पागल
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- 1 June, 1950
पागल
यदि वह पागल नहीं होता तो अपने भोजन के लिए अवश्य ही जालसाजी करता, फरेब करता, चोरी-डकैती करता अथवा भीख ही माँगता…उसके पास भीख माँगने की झोली तक नहीं और वह अलमस्त बना रहता है। जरूर वह पागल है।
यों ही वह बिना किसी कारण के मुसकुराता रहता था।
ऐसे जो आदमी होते हैं वे पागल होते हैं। अगर कोई आदमी अपने मतलब से, अपने स्वार्थ से मुसकुराता है, तो वह ठीक है। कम से कम वह पागल तो नहीं है। लेकिन अगर कोई बिना वजह के मुसकुराता है, तो वह मुस्कान का अपव्यय करता है। इस व्यापारिक युग में अपव्यय बड़ी खराब चीज है। इससे दीवाला निकल जाता है। सो मुस्कान का भी अपव्यय नहीं होना चाहिए। जो फिजूल, बिना कारण के मुसकुराता रहता है वह पागल नहीं तो और क्या है?
खाने-पीने का भी उसका ठीक नहीं। जो मिला सो खा लिया। नहीं मिला तो नहीं खाया। अपनी मौज में मुसकुराते रहे। जरूर ही वह पागल है। वर्ना खाना तो आदमी को दोनों जून मिलना ही चाहिए। इसी दोनों वक्त के भोजन के लिए आदमी चोरी, डकैती, घूसखोरी, जालसाजी बेईमानी करता है। इसी भोजन के खातिर राज्य-क्रांतियाँ होती हैं, षड़यंत्र होते हैं, हत्याएँ होती हैं, तख्त उलटते और पलटते हैं। भोजन ही तो सार वस्तु है। उस भोजन की ओर से लापरवाह? उस भोजन के बिना भी अलमस्त? वह जरूर पागल है। यदि वह पागल नहीं होता तो अपने भोजन के लिए अवश्य ही जालसाजी करता, फरेब करता, चोरी-डकैती करता अथवा भीख ही माँगता। मगर वह तो कुछ भी यह सब नहीं करता। जरूर वह पागल है।
रहने का भी ठौर-ठिकाना नहीं। जहाँ जमे वहीं अपना घर है। सड़क पर हैं तो वहीं आराम है। जरूर वह पागल है; अन्यथा उसका कोई अपना घर जरूर होता। अगर अपना घर नहीं होता, तो किराये का घर तो जरूर ही होता। अगर वह भी नहीं होता तब भी किसी मकान या ज़मीन के लिए किसी अदालत में उसका कोई दीवानी मुकदमा जरूर चलता होता। नही-नहीं, वह पागल है। उसे अपने कपड़े-लत्ते का ख्याल नहीं। वह अपने भोजन की भी परवाह नहीं रखता। उसके रहने का भी ठीक नहीं। ऊपर से वह बिना किसी कारण के मुसकुराता रहता है। उसके पास भीख माँगने की झोली तक नहीं और वह अलमस्त बना रहता है। जरूर वह पागल है।
ऐसे पागल से कौन बोले? मैं भी उससे नहीं बोलता। उसके पास तो अपनी कोई कामना ही नहीं। वह दूसरों की कामना से दिलचस्पी क्यों लेगा? उसके पास अपना कोई स्वार्थ ही नहीं, फिर उससे दूसरे किसी का स्वार्थ कुछ भी नहीं सधेगा। वह फिजूल है। समाज और सामाजिक चेतना के लिए फिजूल है। वह पागल है। पागल से नहीं बोलना चाहिए। मैं शाम-सबेरे, दिन-दोपहर आते-जाते उसे बराबर देखता हूँ, बराबर वह मुसकुराता रहता है, बराबर वह हँसता है। मैं उससे बोलता ही नहीं।
वह पागल बराबर मेरे ही मुहल्ले में चक्कर काटता था, मेरे ही मुहल्ले में रहता था। घर तो उसका था ही नहीं। अपना पड़ोसी उसे कैसे कहूँ? मगर वह मेरे ही मुहल्ले में निवास करता था।
सन् 1946 की बात है। संप्रदाय और मजहब आपस में टकराने लगे। मुझे मालूम नहीं कि भगवान और अल्लाहताला कभी लड़ते होंगे, खुदाबंदा करीम और भगवान रामचंद्र आपस में छूराबाजी करते होंगे, लेकिन हिंदू और मुसलमान तो जरूर ही लड़ने लगे। सारा देश इसी वातावरण में लीन हो गया।
फिर हमारा ही नगर क्यों चुप रहे? क्या गया के हिंदुओं ने माँ का दूध नहीं पीया? क्या मुसलमानों के पास इस्लाम की आन नहीं? …अल्लाहू अकबर! महावीर स्वामी की जय!! लो दोनों ओर से ठन गई। खचाखच छूरियाँ चलने लगीं, बीच-बीच में बंदूकों के फायर होने लगे। फटा फट तमाम घरों के सभी दरवाजे बंद हो गए। सारे शहर में सन्नाटा हो गया। बस, कभी दूर से हरहर महादेव की आवाज आती, अल्लाहू अकबर की आवाज आती या फिर आर्तनाद का स्वर सुनाई देता। सड़कों पर खून के धब्बे थे और निरीह मानव की लोथ थी। ओह, कैसा बुरा वक्त था!
मगर वह पागल तब भी घूम रहा था, तब भी हँस रहा था। मैंने अपने मकान की खिड़की को खोलकर देखा। वह भागते हुए लोगों की देखकर हँस रहा था, मुर्दा पड़ी हुई लाशों को देखकर हँस रहा था।
आज पहली बार उस पागल पर ममता हो आई। डर लगा कि कहीं कोई उसे मार न डाले। मैंने खिड़की बंद की। जल्दी-जल्दी नीचे उतरा। सड़क पर उसके पास जाकर बोला–तुम कहीं छिप क्यों नहीं जाते?
वह मुसकुराता रहा और मेरी ओर देखता रहा। मैंने कहा–देखते नहीं, चारों ओर मार-काट मची हुई है? उसने मुसकुरा कर कहा–हाँ, मार-काट मची हुई है। सब पागल हो गए हैं।
वह तो ऐसा वक्त था कि आदमी या तो हिंदू था या मुसलमान था। इसके सिवा वह कुछ हो ही नहीं सकता था। मेरे मन में एक संदेह ने सिर उठाया। मैंने उससे पूछा तुम हिंदुओं की तरफ हो या मुसलमानों की तरफ? उसने हँसते हुए कहा–क्या तुमने भी मुझे पागल समझ लिया है? मैं किसी की तरफ क्यों रहूँ? मैं पागल नहीं हूँ!
और वह मुझे लक्ष्य करके हँसा, फिर गली की ओर चल कर मुड़ गया। जाते-जाते वह बड़बड़ा रहा था कि लोग ऐसे पागल हो गए हैं कि मुझे भी पागल समझ रहे हैं। कम्बख्तो, मैं तुम लोगों की तरह पागल नहीं हूँ…
आज बहुत दिनों के बाद वह पागल मुझे याद आ रहा है। मैं आज उसी को सोच रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि क्या वह ठीक कहता था? क्या वह पागल नहीं था?
Image Courtesy: Dr. Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey