हिंदी के कहानी-साहित्य के इतिहास के साथ एक मजाक

हिंदी के कहानी-साहित्य के इतिहास के साथ एक मजाक

आज कहानी-लेखन के साथ-साथ, कहानी-संबंधी चर्चा-परिचर्चा का जो सिलसिला बँध गया है, उससे अपने को एकदम तटस्थ रख पाना किसी भी जागरूक कहानीकार के लिए न तो संभव है, न शुभ ही। चर्चा-परिचर्चा अब हिंदी-कथा-साहित्य के लिए (गलत-सही दोनों प्रकार के) मूल्य-निर्धारण, स्थापना और फ़तवेबाजी के सबल माध्यम के रूप में विकसित हो रही है। कहानी-साहित्य की विधिवत् ठोस समीक्षा करनेवाले समीक्षकों के अभाव में, यह माध्यम और तेजी से पनप रहा है, क्योंकि चर्चा-परिचर्चा में समीक्षक-लेखक-पाठक तीनों भाग ले सकते हैं।…और यह तथ्य है, कि आज कहानी-साहित्य के प्रति लगाव जितना खुद कहानीकारों और पाठकों में दिखाई देता है, उतना समीक्षकों में नहीं। जो गिने-चुने समीक्षक कहानी-साहित्य की वर्तमान परंपरा और कहानीकारों की वर्तमान पीढ़ी के साथ सक्रिय संबंध रख रहे हैं, उनमें से अधिकांश कुछ इतनी परस्पर-विरोधी स्थापनायें, मान्यतायें और कसौटियाँ रखते हैं–और यदा-कदा ऐसी अनर्गल और संकीर्ण दृष्टिकोण से ग्रस्त और भ्रामक घोषणायें करते हैं कि कहानीकारों के लिए अपने को तटस्थ रखने का अर्थ यह हो जाता है, कि अपने और अपनी कहानियों के प्रति भ्रांतियाँ और गलत रवैया बने रहने दें। अस्तु, कहानीकारों के लिए, कहानी-लेखन के साथ-साथ, कहानी-संबंधी चर्चा-परिचर्चा के प्रति जागरूक रहना एक आवश्यकता बन गया है, क्योंकि कहानियों के समानांतर तत्संबंधी चर्चा-परिचर्चा की प्रतिक्रिया भी कहानियों के संपर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति पर होती है–कहानीकार पर भी, और समीक्षक-पाठक पर भी।

इधर ‘नयी कहानी’ और ‘नये कहानीकार’ को लेकर निरंतर कई घोषणायें और स्थापनायें लिपिबद्ध हो रही हैं। मैं यहाँ ‘नयी कहानी’ या ‘नये कहानीकार’-संबंधी विवाद में अधिक न उलझकर, हिंदी के कहानी-साहित्य के इतिहास के साथ किए जा रहे एक-दो घातक ‘मजाकों’ का उल्लेख करना चाहता हूँ। ‘वासंती’ द्वारा आयोजित-प्रकाशित (नवंबर 1962) कहानी-संबंधी परिसंवाद में नामवर जी जैसे प्रबुद्ध समीक्षक और अश्क जी जैसे प्रौढ़ कहानीकार ने जो एकदम तथ्यहीन बातें कही थीं, उन्हीं की प्रतिक्रिया-स्वरूप मुझे यह सब-कुछ लिखने को बाध्य होना पड़ा।

इस परिसंवाद में एक नयी बात तो यह सामने आई कि जहाँ ‘नयी कहानी’-आंदोलन के घोषित सूत्रधार और मसीहा नामवर जी ‘नयी कहानी’ के कायम मोर्चे के प्रति कुछ तटस्थ और उदासीन-से दिखे, वहीं अश्क जी इस बार एक नयी घोषणा और कुछेक एकदम नये कहानीकारों की पक्षधरता–और रेणु जी को छोड़, सभी आंचलिक कहानीकारों को अश्क-यशपाल द्वारा पूर्व-प्रतिष्ठापित ‘आदर्शों’ को ही पीटनेवाले निकृष्ट कहानीकार करार देने की अहम्मन्यता का झंडा उठाए हुए मैदान में डटे मिले। लेकिन नामवर जी और अश्क जी, दोनों ने ही इस परिसंवाद में जैसी तथ्यहीन, परस्पर-विरोधी और भ्रांतिपूर्ण बातें कही हैं, उनसे तो यही लगता है कि इन दोनों को ही परिसंवाद के आयोजकों ने राह-चलते में पकड़कर, कहानी-साहित्य पर ‘बोलने’ को बिठा दिया। लगता है, कहानी-साहित्य पर संतुलन और विवेक के साथ कुछ कहने की अपेक्षा, कहानी-साहित्य और कहानीकारों के साथ सतही (मगर खतरनाक) मजाक करने के ‘मूड’ में ज्यादा थे दोनों।

नामवर जी कहते हैं, कि उन्होंने तो सात वर्ष पहले यह जिज्ञासामात्र व्यक्त की थी, कि नयी कविता की तरह ‘नयी कहानी’ जैसी कोई चीज है, या नहीं।…और यह भी, कि उन्होंने तो कहानी के क्षेत्र में आनेवाली नयी प्रवृत्तियों को समझने की कोशिश की थी–नयी प्रवृत्तियों वाली कहानियों को ‘आज की कहानी’ कहा था–मगर उनके अनुवर्तियों ने ‘नयी कहानी’ संज्ञा को ही स्थापित कर दिया!

इस प्रकार ‘नयी कहानी’-आंदोलन को चलाने के ‘गुनाह’ से अपने को मुक्त घोषित करते हुए–यानी यह ‘गुनाह’ अपने अनुवर्तियों के सिर पर थोपते हुए–नामवर जी कहते हैं, कि–आज स्वयं कुछ कहानीकार ही ‘नयी कहानी’ नाम के विरोधी हो गए हैं। अब वे अपने को परंपरा से जोड़ने को लालायित हैं और नयेपन से ज्यादा परंपरा का राग अलाप रहे हैं। यह भी इतिहास का एक मजाक है। (नामवर जी ने हिंदी में ‘नया गद्य’ आ चुकने की सूचना भी दी है!…अस्तु, यदि नामवर जी को ‘गुनहगार’ नहीं बनाना चाहें, तो उनके अनुवर्तियों को चाहिए कि ‘नव्य गद्य’-आंदोलन का ‘गुनाह’ सीधे अपने ऊपर लें।…और भविष्य में, ‘नया नाटक’, ‘नया उपन्यास’, ‘नया इतिहास’, ‘नया भूगोल’, ‘नया विज्ञान’ और ‘नयी आलोचना’ आदि आंदोलनों के ‘गुनाह’ भी खुद ही करने को प्रस्तुत रहें!)

तो, नामवर जी ने शोक व्यक्त किया है, कि ‘यह भी अर्थात् नयेपन को ठुकरा कर, परंपरा से जुड़े रहने की मूर्खता–इतिहास का एक मजाक है।’ लेकिन यह भी एकदम ताजा इतिहास का कितना बड़ा मजाक है, कि नामवर जी जैसा प्रबुद्ध समालोचक और प्रतिभाशोधी मसीहा हिंदी कहानीकारों की समूची वर्तमान पीढ़ी में से कुल मिलाकर दस-बारह प्रतिभाशाली कहानीकार भी नहीं खोज पाया?…और, इसी लाचारी के कारण, सन् ’55 से अबतक हरेक लेख, हरेक वक्तव्य में सिर्फ अपने द्वारा घोषित सात-आठ प्रतिभाओं की ‘नामावली’ ही गिनाता रहा, गिनाता चला जा रहा है? (जैसे चारण अपने ही राजा और उसके परिवार की ‘वंशावली’ और ‘विरुदावली’ सुनाना अपना धर्म समझता है।)

जहाँ तक 1950 से अब तक के हिंदी-कहानी-साहित्य की समग्र उपलब्धियों का प्रश्न है, इनका मूल्यांकन करने में नामवर जी खुद सर्वाधिक परंपरापोषी, रूढ़ और संकीर्ण दृष्टिकोणवाले समीक्षक हैं। सन् 1950 से लेकर अब तक की अवधि में, उन्होंने अपनी ‘दृष्टि’ के आकाश में जो ‘सप्तर्षि-मंडल’ स्थापित कर लिया, इसके अलावा, उनको हिंदी-कहानी-साहित्य का पूरा आकाश नक्षत्र-शून्य ही दृष्टिगोचर होता है।

यदि यह वास्तविकता है, यदि नामवर जी की सूची ही सत्य है, तो यह हिंदी के कथा-साहित्य की हास्यास्पद और दयनीय स्थिति का सबूत है।…क्योंकि जो हिंदी 44 करोड़ जन की राष्ट्रभाषा होने का गौरव भोगना चाहती है, उसकी पूरी वर्तमान पीढ़ी में चौवालीस छोड़, चौदह (यहाँ तक, कि ‘नये-पुराने’ मिलाकर भी) प्रतिभाशाली कहानीकार न होना, हिंदी के साहित्यिक-दारिद्रय का ही सूचक मान जाएगा।…और यदि स्थिति इसके विपरीत है (और वस्तुत: है)–और नामवर जी के द्वारा वर्गीकृत ‘नामावली’ तथा उनके द्वारा आरोपित स्थिति मात्र उनकी निजी दृष्टिगत संकीर्णता, दायित्त्व-च्युत समीक्षा-पद्धति की अहम्मन्यता और गुटपरस्ती से आक्रांत अंधदृष्टि है–तो, निस्संदेह, नामवर जी पूरे हिंदी-कहानी-साहित्य और हिंदी के कहानीकारों के साथ, हिंदी-कहानी साहित्य के इतिहास के साथ बहुत बड़ा मजाक कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त, अपनी पूर्व-परंपराओं को तोड़ने-फोड़ने और अपरंपराशील (अज्ञात कुल-शील?) होने की दर्पोक्ति से प्रफुल्ल होने में ही नये कहानीकारों के ‘व्यक्तित्व’ की सार्थकता है–ऐसी मान्यता के द्वारा नामवर जी तथाकथित नये कहानीकारों के साथ भी एक घातक मजाक कर रहे हैं। किसी भी पीढ़ी की प्रतिभाओं के कृतित्व की सार्थकता अपनी पूर्व-परंपराओं को तोड़ने-फोड़ने में या अपरंपराशील होने की दंभोक्ति का उद्घोष करने में नहीं, प्रत्युत् पूर्व-परंपराओं के साथ नयी स्वस्थ-सशक्त परंपरायें जोड़ने में है।

जहाँ तक ‘नयी कहानी’ के संदर्भ में, ‘नयेपन’ का प्रश्न है, नयापन कोई ‘अजूबा’ नहीं, जिसे तथाकथित ‘नयी कहानी’ के कठघरे में पहली-पहली बार, नामवर जी और उनके अनुवर्तियों के द्वारा, अन्य कहानीकारों, समीक्षकों और पाठकों के लिए प्रदर्शनार्थ रखा जा रहा हो, कि यह है ‘नयापन’!…और न ‘नयेपन’ ने ही यह संकल्प कर रखा है कि वह नामवर जी द्वारा घोषित नये कहानीकारों के अलावा, अन्य किसी कहानीकार की रचनाओं में अभिव्यक्त होने को प्रस्तुत ही नहीं है। ‘नयेपन’ और नये युग-बोध का जहाँ तक सवाल है, जिस वर्तमान में कहानीकार जी रहा है, उस युग के क्रमिक-विकास, प्रगतिशील व्यक्तित्व और परिवर्तनशील यथार्थ की सही-सही पकड़ और अभिव्यक्ति ही ‘नयेपन’ और नये युग-बोध की परिचायक है।…और यह ‘नयापन’, यह नया युग-बोध किसी युग के कहानीकारों (साहित्यकारों) में उसी अनुपात में आता है, जिस अनुपात से कोई युग अपने पूर्व-युग से आगे बढ़ता है। …और आगे बढ़ने की संभावनायें प्रस्तुत करता है। अस्तु, ‘नयापन’ और नया युग-बोध किन्हीं व्यक्ति-विशेषों की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होती। इतना ही नहीं, सिर्फ साहित्यकारों की ही व्यक्तिगत संपत्ति यह नहीं और न व्यक्तिगत-उपलब्धि ही है। ‘नयापन’ और नया युग-बोध बहुधा साहित्यकारों से भी पहले उस युग के समग्र व्यक्तित्व में और उस युग की प्रगतिशीलता के प्रतीक मानव-प्रयत्नों में आता है। अस्तु, ‘नयेपन’ और नये युग-बोध की स्वघोषित ‘नामावली’ तक ही सीमित मानना नामवर जी की मानसिक-संकीर्णता ही है, वस्तुस्थिति नहीं।

इस अर्थ में तो ‘नयापन’ और नयायुग-बोध सर्वथा स्वाभाविक, स्पृहणीय और ग्राह्य है ही, कि हमसे पिछली पीढ़ियाँ जो कुछ कह-लिख या कर गईं, हम उसी तक सीमित न रह कर–या उसी सब-कुछ की पुनरावृत्ति और पिष्टपेषण न कर–अपने युग को अभिव्यक्ति देने वाला कुछ नया कहें, लिखें और नये कार्य करें।…मगर नामवर जी जिस ढंग से ‘नयेपन’ की, और जैसे ‘नयेपन’ की, पैरवी करते हैं, वह बहुत ही भ्रामक होता है। नये युग की चर्चा-मात्र से नये युग-बोध का जहाँ तक प्रश्न है, कृशनचंदर की कृति ‘गधे की आत्मकथा’ अनागत-युग-बोध की ‘अति नयी’ कृति है।

लेकिन, उक्त परिसंवाद में, नामवर जी से भी अधिक तथ्यहीन और अनर्गल वक्तव्य अश्क जी ने दिया। ‘नयी कहानी’ की पैरवी करने का अश्क जी का अपना अलग ढंग है। कहते हैं–‘मलयज, श्री राम वर्मा, विजय चौहान आदि कुछ ऐसे हैं, जो बिल्कुल ‘नयी चीजें’ लिखते हैं। यह कहानी हो सकती हैं, नहीं भी।’ अश्क जी, संभवत:, भूल जाते हैं, कि जब वे खुद इन नये कहानीकारों की बिल्कुल ‘नयी चीजों’ को कहानी क्या, ‘नयी कहानी’ के रूप में भी संदेहास्पद मानते हैं, तब उन्हें इन ‘नयी चीजों’ की चर्चा कहानी-संबंधी परिसंवाद में नहीं करनी चाहिए, बल्कि अलग से एक ‘नयी चीजें–परिसंवाद’ आयोजित करना चाहिए!

इससे भी अधिक मौलिक-स्थापना तो अश्क जी यह देते हैं, कि सिर्फ रेणु की कहानियों को छोड़कर, शेष सारी आंचलिक कहानियाँ घोर अवास्तविक, पुरातनपंथी और ‘अश्क जी–द्वारा पूर्व-प्रतिष्ठित आदर्शों की पिटाई’ की प्रतिक्रिया-मूलक रचनायें-मात्र हैं! रेणु जी की पैरवी करते हुए, अश्क जी कहते हैं–‘उनकी रसप्रिया’, ‘मारे गए गुलफ़ाम’ आदि में ‘बेहद नवीनता’ है। उनमें दोष है, ‘रिपीटीशन’ है, लेकिन पूरी-की-पूरी कहानी, क्या बात है, बहुत अच्छी और ‘बिल्कुल नयी कहानियाँ’ हैं। यह लेखक ‘आंचलिक-शब्दों के प्रयोग में कमाल का काम’ करता है।…(अश्क जी की इस ‘घोषणा’ पर नामवर जी को कोई आपत्ति नहीं है; यह एक और ‘नयी बात’ है।)

जहाँ तक मेरे अपने विश्वास की बात है, मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ, कि जितने बड़े ‘कमाल का काम’ रेणु जी आंचलिक शब्दों के प्रयोग में करते हैं, उससे कहीं अनेक गुना ‘बड़ा कमाल का काम’ अश्क जी कहानी-समीक्षा के सिलसिले में करते हैं। एक ओर अश्क जी रेणु को ‘बेहद और बिल्कुल नया’ कहानीकार घोषित करते हैं, दूसरी ओर, मोहन राकेश को अपना अनुवर्त्ती कहानीकार1 बताते हुए और राजेंद्र यादव का नाम लेते हुए यह कहते हैं, कि–इन दोनों ने बहुत पुरानी कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन साथ-ही-साथ ‘नयी लिखने की कोशिश’ तो कर ही रहे हैं। हो सकता है, कि ये आगे जाकर ज्यादा सफल हो जाएँ।

क्या अश्क जी यह भी बताने की कृपा करेंगे, कि ‘नयी कहानियाँ लिखने की कोशिशों’ में लगे हुए राकेश और यादव, ‘नयेपन’ की दृष्टि से, ‘बेहद और बिल्कुल नये’ कहानीकार रेणु जी के ‘नये स्तर’ तक कितनी अवधि में पहुँचने में सफल होंगे?–यही नहीं, अश्क जी मलयज, श्री राम वर्मा और विजय चौहान के बारे में घोषित करते हैं, कि ये नये कहानीकार बिल्कुल नयी कहानियाँ लिख चुके हैं!…कहानी में नयेपन, नये युग-बोध के अपनाव और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उक्त तीनों नये कहानीकारों ओर बेहद तथा बिल्कुल नए कहानीकार रेणु जी से मोहन राकेश और राजेंद्र यादव का यह पिछड़ाव द्रष्टव्य है!

लेकिन ‘नयेपन’ की पैरवी करते हुए, अश्क जी ने जो सबसे ज्यादा अनर्गल और तथ्यहीन बात कही है, वह ‘आदर्शवाद’ के बारे में है। अश्क जी कहते हैं–“मैं आदर्शवाद का विरोध करता हूँ, क्योंकि वह जीवन से दूर रहता है।” इतना ही नहीं, अश्क जी ने यह भी कहा है–“सारी-की-सारी आंचलिक कहानियाँ विशुद्ध आदर्शवादी कहानियाँ हैं। जो आदर्शवाद मैं या यशपाल एक लंबे अर्से से छोड़ चुके हैं, उसे ये (रेणु, शिव प्रसाद सिंह, मार्कंडेय और शैलेश मटियानी आदि आंचलिक कहानीकार) पीटे जा रहे हैं।”…और भी, कि–कोई आदमी बलिदान करता हुआ, रिश्वत छोड़ता हुआ पहले नजर तो आए, तो मैं आदर्शवादी कहानियाँ लिखूँ। जब सारा-का-सारा समाज भ्रष्टाचार से पीड़ित है, तो फिर ये कहानियाँ किसके लिए लिखी जाएँ। मैं तो बिल्कुल इसके विरुद्ध हूँ। मेरी कहानियों में यह बात नहीं मिलेगी। ‘क्रिटिकल रियलिज्म’ मिलेगा।…

मुझे अश्क जी से कहना यह है, कि उनकी यह उक्ति मिथ्या ही नहीं, उनकी अहम्मन्यता का बचकानापन भी है, कि ‘आदर्शवाद’ (साहित्यिक-आदर्शों) के एकमात्र स्रष्टा और समापनकर्त्ता खुद अश्क जी (या यशपाल जी) ही हैं और आज के सारे आंचलिक कहानीकार उनके द्वारा ‘रजिस्टर्ड’ आदर्शों को ही पीटे जा रहे हैं।…अश्क जी की स्वमुखदंभोक्ति से और भी अधिक क्लेश होता है, जब मैं यह सोचता हूँ, कि आदर्शोंमुख-साहित्य के सबसे अधिक पक्षधर और सर्वश्रेष्ठ हिंदी-साहित्यकार स्व. प्रेमचंद जी ने भी यह कभी नहीं कहा, कि ‘आदर्शों का एकमात्र अधिष्ठाता मैं हूँ और मेरे साहित्य में ही सारे आदर्श आ चुके हैं।’

अश्क जी जैसे प्रौढ़ कहानीकार के मुँह से ऐसा दंभपूर्ण और तथ्यहीन वक्तव्य–यह प्रत्येक कहानीकार ही नहीं, प्रत्येक समीक्षक और पाठक के लिए भी एक दुखद आश्चर्य ही है। ‘आदर्श’ शब्द के शाब्दिक और लाक्षणिक दोनों अर्थों को अश्क जी ने बिल्कुल गलत रूप में लिया है। ‘आदर्श’ शब्द का अर्थ ‘असंभाव्य’, ‘अवास्तविक’ और ‘जीवन से दूर रहनेवाला एक कर्म’ किसी शब्द-कोष में नहीं मिलेगा। यह ‘नया अर्थ’ (याकि अनर्थ?) अश्क जी की अपनी मौलिक देन है।…जहाँ तक ‘आदर्श के जीवन’ से दूर रहने का प्रश्न है, अश्क जी यह भूल जाते हैं, कि ‘आदर्श’ जीवित व्यक्तियों-द्वारा ही स्थापित किए और अपनाए जाते हैं, मुर्दों के द्वारा नहीं। ‘आदर्शवाद’ सिर्फ बनी-बनाई लीकों पर ताँगे के घोड़े की तरह चले चलना या आँख मूँदकर बलिदान कर देना नहीं है। आदर्श एक व्यापक अर्थवत्ता से संपृक्त शब्द है, और उसके एक नहीं अनेक पहलू और स्तर हैं। युग, परिस्थिति और व्यक्ति की विवेकशीलता, क्रांतिदर्शिता और नैतिक-सैद्धांतिक निष्ठाओं के अनुसार ‘आदर्श’ अलग-अलग निष्कर्षों और रूपाकारों में सामने आते हैं।

वस्तुत: अश्क जी ‘आदर्श’ को बहुत ही गलत अर्थ में ग्रहण कर रहे हैं। उनकी यह धारणा तो और भी दंभपूर्ण और हास्यास्पद है, कि सारे साहित्यिक-आदर्शों को तो वे और यशपाल जी अपने साहित्य में पहले ही प्रयुक्त कर चुके हैं और अब सारे आंचलिक कहानीकार उन्हीं को पीटे जा रहे हैं।–नामवर जी की ‘नामावली’ की तरह, आदर्शों की संख्या भी सीमित-निश्चित नहीं है। प्रत्येक युग में निरंतर नये-नये आदर्श लोगों के जीवन में आते हैं, अपनाये जाते हैं और प्रत्येक युग के साहित्यकार इन आदर्शों को अभिव्यक्त, लिपिबद्ध करते हैं। अश्क और यशपाल जी के साहित्य में प्रयुक्त आदर्शों की तो बात ही क्या, आदर्श सिर्फ इतने भी नहीं हैं, कि जितने आज तक विश्व-भर के साहित्यकारों-द्वारा अभिव्यक्त हुए हैं और हो रहे हैं। …क्योंकि बहुधा आदर्शों की सृष्टि साहित्यकार-द्वारा पहले नहीं होती, बल्कि अलग-अलग व्यक्ति किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों-मन:स्थितियों में अपने जीवन में अलग-अलग आदर्श अपनाते हैं, इसलिए आदर्शों को संख्या-बद्ध करना संभव नहीं है। आदर्श वह है, जो एक सही और कल्याणकारी मोड़ देता है, दिशा देता है। नये युग, नये व्यक्तियों और नयी परिस्थितियों के साथ-साथ नये-नये आदर्श भी अस्तित्व में आते ही रहेंगे।

अश्क जी ने आदर्श का अंध-विरोध करते हुए, पूरे समाज के प्रति, प्रत्येक मनुष्य के प्रति जो अनास्था प्रकट की है, वह उनकी सबसे घातक मनोवृत्ति की परिचायक है। क्योंकि (अपने अतिरिक्त) पूरे मनुष्य-समाज में से प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्टाचारी, घूसखोर और स्वार्थांध पाना, एक साहित्यकार की मानवता पर, मनुष्य की अच्छाइयों पर घोर अनास्था का सूचक है। समाज में भ्रष्टाचार है, रिश्वतखोरी है, मगर यह नहीं, कि एक भी आदमी भ्रष्टाचार, स्वार्थांधता और रिश्वतखोरी से मुक्त नहीं है। यह घोर अनास्था तो अश्क जी की अपनी अंध दृष्टि की सृष्टि है। आश्चर्य है, कि हाल ही में राष्ट्र की सुरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए लाखों लोगों-द्वारा त्याग, बलिदान और ईमानदारी की प्रत्यक्ष घटनाओं का इतिहास सामने आने पर भी अश्क जी मनुष्य-मात्र के प्रति ऐसी घोर अनास्था से ग्रस्त हैं।

निरी वैयक्तिक कुंठाओं, नैतिक हीनताओं और समस्याओं की सूक्ष्म अभिव्यंजनाओं को ‘नयी कहानी’ के ‘गुणों’ की संज्ञा दी ही जा रही थी, कि अश्क जी ने ‘आदर्श-च्युत’ होने की अनिवार्य शर्त भी घोषित ही नहीं की है, बल्कि खुद सारे आदर्शों को ठुकराने-नकारने को एकदम प्रस्तुत हैं।

वस्तुत:, हिंदी कहानी-साहित्य के इतिहास के साथ मजाक–बहुत ही घातक और अनर्थपूर्ण मजाक–ऐसे ही दायित्व-च्युत समीक्षक कर रहे हैं, जो कहानियाँ पढ़ने की अपेक्षा फ़तवेबाजी और घोषणाओं तथा ‘नामावली’ के ‘व्यक्तिगत-रजिस्ट्रेशन’ में ही समीक्षा की सार्थकता समझते हैं।*


संदर्भ

1. ‘मोहन राकेश बहुत-कुछ मेरे ढर्रे पर लिखते हैं।’ –अश्क : उक्त परिसंवाद।

* प्रस्तुत निबंध में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। संबद्ध या अन्य सज्जन यदि इनके उत्तर में कुछ लिख भेजेंगे तो आपत्तिजनक नहीं होने पर उन्हें भी प्रकाशित करने में हमें आपत्ति न होगी।

–संपादक


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