एक ऐसी भी निर्भया : एक स्त्री की शोषण गाथा
- 1 April, 2018
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 April, 2018
एक ऐसी भी निर्भया : एक स्त्री की शोषण गाथा
आधुनिक हिंदी साहित्य में व्यंग्य साहित्य लिखने वाली महिला व्यंग्यकार और कवयित्री हैं–मीना अरोड़ा। इनकी कविताएँ ‘अमर प्रेम’, ‘तीज’, ‘संग’, ‘प्रतीक्षारत’, ‘तुम गुज़रते हो’ आदि उनके द्वारा हाल में लिखी गयी हैं। ‘शेल्फ पर पड़ी किताब’ (2014), ‘दुर्योधन एवं अन्य कविताएँ’ (2015) उनके कविता संग्रह हैं। ‘एक ऐसी भी निर्भया’ इनका प्रथम उपन्यास है। वे बचपन से ही साहित्य में रुचि रखती थी और छोटी उम्र में कविताएँ, कहानियाँ, शायरी आदि भी लिखती थीं। लेकिन उनका प्रकाशन नहीं किया गया है। इनकी प्रथम कविता राष्ट्रीय दैनिक अमर उजाला में प्रकाशित हुई थी।
‘एक ऐसी भी निर्भया’ उपन्यास नारी जीवन के दर्दनाक चित्र का अक्षर रूप है। लेखिका अपने सहज रूप में सामाजिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश जाहिर करनेवाली और पीड़ित, शोषित नारी के प्रति संवेदनशील एवं मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठा रखनेवाली हैं। इसलिए अपनी आँखों के सामने घटी घटना से क्षुब्ध होकर नारी जीवन की सुरक्षा की राहों की तलाश करते हुए, छोटी उम्र की लड़कियों को अपनी काम पिपासा की शिकार बनाने वाले कामी पुरुष वर्ग को चेतावनी देते हुए ‘एक ऐसी भी निर्भया’ उपन्यास का लेखन किया। उन्होंने मेरे प्रश्न के उत्तर में इस उपन्यास के विषय वस्तु के संदर्भ में यह कहा कि: नारी शोषण पर उपन्यास लिखने का बड़ा कारण है, समाज से इस उत्पीड़न को समाप्त करना। इसे लिखने की प्रेरणा मुझे उस लड़की से मिली, जिसको उसके पिता ने शराब के लिए बेच दिया था। कहानी सौ फीसदी सच्ची है। उनके इस कथन में आज देश में लड़कियों के साथ होनेवाले अत्याचारों के लिए कौन जिम्मेदार है, यह प्रश्न सहज ही उठता है। तात्कालिक खुशियों के लिए लड़कियों की जिंदगियों से खेलनेवाले अभिभावक और लोग आज ही नहीं, पहले भी थे। सामाजिक नियमों व मर्यादाओं की आड़ में बाल विवाह, विधवा का शोषण आदि घर की चार दीवारों के अंदर घटते हुए साहित्य में चित्रित किये गये हैं। वहीं आज लड़की घर से बाहर आने लगी, तो अब समाज में सामूहिक रूप से उसका शोषण हो रहा है। युग जो कुछ भी हो, लेकिन हार हमेशा पुरुषों के अत्याचारों की शिकार बननेवाली नारी ही रही है। मीना अरोड़ा ने पुरुष की इन करतूतों का जिम्मेदार पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ठहराया है। उन्होंने यह भी कहा है कि नारी की दुःस्थिति का कारण स्वयं नारी ही है, क्योंकि यह कहावत प्रसिद्ध ही है कि नारी नारी ही की दुश्मन है। लेखिका के शब्दों में, पहली बात समाज में पितृसत्तात्मक सोच का होना, जो सदियों से चली आ रही है और दूसरा स्वयं एक नारी द्वारा दूसरी नारी का उत्पीड़न।
नारी के दुश्मन चाहे कोई भी हो, लेकिन उनके अत्याचारों की शिकार बनकर वह आजीवन रोते हुए जीवन बिताने के लिए विवश हो रही है। नयी सदी के इस दौर में देश एक तरफ तरक्की की ओर अग्रसर हो रहा है, तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार, अत्याचार, अमानवीय व्यवहार जैसी विसंगतियों से व्यक्ति और समाज झुलस रहा है। लेखिका का यह प्रथम उपन्यास होने के बावजूद सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने में वे कामयाब हुई हैं। लेखिका ने इस उपन्यास में नारी जीवन की विडंबनाओं का ही चित्रण नहीं किया, अपितु उनके कारणों को भी स्पष्ट करते हुए समस्या के समाधान के प्रति पाठकों को सोचने का मौका दिया। इस उपन्यास में लेखिका ने नारी को केंद्र में रखकर समाज में पनप रही नारी जीवन की दुखमय घटनाओं एवं विडंबनाओं को यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है। भारतीय नारी प्राचीन काल से ही सशक्त थीं। लेकिन कालांतर में सीमाबद्ध करने के द्वारा उसे परतंत्र जीवन जीने के लिए विवश कर दिया गया है। परिणामतः उसमें संकोच और दुर्बल होने की भावना घर गई है। एक लंबे अरसे तक इसी परिवेश में रहने के कारण नारी-मुक्ति असंभव हो गयी। परिणामतः वह अपनी स्वतंत्रता की खोज में घर से बाहर निकल पड़ी। फिर भी वह अपने पुराने वैभव को प्राप्त करने में असफल ही रही है। आज नारी पुरुष के समान हर क्षेत्र में नाम और धन कमा रही है। वह आज परिवार और नौकरी के क्षेत्र में सफल तो हो रही है लेकिन, पहले से उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी। आज पुरुष विशेषतया चंद वर्ग के पुरुष को पत्नी या बच्चों को नौकरी करते हुए पाकर आवारा जिंदगी की लत होने लगी, जिससे नारी की मुसीबतें कम होने की जगह और बढ़ती दिखाई देती हैं। फिर भी, नारी अपनी सशक्ति का परिचय देते हुए सभी स्थितियों को संभालने की कोशिश कर रही हैं। इस उपन्यास के मेहर के इस कथन से नारी का जीवन संघर्ष और उसकी सशक्ति का परिचय मिलता है कि, ‘है साहब, पर मैं उसका खयाल रखती हूँ। स्कूल जाती है वह। आपके घर इसीलिए काम करती हूँ, ताकि उसे पढ़ा सकूँ। बाप तो उसका भी इस हरिये सा निगोड़ा है।’
इस उपन्यास की मेहर अपने पियक्कड़ पति से कोई शिकायत नहीं करती। खुद परिश्रम करके धन कमाते हुए परिवार और पियक्कड़ पति की परवरिश करती है। वह एक पत्नी, बहू और माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाती है। तकलीफों को झेलते हुए भी वह परिवार के लिए न्योछावर होती है और उसी में संतुष्ट रहती है। समाज में मेहर जैसी सशक्त नारियाँ एक ओर हैं, तो अदली जैसी कमजोर स्त्रियाँ भी हैं, जो स्वयं पति से दी जानेवाली यातनाओं की शिकार ही नहीं बनती, अपितु अपनी बेटियों की जिंदगी बरबाद होने का कारण भी बनती हैं। जीवन में संघर्ष न कर पाने की स्थिति में वह कमजोर मानसिकता रखती हैं। इस उपन्यास की अदली को ऐसी ही कमजोर महिला के रूप में चित्रित किया गया है, जो पति का विरोध न कर पाने की स्थिति में परिवार की खुशियों को बनाये रखने में अक्षम होती है। इस कारण बेटी रजनी को बचा पाने में असफल होती है। बेटी रजनी को पति हरिया द्वारा दूसरों के हाथों बेचने की स्थिति में चुपचाप बिना प्रतिक्रिया के वह रह जाती है।
घर की चार दीवारों में ही दबी रहने के कारण नारी परिवार के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनती है। परिवार के हर सदस्य की ज़रूरतों की पूर्ति करने में, उन्हें सुखी रखने में वह अपनी सारी शक्तियों को लगाती है। परिवार के लिए अपने आप को समर्पित करने की प्रवृत्ति नारी में बचपन से ही डाली जाती है। परिणामतः जीवन पर्यंत अर्थात् विवाह पूर्व अपने माता-पिता, भाई-बहनों के लिए बलिदान हो जाती है, तो विवाह के पश्चात पति, बच्चे और ससुराल वालों के लिए जीवन त्याग करती है। ऐसे वातावरण में खुद के बारे में सोचने की मानसिकता उसमें विकसित होने की संभावना नहीं रहती। परिवारों के लिए उसे हर संदर्भ में समझौता करते हुए जिंदगी बितानी पड़ती है और ऐसी जिंदगी के लिए आदी हो जाती है। उसका यही स्वभाव उसके पतन के कारणों में से एक कहा जा सकता है। नारी की इस कमजोरी का परिचय रजनी के द्वारा परिवार वालों के लिए किये गए समझौते से स्पष्ट होता है। इस उपन्यास की रजनी दस साल की उम्र में ही इतनी समझदार हो जाती है कि परिवार को आर्थिक समस्याओं से उभारने के लिए प्रकाश के हाथों खुद बिक जाती है, जिसके कारण उसका पूरा जीवन बर्बाद हो जाता है। उसे जिंदगी में प्रकाश के ही नहीं, अपितु सामूहिक बलात्कारों का शिकार भी होना पड़ता है। इसका बलात्कार करनेवालों में डॉक्टर भी एक है। ‘वैद्यो नारायणो हरिः’ मानकर उस पर विश्वास रखने वाले रोगियों के साथ अत्याचार करने वाले डॉक्टरों का प्रतीक बन कर वह सामने आता है। प्रकाश से पीड़ित रजनी जब रोगग्रस्त अवस्था में अस्पताल में भर्ती की जाती है, तो डॉक्टर द्वारा रजनी पर अत्याचार होता है। इतने सारे अत्याचारों का सामना करनेवाली रजनी परिवार के प्रति की संवेदनशीलता उसे और एक बार प्रकाश के पास जाने के लिए विवश करती है। रजनी के इस कथन में भारत की सामान्य परिवार की लड़कियों की मानसिक कमजोरी प्रकट होती है कि, “लौटना तो मैं भी नहीं चाहती थी नरक भरी जिंदगी में, पर छोटी, छोटू और माँ की हालत देखकर मजबूर थी। अब सब बहुत खुश हैं।” इस प्रकार लेखिका ने यह बताने की कोशिश की है कि नारी अपने कोमल व नादान स्वभाव के कारण स्वयं समस्याओं को मोल लेती है।
लेखिका मीना अरोड़ा ने पुरुष के ऐसे रूप का भी चित्रण किया है, जो शादी-शुदा, बच्चों के पिता होते हुए भी कामुक जीवन जीता है। समाज की अन्य स्त्रियों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करके वह अपनी कामुकता की परितुष्टि करता रहता है। इस उपन्यास का प्रकाश वैसा ही कामुक पुरुष है, जो समाज के अन्य स्त्रियों के साथ कामेच्छा की पूर्ति ही नहीं करता, बल्कि स्वयं की साली रक्षा का भी बलात्कार करता है। पति के इस अनैतिक व्यवहार से तंग आकर अपनी ही बहन के साथ किए बलात्कार के बदले में उसकी पत्नी मालती उसे शाश्वत रूप से अपंगु बना देती है। पत्नी के आक्रोश के परिणाम स्वरूप शाश्वत रूप से अपाहिज का जीवन जीना पड़ा है, पश्चाताप की जगह वह आक्रोश से भर जाता है और पशु तुल्य बन जाता है। लेखिका मीना अरोड़ा के इस कथन से प्रकाश की पशु प्रवृत्ति का पता चलता है, “प्रकाश के दिल में रजनी का चेहरा उतर गया, बरसों से सोई भूख जाग गई, पर अब तो इतना बेबस था कि कुछ कर नहीं सकता था, पर रजनी ने तो जैसे उसका चैन छीन लिया, वह उठते-बैठते उसके सपने देखने लग गया, बस वह यही सोचता कि उसे कैसे हासिल करना है, उसने हरिश को अपने साथ रखना शुरू कर दिया, बिना माँगे पैसे देता, शराब लाकर देता, कई बार घर लाकर खाना भी खिलाता था।”
लेखिका ने कामुक पति के कारण टूटनेवाले पारिवारिक व दांपत्य जीवन का चित्रण किया है। हर एक स्त्री की विवाह के संदर्भ में यही इच्छा होती है कि पति व ससुराल सुसंस्कृत और सुसंपन्न हो। पति आचरण व्यवहार में अच्छा हो और सदैव उसे प्रेम से रखे। किंतु तयशुदा विवाह हो या प्रेम विवाह, यदि उसका पति विवाह पश्चात चरित्रहीन निकले तो वह सह नहीं पाती। एक समय था जब वह सब कुछ मूक होकर सहन कर लेती थी। लेकिन अब नारी ऐसे पुरुष से मुक्ति पाते हुए उसे छोड़कर जाने से हिचकिचा नहीं रही है। इस उपन्यास की मालती भी अपने कामुक पति प्रकाश से नफ़रत करते हुए घर छोड़ कर चली जाती है। मालती की यह व्यथा उसके इस कथन से स्पष्ट होती है, जो एक सामान्य नारी की व्यथा है, “नहीं, मुझे इस घर से कुछ नहीं उठाना, यहाँ की हर चीज मेरे लिए बेमानी है। कितने प्यार से सँजोया था मैंने अपने घरोंदे को, पर पता नहीं था कि ऐसा होगा।”
समाज में नारियों पर होने वाले अत्याचारों का प्रधान कारण समाज में व्याप्त विसंगतियाँ ही हैं। लोकतांत्रिक देश में मतदाताओं द्वारा नेता चुने जाते हैं। लेकिन आज के चंद नेतागण यश और धन की लालसा में जी रहे हैं, जो सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वे भ्रष्ट नेताओं के साये में रहते हुए सामान्य जनता पर अत्याचार व गुंडागर्दी करते हुए अपने रोब को जमाना चाहते हैं। ऐसे भ्रष्ट नेताओं के द्वारा सामान्य व्यक्ति किस तरह उनके चंगुल में फँसकर गलत काम करने से नहीं हिचक रहा है–का चित्रण भी इस उपन्यास में किया है। इस उपन्यास का प्रकाश एक मामूली गैरेज का मालिक था, किंतु लोलुप होने के कारण उसके मन में शीघ्र ही धन और नाम कमाने की इच्छा पैदा होती है। उसे अच्छी तरह मालूम था कि बेईमानी से ही जल्दी धन और यश कमाया जा सकता है। इसीलिए वह भ्रष्ट राजनीतिक नेता की शरण लेता है। हाथ भर पैसे मिलने के बाद वह लोगों पर गुंडागर्दी करने पर तुल जाता है। इसी मानसिकता में हरिया, जो पोस्टर्स चिपकाने का काम करता है, उसकी शराब लत और पैसे की मजबूरी का फायदा उठाते हुए उसकी बेटी दस साल की रजनी पर बुरी नज़र डालता है। वही अत्याचारी बाद में विधायक भी बन जाता है। प्रकाश के इस कथन के द्वारा राजनीतिक नेताओं की मानसिकता जाहिर की गयी है कि, “यहाँ नेता बनने का मतलब पावर हासिल करना, देश की जनता को अपने दम पर हाँकना।”
लोकतांत्रिक देश के सही निर्वाह में राजनीतिक नेताओं की ही नहीं, अपितु प्रशासनिक व्यवस्था की भी बड़ी भूमिका होती है। लेकिन दोनों क्षेत्र भ्रष्ट हो जाते हैं, तो लोगों को भगवान के भरोसे ही जीना पड़ता है। राजनीतिक नेता पुलिस व्यवस्था को भी अपनी मुट्ठी में रखने के कारण सामान्य जनता की सुरक्षा पर प्रश्न चिह्न लग रहा है। ‘एक ऐसी भी निर्भया’ में इसी भ्रष्ट प्रशासन और राजनीतिक व्यवस्था का चित्रण हुआ है। इस उपन्यास की सुधा जो समाजसेविका और अनाथ बच्चों के लिए संस्था चलाती रहती है, रजनी को आश्रय देती है। चंद साल के बाद सुधा, रजनी को उनके परिवारवालों से मिलाना चाहती है और उसके प्रति जिन्होंने अत्याचार किया, उन्हें सजा दिलाना चाहती है। लेकिन, प्रकाश राजनीति और अधिकार के बल पर उसके विचार पर पानी फिरा देता है। अनाथ बच्चों को बचाने के लिए उसे रजनी का साथ छोड़ना पड़ता है।
इस प्रकार प्रस्तुत उपन्यास में नारी के प्रति हो रहे अत्याचारों के मूलभूत कारणों को ढूँढ़ निकालते हुए लेखिका ने समाज को ऐसी आवाज दी है, जिसके द्वारा लोग जागृत हो जाएँ और स्वस्थ समाज की स्थापना हो पाये, ताकि फिर से कोई और लड़की निर्भया और एक और ऐसी निर्भया न बनें। इस उपन्यास के जरिये लेखिका ने एक ऐसी निर्भया को चित्रित किया, जिसकी जिंदगी खुद के जन्मदाता के कारण बरबाद होती है और लगातार बलात्कारों की शिकार बनती रहती है। इस उपन्यास के द्वारा अत्याचारों की शिकार बनने वाली ऐसी लड़कियों का चित्रण किया, जो अपने परिवार की खुशियों के लिए फिर से स्वयं उसी दलदल में फँसती है। निर्भया जो अनजान व्यक्तियों के अत्याचार की शिकार बनकर जान खो बैठती है, उसके विपरीत स्वयं पिता के कारण और परिवार के खातिर जिंदगी को बलि चढ़ाती है ‘एक ऐसी भी निर्भया’ उपन्यास की निर्भया। यह लड़कियों के शोषण का गुप्त रूप है, जो पारिवारिक स्तर पर पैर पसारा हुआ है। लड़कियों की परिवार में और समाज में जो स्थिति बनी हुई है, उसका पर्दाफाश करना भी इस उपन्यास के प्रधान उद्देश्यों में से एक है।
Image Source: WikiArt
Artist: Amrita Sher-Gil
Image in Public Domain