हरी चूनर पहन कर आ रही वर्षा सोहागिन फिर
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- 1 August, 1951
हरी चूनर पहन कर आ रही वर्षा सोहागिन फिर
हरी चूनर पहन कर आ रही वर्षा सोहागिन फिर
कहीं वन बीच फूलों में पड़ी थी स्वप्न में सोई
उलझते बादलों की लट पिया छलका गया कोई
तिमिर ने राह कर दी–राह कच्ची धूप की धोई
पवन की रागिनी मोती भरे आकाश में खोई
पहन धानी लहरिया आ रही वर्षा सोहागिन फिर
गुँथी है जुगनुओं से मोरपंखी किशमिशी चोली
दिए गुलनार माथे पर शफ़क की रेशमी रोली
हिंडोलों की लहर में गीत की कोमल कड़ी बोली
लकीरें खींच पारे की बलाका व्योम में डोली
लिए मन नववधू का चल पड़ी वर्षा सोहागिन फिर
हिना से लाल हाथों में लजीले चाँद की थाली
दमकती दामिनी ज्यों माँग की हो ईंगुरी लाली
विभा की दर्पणी में देख अपना रूप मतवाली
फटी पौ आज यौवन की रही है गूँज हरियाली
पहन मंजीर झरनों के चली वर्षा सोहागिन फिर
सकुचती और सिमटी सद्यस्नाता सी चली आती
नए सुकुमार रंगों में किरण-सा रूप छिटकाती
अधर दाँतों तले दाबे सभी को देखती भाती
कमर में इंद्रधनुषी करधनी सौ बार बल खाती
हरी चूनर पहन कर आ रही बरसा सोहागिन फिर
Image: Terrace in the Rain in Marquayrol
Image Source: WikiArt
Artist: Henri Martin
Image in Public Domain