिक–और अपनी आत्मा?
आगंतुक–आत्मा?
तांत्रिक–तुम उस देश से अपनी आत्मा सही-सलामत ले आए?
आगंतुक–आत्मा, आत्मा क्या?
तांत्रिक–इतनी जल्दी भूल गए? (हँस कर) याद करो, तुम यहाँ से एक आत्मा भी ले गए थे?
आगंतुक–मैं ले गया था यहाँ से?
तांत्रिक–याद करो, तुम जब इन चट्टानों की गोद में खेलते थे, तो इन चट्टानों ने तुम्हें एक आत्मा दी थी, जो इन्हीं चट्टानों की तरह अटूट और दृढ़ थी, इन्हीं की तरह विराट और निर्लेप थी। इन्हीं की तरह…
आगंतुक–आत्मा, चट्टानों की तरह?
तांत्रिक–याद करो, जब तुम इस नीली झील के किनारे बैठ कर बाँसुरी बजाया करते थे तो लहरों के साथ नाचती हुई एक परछाँई आती थी तुम्हारे पैरों के पास शांत जल में सोई हुई तुम्हारा गीत सुनती थी। वह नीली झील के समान स्वच्छ और गहरी थी, वह झील की सतह पर साँवले कमल की तरह खिलती थी।
आगंतुक–साँवले कमल की तरह?
तांत्रिक–याद करो, तुम इस पेड़ की छाँह में बैठते थे, तो एक आत्मा आशीर्वाद की तरह तुम पर छाई रहती थी। वह इस पेड़ की तरह धरती की गहराइयों से अंकुरित हुई थी। वह सोंधी मिट्टी से जीवन खींचती थी और अंधकार की पर्तें तोड़ती हुई दिन-दिन ऊँचे उठती थी, आकाश की ओर बढ़ती थी, पवित्रता की ओर बढ़ती थी।…
आगंतुक–पवित्रता की ओर? मुझे कुछ भी याद नहीं आता, मुझे कुछ याद नहीं आता। मैं यहाँ से कोई आत्मा नहीं ले गया।
तांत्रिक–तुम झूठ बोलते हो, तुमने राजदंड से अपनी आत्मा की हत्या कर दी, उसे सोने के मकबरे में दफन कर दिया। तुम्हारे राजदंड पर गाढ़े खून के दाग हैं। तुम्हारे सोने पर मक्खियाँ बैठ रही हैं।
आगंतुक–(चीखकर) मैंने किसी की हत्या नहीं की। तुम झूठ बोलते हो।
तांत्रिक–(शांत) मैं झूठ बोलता हूँ। इधर आओ! इस झील के किनारे खड़े हो। इसमें झुककर देखो। क्या देख रहे हो?
आगंतुक–कुछ नहीं दीख रहा।
तांत्रिक–(दूसरे व्यक्ति से) इसके क्या अर्थ हैं?
दूसरा व्यक्ति–इससे मालूम होता है यह आदमी अपनी आत्मा कहीं खो आया है।
तांत्रिक–(पहले व्यक्ति से) अपनी बाँसुरी दो इसे। (आगंतुक से) फूको इसे (बाँसुरी खामोश) इसके क्या अर्थ हैं?
पहला व्यक्ति–इसकी आत्मा मर गई है। इसमें प्राण नहीं, साँस नहीं, संगीत नहीं।
तांत्रिक–ठीक (आगंतुक आगे बढ़ता है) खबरदार, वहीं खड़े रहो। यह महान व्यक्ति नीली झील की दिग्विजयी संतान है। इसकी पीठ पर सोना है और हाथ में राजदंड और यह आत्माहीन है। (दोनों व्यक्तियों से) दूर रहो, इसकी छाँह जिस पर पड़ेगी उसकी पसलियों के नीचे पंजे निकल आवेंगे, उसके दिमाग में कीड़े रेंगने लगेंगे…(उसके चारों ओर एक वृत्त खींचता है) इसके आगे मत बढ़ना…मत बढ़ना। (दूसरे व्यक्ति से) जाओ, घाटी में मुनादी करा दो कि कोई बच्चा झील के किनारे खेलने न आए, गृह-वधुएँ द्वार बंद कर लें। किसी पर इस व्यक्ति की छाँह न पड़े। कह दो कि वह नीली झील की गौरवमयी संतान है जो 20 चंद्रग्रहणों बाद सोना और राज सत्ता जीत कर आई है, पर अपनी आत्मा की हत्या कर आई है।
आगंतुक–यह झूठ है।
[दूसरा व्यक्ति जाता है, जाते समय लालच भरी निगाह से घूम-घूमकर सोने की ओर देखता है]
तांत्रिक–झूठा आरोप है? तुमको विश्वास नहीं होता? अच्छा मैं तुम्हें दिखाता हूँ। पवित्रता की राजकुमारी हमारी आदि व जननी यह नीली झील कभी झूठ नहीं बोलती। (पहले व्यक्ति से) इधर आओ, झील के किनारे खड़े हो। मन में एक ताजे कमल की कल्पना करो जिसमें एक हजार एक पंखुड़ी हों…(मंत्र-सा पढ़ता है) मैं तुम्हारी आत्मा को तुमसे अलग करता हूँ…मैं तुम्हारी आत्मा को अतीत के अंधियारे देश में भेजता हूँ…मैं तुम्हारी आत्मा को इतिहास के बीते हुए मगर अलिखित अध्यायों में भेजता हूँ। तुम्हारी आत्मा क्या देख रही है?
पहला व्यक्ति–नीली झील में काले पहाड़ काँप रहे हैं और उन पर एक घायल हिरणी दौड़ रही है।
तांत्रिक–वह इसकी आत्मा है।
पहला व्यक्ति–काले गुलाम एक चट्टान उलट रहे हैं। वह सोना बटोर रहा है। चट्टान के नीचे एक फूल की झाड़ी कुचल गई है।
तांत्रिक–वह इसकी आत्मा है।
आगंतुक–(भय से चीख कर) यह झूठ है।
पहला व्यक्ति–हाथी दाँत की मेज पर एक लड़की सिसक रही है, उसके गोरे अंगों पर गंदे घाव हैं।
तांत्रिक–वह उसकी आत्मा है।
आगंतुक–यह सब झूठ है।
पहला व्यक्ति–फौलाद की भट्ठियाँ एक बच्चे को निगल रही हैं। प्रजाएँ एक दूसरे का गला घोट रही हैं, मैदानों पर खून के धब्बे हैं। एक औरत इसकी बाँहों से छूट कर काली चट्टानों पर भाग रही है। यह उसका पीछा करता है, वह भागती है। नीली झील खून की तरह लाल हो गई है। वह चीख कर उसमें कूद गई है, लहरें उसे निगल रही हैं। वह अथाह रक्त में डूब रही है, डूबती ही जाती है!
तांत्रिक–वह इसकी आत्मा है।
आगंतुक–(घुटनों में सर छिपा लेता है) सच है, (बहुत मायूस स्वर में) बिल्कुल सच है।
पहला व्यक्ति–इसने हत्या की है (सर उठा कर रक्तमय नेत्रों से) आत्मा की, इसने हत्या की है।
[दूसरा व्यक्ति लौटता है]
दूसरा व्यक्ति–(हवा में किसी का गला घोंटता हुआ) इसे नीली झील में फेंक देना चाहिए। तुमने कभी किसी का गला घोंटा है।
पहला व्यक्ति–नहीं, गला घोंटने में भी कोई आनंद होगा तभी तो इसने…[दौड़ कर आगंतुक का गला पकड़ता है]
तांत्रिक–दूर रहो, तुम पर इसकी छाया पड़ गई।
दूसरा व्यक्ति–मैं इसका सोना लूँगा (सोना लेता है)
पहला व्यक्ति–(गला छोड़कर दूसरे व्यक्ति का हाथ पकड़ता है) सोना मैं लूँगा, तुम मोती लो।
दूसरा व्यक्ति–सोने पर मेरा हक है।
तांत्रिक–(आगे बढ़ कर) खूँख़ार भेड़ियों! पीछे हटो! नीली झील में तुम्हारी परछाँई हिल रही है। मैं कहता हूँ, वापस जाओ। वरना मैं आदेश दूँगा और पेड़ की डालें अजगर की तरह तुम्हें मरोड़ देंगी।
[वह आगे-आगे बढ़ता है। दोनों व्यक्ति मंत्रमुग्ध-से पीछे हटते हैं। हटते-हटते पहाड़ों के पीछे चले जाते हैं। आगंतुक उठता है, झील में देखता है और फिर भयभीत होकर मुँह ढँक लेता है। तांत्रिक आकर उसके कंधे पर हाथ रखता है।]
आगंतुक–मुझे छुओ मत। मुझे हत्या लगी है। मैंने हत्या की है। उन्हें बुलाओ। वे मुझे चट्टानों से कुचल दें…
तांत्रिक–नहीं मेरे बच्चे, तुम मरोगे नहीं।
आगंतुक–ये चट्टानें मुझसे बदला लेंगी। यह झील मुझसे बदला लेगी। मैं आत्माहीन हूँ!
तांत्रिक–यह झील तुम्हें क्षमा कर देगी। मैं बूढ़ा हूँ। मैं स्वत्वहीन हूँ, निरर्थक हूँ। तुम्हारे पाप मैं अपनी आत्मा पर ले लूँगा। मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगा। (घुटने टेक कर प्रार्थना करता है) ओ अनंत करुणामयी झील, इसे क्षमा करो। ओ विराट पहाड़ो, इसने अपनी आत्मा की हत्या कर डाली है। इसके लिए इससे बड़ी सजा और क्या हो सकती है कि यह अपनी आत्मा से वंचित हो गया है। इसे क्षमा कर दो। इसे जीवनदान दो। इसे नई आत्मा दो।
आगंतुक–(संदेहशील और आश्वस्त मिश्रित भाव से) नई आत्मा?
तांत्रिक–क्यों नहीं? तुम मरोगे नहीं। नई आत्मा ढूँढ़ने के लिए जीवित रहोगे।
आगंतुक–मैं?
तांत्रिक–हाँ तुम! नई आत्मा ढूँढ़ने के लिए वापस जाओ उसी देश में जहाँ युद्ध हो रहे हैं, जहाँ प्रजाएँ अपना रक्तपात कर रही हैं। जहाँ फौलाद की भट्ठियाँ धधक रही हैं। जाओ, उस संघर्ष का अर्थ समझो। अँधेरे से विद्रोह करो, प्रकाश पर आस्था रखो, तुम्हें नई आत्मा मिलेगी।
आगंतुक–सच।
तांत्रिक–जाओ! आगे बढ़ो! (स्टेज की सीढ़ियों की ओर संकेत करते हुए) उतरो, जिंदगी में उतरो (आगंतुक दोनों बाँहें फैलाए हुए आँख खोले हुए अंधों जैसा टटोलता हुआ आगे बढ़ता है) तुम अंधकार में हो। तुम प्रकाश की ओर बढ़ रहे हो (दर्शकों तक पहुँच जाता है) डरो मत, घबराओ मत। आस्था से विचलित मत हो। लोगों में ढूँढ़ो, जनता को छूओ, जिंदगी में उतरो। तुम्हें नई आत्मा मिलेगी। साहस मत खोओ। तुम लौट कर आओगे तो झील पर तुम्हारी परछाँई पूनम के चाँद की तरह तैरेगी। चट्टानें बाँहें फैलाकर तुम्हारा स्वागत करेंगी। (दर्शकों की ओर देखकर) वह तुम्हारे बीच में डोल रहा है। वह आत्महीन छाया तुम्हें छू रही है, लेकिन घबराओ मत! वह अपनी आत्मा ढूँढ़ रहा है। उसे सहारा दो। उसकी मदद करो (धीरे-धीरे पीछे का पर्दा गिरता है। आगंतुक धीरे-धीरे स्टेज पर लौट आता है) मैं तो बूढ़ा हूँ मैं नहीं रहूँगा। ये पहाड़ टूट गिरेंगे। वह झील सूख जाएगी। यह पेड़ उजड़ जाएँगे। यह झूठ था–नीली झील, यह घाटी, इसके लोग–यह सब मेरी कल्पना थी, मेरा इंद्रजाल था। असल था, सत्य था केवल वह जो दोनों बाँहें फैलाए अपनी आत्मा ढूँढ़ रहा है। वह हमारे और तुम्हारे माध्यम से आवेगा। भविष्य की दुनिया उसकी होगी। तब न मैं रहूँगा, न मेरा इंद्रजाल। न तुम, न तुम्हारी कला। रहेगा सिर्फ वह जो आज अपनी नई आत्मा ढूँढ़ रहा है…वह तुम्हारे व्यक्तित्व को छूएगा, तुम्हारी आत्मा में उतरेगा। क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व और तुम्हारी आत्मा में उस आत्माहीन को नई आत्मा मिलेगी और वही सत्य होगी। मेरी ओर मत देखो। यह नीली झील और उसका तांत्रिक मैं, केवल इंद्रजाल थे। यह झूठा खेल था जो अब खत्म होता है।
[एक ओर तांत्रिक और दूसरी ओर आगंतुक जाता है। सामने का पर्दा भी गिर जाता है]
निर्देश
इस रूपक का वातावरण सर्वथा ऐंद्रजालिक होते हुए भी इसकी समस्या आज की यथार्थ समस्या है। वह समस्या आज मानवीय संस्कृति की प्रगति के सामने एक प्रश्नचिह्न बन कर खड़ी हो गई है।
हमारे संपूर्ण सामाजिक जीवन, सृष्टि के आदि से लेकर आज तक तमाम बनने और बिगड़ने वाली सभी समाज-व्यवस्थाओं की सार्थकता इसी में है कि मानव की प्रगति अवरुद्ध न हो, बुद्धि और मानव, विज्ञान और कला, चिंतना और अनुभूति के सभी मानवीय मूल्यों का पूर्णतम विकास हो सके। मानवीय चेतना नए से नए क्षितिज जीतती रहे।
किंतु हमारी आज की व्यवस्था ने उसकी सारी गति अवरुद्ध कर दी है। पूँजीवादी-व्यवस्था में आर्थिक विषमता है, कम्युनिस्ट-व्यवस्था में उग्र मानसिक तानाशाही। कहीं आर्थिक सुविधाएँ छीनकर, कहीं आर्थिक सुविधाएँ देकर उसे खोखला, विचारहीन और बेज़बान पशु बनाया जा रहा है। पूँजी के प्रजातंत्र हों, या ‘जनता’ के प्रजातंत्र–‘तंत्र’ मुख्य बन गया है–प्रजाएँ उसकी अनुवर्तिनी मूक भेड़-बकरियाँ। उनकी आत्मा छीन ली गई है।
आत्मा से मेरा तात्पर्य दर्शन शास्त्र की किसी रहस्यमयी सत्ता से नहीं–मेरा तात्पर्य है चरम विकसित, सूक्ष्म मानवीय चेतना, जो बाह्य प्रगति के साथ-साथ विकसित होती चलती है, किंतु बाद में इतनी सशक्त हो जाती है कि अवरुद्ध प्रगतियों की मुक्ति के लिए विद्रोह कर उठती है। मार्क्सवादी परंपरा में भी स्टालिन ने इसी अर्थ में ‘आत्मा’ का प्रयोग किया है जहाँ उसने कलाकारों को संबोधित करते हुए कहा था–“कलाकार मानव-आत्मा का निर्माता होता है ।”
मेरा विश्वास है कि कलाकार को उस आत्मा के निर्माण के लिए पूँजीवादी शिकंजे के खिलाफ विद्रोह करना पड़ेगा, किंतु साथ ही राजनीतिक पार्टियों और राज-सत्ताओं के दिन-प्रतिदिन बदलते रहने वाले आदेशों के सामने भी सर नहीं झुकाना होगा। कलाकार को अपने अंतरतम की ईमानदारी के साथ जनजीवन में उतरना होगा। उसके संघर्षों और अभावों, उसकी पीड़ा और उसके सपनों को आत्मसात करना होगा, तभी वह युद्ध-क्षेत्रों में उमड़ते हुए खून के महासागरों, और जलती हुई सोने की लंका के कड़ुवे जहरीले धुएँ के पार देख सकेगा, उसकी आत्मा और जनता की आत्मा, उसकी आस्था और जनजीवन की आस्था, उसके सपनों और इतिहास के सपनों में तारतम्य स्थापित हो सकेगा। उसे जगज्जीवन में अपनी खोई हुई आत्मा ढूँढ़नी है।
टेकनीक की दृष्टि से दो बातों की ओर संकेत करना आवश्यक है। एक तो इसमें जापानी नोअ नाट्यों की भाँति अधिकांश पात्र रंगमंच पर आकर स्वयम् अपना परिचय देते हैं, दूसरे–गोष्ठी नाटकों की भाँति अंत में एक पात्र एक बार स्टेज उतर कर दर्शकों के बीच में घूम आता है (जिससे आप कलाकार के जनजीवन में उतरने का संकेत भी ग्रहण कर सकते हैं)।
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma