‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्’
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्’
पुरातन के प्रति हमारे अंधविश्वास ने भारतीय संस्कृति और कला की हानि ही की है और लेखक के शब्दों में प्रतिभा को एक लंबे अर्से तक निरर्थक-सा कर दिया है। गुप्त युग की प्रवृत्तियों की अनूठी और साहसिक आलोचना विद्वान लेखक की इस रचना में देखिए।
प्राचीनता की पूजा और नवीनता को शक की नजर से देखना–यह भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता रही है। अगर हम वैदिक युग से लेकर आज तक के इतिहास पर नजर दौड़ाएँ तो हमको पता चलेगा कि किस तरह हम समय की प्रगति की ओर से आँखें बंद करके मरे हुए और जड़ सिद्धांतों से बराबर चिपके रहे और किस तरह स्वार्थियों ने भारतीय धर्म और समाजिक सिद्धांतों को देवताओं और ऋषियों का आदेश बताकर और उन्हें बाहरी आडंबरों का रूप देकर हमें आगे बढ़ने या कुछ सोचने से रोका। भारतीय संस्कृति के कुछ उन्नायकों ने समय समय पर हमें खबरदार करने की कोशिश की पर रूढ़िवाद के पूजकों की आँखें वे न खोल सके। महर्षि व्यास ने ‘न हि मानुषाच्छे ष्टतरंहि किञ्चित्’ के महामंत्र से तथा बहुत दिनों बाद चंडीदास ने ‘सबार ऊपर मानुषधर्म ताहार ऊपर नाई’ के उपदेश से हमें यह बतलाया कि मनुष्य की अपनी महानता की पूजा करो, देवताओं के चक्कर में मत पड़ो। पर मनुष्य को ही सबसे नीचा देखना पौराणिक संस्कृति की खास बात बन गई। जब हम अस्पृश्यता का कट्टर समर्थन स्मृतियों में देखते हैं और चारों वर्णों में भी ब्राह्मणों की श्रेष्टता का प्रतिपादन देखते हैं और तो हमें इस बात का पता चलता है कि किस तरह एक वर्ग विशेष ने इस देश के वासियों के मनोविकारों से वाकिफ होकर अपने फायदे के लिए उन्हें गुमराह किया। बौद्ध धर्म ने मनुष्यता की दोहाई देकर वर्गों को तोड़ने की कोशिश की और शायद कुछ सदियों तक उसको सफलता भी मिली। अशोक ने अपने अभिलेखों में एक ऐसे ही समाज की कल्पना की है जिसमें अंधविश्वासों को छोड़कर चरित्र पर काफी जोर दिया गया है। महायान धर्म ने भी सब जीवों की सेवा का उपदेश दिया। पर रूढ़ियों को पूजने वाली हमारी प्रकृति ने हमें आगे बढ़ने नहीं दिया। आज बीसवीं सदी है, दुनिया कहाँ से कहाँ चली जा रही है। महात्मा गाँधी के पुण्य बल से हम भी स्वतंत्र हैं पर पुरातन के प्रति हमारी अंधश्रद्धा ज्यों-की-त्यों बनी है, अभी भी हम में से अधिकतर लोग तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान साधुसेवा और अगणित देवी-देवताओं की पूजा को ही धर्म मानते हैं। अपढ़ जनता की तो बात ही क्या है, हम में से बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी हैं जो साधुओं अथवा भारतीय तत्वविज्ञान के चक्कर में पड़ कर अपने को भूल गए हैं। रूढ़िवाद के इस अँधेरे गढ़े से देश कब निकलेगा यह नहीं कहा जा सकता पर यह बात निश्चय ही है कि जब तक हम रूढ़िवाद को छोड़कर शुद्ध भारतीय संस्कृति का दर्शन नहीं कर लेते तब तक हम आगे नहीं बढ़ सकते, पुरातन की भारी गठरी हमें उन्नति मार्ग पर बढ़ने से अवश्य रोकेगी।
पुरातन के प्रति अंधश्रद्धा का भाव हम प्राचीन भारतीय साहित्य, इतिहास, दर्शन और तत्वज्ञान, कहाँ तक कहा जाए, भारतीय जीवन के हर अंग में देखते हैं। इसी प्राचीनता के फेर में पड़ कर हिंदू कानून अठाहरवीं सदी तक भी बहुत कुछ आगे नहीं बढ़ पाया था। इसी प्राचीनता के फेर में पड़कर भारतीय काव्य के मूल सिद्धांतों की रचना हुई जिसके प्रयोग ने काव्य के सौंदर्य को बहुत कुछ मार डाला और रसानुभूति की जगह अलंकारों के बोझ से दबा हुआ काव्य कुछ लोगों के ही आनंद का साधन रह गया। तत्त्वज्ञान के बारे में भी कुछ ऐसी ही हालत हुई। पुरातन पर आसक्त हमारी बुद्धि ने यह मान लिया कि जो कुछ आचार्यगण लिख आए हैं उसके आगे हमारी बुद्धि जा ही नहीं सकती। इसका यह नतीजा हुआ कि बाद में चलकर हमारे अच्छे-से-अच्छे पंडित जो स्वतंत्र रूप से सोचकर हमें रास्ता दिखला सकते थे, उन्होंने अपना समय केवल प्राचीन ग्रंथों पर भाष्य और टीकाएँ लिखने में ही बिताया। सोलहवीं सदी से लेकर आज दिन तक बनारस संस्कृत भाषा का केंद्र माना जाता रहा है और यहाँ के पंडितों ने हजारों ग्रंथ संस्कृत में लिखे पर मुझसे कोई अगर पूछे कि इन विद्वानों ने भारतीय संस्कृति को कौन-सी नई बात दीं तो मैं कहूँगा कुछ नहीं। नव्यन्याय के फेर में फँस कर उनका अधिक समय बाल की खाल निकालने ही में बीतता रहा और उनका अधिकतर समय टीकाओं पर टिकाएँ लिखने में ही खराब होता रहा। उनके समाजशास्त्र का अध्ययन तो केवल शौच कितने दिन लगना चाहिए, प्रायश्चित कैसे होना चाहिए, पिंडदान कैसे देना चाहिए, तीर्थयात्रा किस तरह हमें सीधे स्वर्ग पहुँचा देती है, ब्राह्मणों को दान देकर कोटि अश्वमेध यज्ञों का पुण्य कैसे लूटा जा सकता है, छुआछूत करके कैसे हम पवित्र बने रह सकते हैं–यहीं तक था। छुआछूत के भारतीय संस्कृति के प्रतीक बनने की बात का उल्लेख प्रसिद्ध अरबी विद्वान अलेबीरूनी (11 वीं सदी) करता है। भारतीय संस्कृति की आलोचना करते हुए उसका कहना है कि अनेक अंधविश्वासों के होते हुए भी उस युग में पूर्व में भारतीय कला और वैज्ञानिक विचारधाराओं में अगुआ थे और जहाजरानी में भी उनका दखल था। पर अलेबीरूनी को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि भारतीय व्यापारी, जो फारस की खाड़ी के बंदरगाहों में जाते थे अपना खाना अलग-अलग पकाते थे और इस तरह बाहर भी छूआछूत का पचड़ा जारी रखते थे।
कला के इतिहास में भी हम प्राचीनता की उपासना की भरपूर झलक देखते हैं। जब तक अपने आरंभिक दिनों में भारतीय कला का जन-जीवन से संबंध रहा कला में एक विचित्र सौंदर्य और तत्कालीन जीवन से संबंध था। प्राचीन कला के लिए यदि यह कहा जाए कि उसका संबंध किसी धर्म विशेष से न होकर उस लोकधर्म और उन लोक-विश्वासों से था जिनमें ऐहिक सुखों पर विशेष जोर था, तो ठीक होगा। तत्कालीन, नाग, यक्ष और वृक्ष-पूजा तथा उससे संबंधित राग-रंग का भरहुत से लेकर अमरावती की कला में प्रदर्शन है; साथ ही साथ इन जातक कथाओं का भी, जिनका उद्देश्य कहानियों के जरिए शिक्षा प्रसार था, उनमें प्रदर्शन है। इस कला में बुद्ध मूर्ति की भी कल्पना नहीं की गई है। बौद्ध धर्म से इसका संबंध केवल कुछ लक्षणों से ही पता चलता है पर बाद में चलकर भारतीय कला का रुख बदल गया और वह गुप्तकाल में आकर भारतीय तत्वज्ञान और मूर्तिशास्त्र की प्रतीक बन गई। जैसे ही भारतीय कला सनातन रूढ़िवाद के साँचे में ढली वैसे ही उन प्रतिमालक्षण शास्त्रों का जन्म हुआ जिनका उद्देश्य काव्य की तरह कला को भी नियमों से जकड़ देना था। कुछ दिनों के बाद तो उस पुरातन ने नवीन का गला ही घोंट डाला और भारतीय कला जीवन की वास्तविकताओं से अलग होकर केवल भक्ति की पूजा का साधन बन गई।
अब प्रश्न यह उठता है कि जिस समय प्राचीनता के प्रति लोगों का अंधविश्वास बढ़ता जाता था और भारतीय जीवन और विचारधारा को पुराणकार एक सँकरी चौहद्दी में बंद रखना चाहते थे, तो क्या कुछ ऐसे मनीषी भी हुए जिन्होंने उस पुराण-पूजा का विरोध किया। भारतीय साहित्य को देखने से पता लगता है कि कम-से-कम कुछ भविष्य-द्रष्टा विद्वान तो अवश्य हुए जिन्होंने अपनी अमरवाणी से हमें यह बतलाया कि बिना सोचे-विचारे पुरातन की सेवा ठीक नहीं। महाकवि कालिदास ने पुरातन की टीका करने वालों के पक्ष में मालविकाग्निमित्र में ठीक ही कहा है–
पुराणमित्येव न साधु सर्वम्
न चापि काव्यम् नवमित्यवद्यम्
संत:परीक्ष्यान्यतरद् भजन्तो
मूढ़: पर प्रत्ययनेय बुद्धि:।
अर्थात् जो कुछ भी पुराना है वह सब-का-सब ठीक नहीं और जो कुछ नया है वह भी सब-का-सब ठीक नहीं। जो बड़े लोग हैं वे परीक्षा करके फिर किसी चीज को ग्रहण करते हैं लेकिन जो मूर्ख हैं उनकी बुद्धि जो कुछ हो चुका है उसी के पीछे चलती है।
अगर हम गुप्त युग के इतिहास की समीक्षा करें तो हमें पता चल जाएगा कि महाकवि कालिदास को भी पुराने और नए के बीच से एक बीच का रास्ता निकालना पड़ा। भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों को पता है कि गुप्तयुग में इस देश की संस्कृति अपनी चोटी तक पहुँच चुकी थी। जिस काव्यधारा में ईसा की पहली शताब्दियों में सृजन हुआ वह इस युग में आकर सौष्ठव की चरम सीमा पर पहुँच गई। जीवन का शायद ही कोई अंग बचा हो जिसे इस युग की संस्कृति ने परिष्कृत न बनाया हो। नागरिक जीवन लिया जाए या व्यापार-कला ली जाए अथवा काव्य-दर्शन लिया जाए अथवा धर्म, इस युग के जीवन के हर एक पहलू में हमें एक नया चमत्कार दीख पड़ता है। पर इस युग की चमक-दमक की चकाचौंध में आकर लोग यह भूल जाते हैं कि इसी युग में उस पौराणिक संस्कृति की नींव पड़ी जिसने भारतीय जीवन को क्रमश: अर्थ और काम से हटा कर धर्म और मोक्ष की ओर लगा दिया। इसी गुप्त युग में पुन: उस ब्राह्मण संस्कृति को बल मिला, अनेक भूले हुए यज्ञ फिर से जिलाए गए और ब्राह्मणों का वह गौरव जो कुषाणों के समय फीका पड़ गया था फिर चमकने लगा। शायद इसीलिए महाकवि कालिदास को इस बात की आवश्यकता पड़ी कि वे अंध परंपरा के उन पूजकों को खबरदार कर दें कि वे सोच विचार कर आगे बढ़ें।
पर इस पुरातन का घोर विरोध तो हमें प्रसिद्ध जैन तार्किक और कवि सिद्धसेन की एक बतीसी में मिलता है। सिद्धसेन का ठीक-ठीक समय क्या था यह तो कहना मुश्किल है पर प्रसिद्ध विद्वान पंडित सुखलाल जी का यह मत है कि वे चंद्रगुप्त द्वितीय अथवा स्कंदगुप्त के समकालीन रहे होंगे। सिद्धसेन ब्राह्मण थे, बाद में जैन हो गए। निर्भयता के साथ बिना किसी की परवाह किए अपने विचार प्रगट करने की उनमें जो क्षमता है वह उन्हें उन प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वानों की श्रेणी में लाकर रख देती है जिन्होंने केवल सत्य को ही अपने आत्मचिंतन का आधार माना है। सिद्धसेन ने अपनी बतीसियों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, आजीवक और जैन सिद्धांतों का वर्णन किया है। पर सिद्धसेन की जो सबसे बड़ी विशेषता है वह है उनकी पुरातन की समालोचना। जहाँ तक हमें पता है, भारतीय साहित्य के सारे इतिहास में चाहे वह बौद्ध हो अथवा ब्राह्मण अथवा जैन, कोई भी ऐसा लेखक नहीं हुआ है जिसने पुराने और नए की समालोचना इतने दिल को छूनेवाले शब्दों में की हो। आज दिन विरोध बढ़ जाने के डर से बहुत से समालोचक खरी और सच्ची बात कहने में हिचकिचाते हैं। समालोचकों की मनोदशा का वर्णन करते हुए सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं–
पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितस्तत्रैव-साकिंपरिचिंत्य षेत्स्यति तथेति वक्तुं मृत रुढगौरवा दहन्नजात: प्रथयन्तु विद्विष:।
अर्थात् पुराने लोगों ने जो कुछ व्यवस्था की है अगर उस पर हम ठीक तौर से विचार करें तो क्या वह ठहर सकती है। अगर यह बात ठीक है तो मरे पुरखों की जमी प्रतिष्ठा की हाँ में हाँ मिलाने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ।
उपरोक्त श्लोक में हम एक अपूर्व ललकार देखते हैं जो पुराण-पंथियों के लिए थी। सिद्धसेन स्वतंत्र बुद्धि के पंडित थे और उनसे यह कभी नहीं देखा जा सकता था कि बिना सवाल किए ही लोग प्राचीनता को स्वीकार कर लें। सिद्धसेन फिर कहते हैं–
बहु प्रकाश: स्थितय: परस्परं विरोधयुक्ता: कथमाशु निश्चय:
विशेषसिद्धावियमेवनेति वा पुरातन प्रेम जडस्य युज्यते।[1]
अर्थात् परस्पर विरोधिनी शक्तियाँ हैं फिर इनमें से कौन ठीक मानी जाए और कौन गलत? यही ठीक है दूसरी बात नहीं, यह तो पुरातन से जड़ बने हुए को ही शोभा देता है मुझे नहीं।
इस श्लोक में भी सिद्धसेन ने वही निर्भीकता दिखलाई है जो इससे पहले श्लोक में। गुप्त युग में अनेक परस्पर विरोधिनी शक्तियाँ थीं। सिद्धसेन यह मानने को तैयार नहीं थे, जब तक उनकी तार्किक बुद्धि गवाही न दे, कि एक ही स्थिति अथवा विचार ठीक है दूसरा नहीं।
एक तीसरे श्लोक में तो बड़े ही तार्किक ढंग से पुरातन की खिल्ली उड़ाई गई है–
जनोऽयमन्यस्य मृत: पुरातन: पुरातननैरेव समोभविष्यति पुरातनेष्वित्यनवास्थितेषु क: पुरातनोक्तान्य परीक्ष्यरोचयेत्।
अर्थात मौजूदा आदमी भी मरने पर आगे की पीढ़ी की आँखों में पुराना हो जाएगा और पुरातनों की गिनती में आ जाएगा। इस तरह से नवीन भी कभी प्राचीन है और प्राचीन भी नवीन, तो फिर बिना परीक्षा किए हुए कौन मानेगा कि अमुक वचन प्राचीन ही है।
अपने पुरातन के प्रेम के कारण आलस्य से पहले तो लोग ठीक-ठीक परीक्षा नहीं कर पाते। अगर परीक्षा कर के भी वे किसी निश्चय पर पहुँचे तो प्रसन्न होकर कहने लगते हैं कि ‘पुराने गुरु झूठे थोड़े ही हो सकते हैं, मैं खुद ही इतना मूर्ख हूँ कि उनका आशय नहीं समझ सकता।’ ऐसे लोगों के लिए दिवाकर का कहना है कि वे आत्मनाश की ओर दौड़ते हैं। सिद्धसेन का यह वचन उन पुरातनवादियों के लिए है जो पुराणकारों की हर बात को इसलिए सही मानते थे कि पुराण तो असत्य नहीं कह सकते थे।
पुराणों और दूसरी जगह अलौकिक घटनाओं में विश्वास करने की भी सिद्धसेन ने बड़ी दिल्लगी उड़ाई है–
मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षणैर्मनुष्यहेतोर्नियतानि तैः स्वयम्
अलब्धपाराण्यलसेषु कर्णवानगाध पाराणि कथं ग्रहीष्यति
जब कोई पौराणिक चमत्कारों का वर्णन पढ़ कर उसकी समीक्षा करता है तो अविवेकी कह देते हैं कि ‘हम तो ठहरे मनुष्य, और शास्त्र देवरचित हैं फिर हमारी कहाँ पहुँच वहाँ’। ऐसे अंधविश्वासियों के लिए सिद्धसेन कहते हैं कि हम जैसे मनुष्यों ने ही, आदमियों की बातें आदमियों के ही लिए लिखी हैं। ये बातें न जाँच सकने वाले आदमियों के लिए अपार और गहन भले ही हो सकती हैं लेकिन होशवाला कोई विद्वान उन्हें अगाध समझकर कैसे मान लेगा।
पुराणसेवी किसी मानवकृत नवीन कल्पना को छूते तक नहीं पर पुराणकारों द्वारा कहे गए अंसंबद्ध और समझ में न आने लायक विचारों की प्रशंसा करते नहीं अघाते। ऐसे लोगों के लिए सिद्धसेन का कहना है कि ऐसा विश्वास कुंठितबुद्धि का द्योतक है, बुद्धिमानी का नहीं।
उपरोक्त उद्धरणों से यह साफ पता चल जाता है कि कम से कम गुप्त युग में कुछ ऐसे विचारक थे जो पुराणों के कायल न होकर विचार स्वातंत्र्य के कायल थे। इन मनीषियों ने हमें पुराण पंथ से दूर रहने का आदेश किया पर पुराण भक्ति कुछ हमारी नसों में इतनी घुस गई थी कि हम स्वतंत्र विचार करने में प्राय: असमर्थ हो गए थे। इसका नतीजा हुआ बौद्धिक ह्रास। आज हमारा देश स्वतंत्र हो चुका है और हमें इस बात की बड़ी ही आवश्यकता है कि पुराण पंथ की खोखली बातों को छोड़ कर नवीन विचारधारा पकड़ें। अगर हम ऐसा न कर सके तो हम कदापि उन्नति नहीं कर सकते।
[1] सिद्धसेन के उद्धरणों के लिए मैं पं. सुखलालजी का कृतज्ञ हूँ। देखिए, भारतीय विद्या, सं. 2000-2001, प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर, 59 से।
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