क्षितिज-लालिमा मुसकरा कह रही है
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
क्षितिज-लालिमा मुसकरा कह रही है
क्षितिज-लालिमा मुसकरा कह रही है–
ये प्रात के स्वर मधुर आज जागो!
कली से खिले उर-सुमन-पंखड़ी पर
सुरभि की लहरियाँ मदिर आज जागो!
थकित पंथियों के पगों की सिमेटी
विसुध-सी प्रगति तुम हुलस आज जागो!
उनींदे नयन के सँजोए अधूरे
मुँदे स्वप्न-संपुट विलस आज जागो!
मनुज के हृदय की बुझी आग, नूतन–
पवन के झकोरों सहित आज जागो!
पड़ी चुप तिमिर में, न सो, लक्ष्य-राहें,
किरण-प्रेरणा है निहित आज जागो!
विजय के चरण चूमने की उमंगें,
पराजय-हृदय में अमिट धीर जागो!
प्रगति-शक्तियों का नया जन्म देने,
सुहागिन धरा की प्रसववीर जागो!
पड़ी मंद जीवन-क्रिया, मुसकरा दो,
कहो मैं जगी सुप्त संसार जागो!
न अस्तित्व, जागृति बिना सुप्ति का है,
अमर सत्य-व्यापार के सार जागो!
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma