वृंदावन
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
वृंदावन
वृंदावन लाल वर्मा का मेरा साथ तीस-पैंतीस बरसों का है। वे मुझे बड़ा भाई मानते हैं, ‘भाई साहब’ कहते हैं, और मैं उन्हें ‘वृंदावन’ कहता हूँ। वे मुझसे छोटे हैं और मैं उनके गुण-दोष से परिचित हूँ। उनका सबसे बड़ा दोष यह है कि वे ‘नालायक’ हैं। ऐसे ‘नालायक’ कि कुलगत पेशा छोड़ बैठे। उनके घर में कानूनगोई होती चली आती थी, और इन्होंने की वकालत। जब वकील हुए तब इनकी बूढ़ी दादी ने कहा–“वकील हो गए सो ठीक है, पै घर की कानूनगोई चली गई।”
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वकील तो नहीं हूँ पर वकीलों से काम पड़ा है और पड़ता है । वे लोग बड़े चतुर होते हैं। फाँसी चढ़ते हुए आदमी से भी शुकराना ले लेते हैं। एक थे वकील। उनके मुवक्किल को हो गई फाँसी की सजा। उनके घर के लोग, सभी संबंधी रोते-सिसकते अदालत से बाहर निकले। उनके पीछे-पीछे वकील साहब का मुहर्रिर दौड़ा और उन लोगों से बोला–‘लाओ शुकराना’। लोगों ने कहा–‘भले आदमी। तुम्हें शुकराना माँगते शरम नहीं आती। किसी के घर का आदमी मर रहा है और तुम शुकराना माँग रहे हो।’ उसने उत्तर दिया। ‘वाह, मरने को तो सभी मरते हैं। कोई हैजे से मरता है, कोई प्लेग से, यह फाँसी से मरा तो कौन बड़ी बात हो गई। यह दफा ऐसी थी कि इसमें फाँसी तो फाँसी, जमीन, जायदाद सब जब्त हो जाती। यह वकील साहब की वकालत थी कि तुम्हारी जमीन-जायदाद बच गई नहीं तो बाल-बच्चों को भूखों मरना पड़ता।’ सो ऐसे चतुर होते हैं वकील लोग।
पता नहीं, वृंदावन के मुंशी ने कभी ऐसा शुकराना लिया है या नहीं पर सुनते हैं उनकी वकालत बहुत चलती थी। हजार रुपया महीना कमाते थे । पर वह भी उनके किए न हो सका।
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मुझे तो लगता है वह ‘नालायक’ ही है। जब देखो तब कहीं जंगल में, नदी-नालों में, पर्वत-पहाड़ों में बंदूक लिए घूमता रहता है। उसे शेर-चीते का डर नहीं। कहता है–जब शेर चीता आएगा तो देखा जाएगा।
एक बार उसे धुन समाई खेती करने की। बस एक गाँव खरीद लिया। स्कीम बनी–पेपेन की बड़ी माँग है पेपेन बनाया जाएगा। बस फिर क्या था, पंद्रह हजार पेड़ पपीते के लगा दिए गए। बगीचा बना, तीन हजार पेड़ आम के लगाए गए। सब पेड़ों पर लेबुल लगे–यह दसहरी है, यह लंगड़ा है। हमने भी सोचा, चलो खूब आम खाने को मिलेंगे। पर दो बरस हुए तब गया, तो वहाँ बस एक ठूठा-सा पेड़ खड़ा दिखाई पड़ा। उस गाँव का नाम ‘बूड़ा’ है। सो सचमुच उस गाँव में चालीस हजार रुपये बूड़ गए।
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गाँव और खेतों के बीच एक दिन मैंने इनके हाथ में कागजों का पुलिंदा देखा। पहले तो मैंने समझा कोई मिसिल-विसिल होगी। वकीलों के पास इसकी क्या कमी। फिर भी पूछ ही लिया कि क्या है। बोले–“कुछ नहीं, खेतों की क्यारियों के बीच बैठे-ठाले यों ही कुछ लिख डाला।’ लेकर देखा, तो वह थी ‘गढ़कुंडार’ की पांडुलिपि। मालूम हुआ कि हमारे इस ‘नालायक’ वृंदावन में ये भी गुण है। उपन्यास लिखने लगा है। अब तो वह इनकी नहीं है। मेरा मतलब है कि प्रकाशक की है पर लिखी इन्होंने ही है।
उसे मैंने पढ़ा। वह मुझे बहुत अच्छा लगा। उसमें और सब तो है ही, मुझे यह देख कर बहुत संतोष हुआ कि उन्होंने अपने प्रतिनायक के साथ भी, जो एक विजातीय है, न्याय किया है। यह एक बहुत बड़ा गुण है।
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एक बात और बता दूँ। देवगढ़ हमारे जिले में अपने प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। वहाँ वैष्णवों के मंदिर हैं और जैनियों के भी। जैनियों के मंदिर के संबंध में एक मुकदमा उठ खड़ा हुआ। जैन मंदिर कमेटी वालों ने हमारे वृंदावन को वकील किया। एक दिन वे मौके पर देवगढ़ गए। वहाँ, जैनियों का जो कारिंदा था, उसने उनसे खाने-पीने के लिए पूछा कि क्या प्रबंध किया जाए। इन्होंने कहा–‘कुछ भी नहीं, थोड़ा दूध का इंतजाम हो जाए तो काम चल जाएगा।’ उसने पूछा–‘कितना दूध लाऊँ? इन्होंने कहा–‘सात-आठ सेर काफी होगा।’ कारिंदे के होश उड़ गए। पर उस समय वह कहता भी क्या! उसके मालिक के जो वकील ठहरे। बाद में जब ये चलने लगे तो बोला–‘बाबू जी, कृपा कर जरा सर्टिफिकेट लिख दीजिए कि आपने आठ सेर दूध मँगाया था, नहीं तो मालिक लोग विश्वास ही न करेंगे।’
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ऐसा है हमारा यह वृंदावन।
[साहित्यकार संसद के वार्षिकोत्सव के अवसर पर दिया गया भाषण]
Image: In the Fields
Image Source: WikiArt
Artist: Henri Rousseau
Image in Public Domain