रुचि
- 1 August, 1951
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- 1 August, 1951
रुचि
प्रीत की दो अवस्थाएँ होती हैं। पहली अवस्था वह होती है जिसमें प्रीत पके दूध में जोरन पड़े दही की तरह जमते-जमते जम जाता है। दूसरी अवस्था वह होती है जिसमें प्रीत कच्चे, बासी दूध की तरह फटता-फटता फट जाता है। परिस्थिति के अनुकूल गर्मी जमाती है, परिस्थिति के प्रतिकूल गर्मी फाड़ देती है। बहरहाल, दोनों अवस्थाएँ कुछ काल की ही होती हैं। जीवन के हर पहलू में उनका अस्तित्व नहीं होता। जवानी आती है, भाग जाती है। प्रीत का नशा चढ़ता है, उतर जाता है। तब आदमी जीवन की गाड़ी में बैठा हुआ उसके झरोखों से झाँककर देखा करता है पथ के किनारे के सीसम के ठूँठ पेड़, आम की हरी-भरी मंजरियों से लदी टहनियाँ, सुकुमार पौधे और उखड़ गए पेड़; कौवों की ‘काँव-काँव’, कोयल की ‘कुहू-कुहू’ सुना करता है। वह बन जाता है दर्शक! हाय, यह सृष्टि की कैसी निष्ठुर लीला है! कैसा विपक्षी विधान है कि वह चाह कर भी मध्य वयस के बाद अभिनेता नहीं, दर्शक बनकर रह जाता है।
मुहम्मद ने सोफे पर बैठे-बैठे कहा–“उफ औरत की जात कैसी बेवफा होती है” और हताश उसने दाँत पीस लिया। वह सात बजे से बैठा मुमताज, अपनी बीवी का इंतजार कर रहा था। लेकिन नौ बजने पर आया, अभी तक वह नहीं आई थी। रात के नौ बजे तक घर के बाहर थी जवान औरत? जब वह आई, मुहम्मद खर्राटा ले रहा था। वह आई, धीरे से उसके पास की कुर्सी पर बैठ गई और तीन बजे तक वैसी ही बैठी रही बुत बनी। शहर का घंटा बारह बार बजा, एक बार, दो बार और अब तीसरी बार भी बज कर चुप हो गया लेकिन मुमताज वैसी ही निस्पंद थी। वह झड़े हुए फूल को चुनना चाह रही थी। किंतु वह तो झड़ चुका था। बच रहा था काँटा, जो चुभ चुभ जाता था।
रात के आखिरी पहर में मुहम्मद बड़बड़ाया ‘बेवफा बद…।’ मुमताज ने जल्दी से उसके कंधे को छूकर कहा–‘उठो, चलो सोने’! उसकी तंद्रा टूट चुकी थी। वह अकचका कर मुहम्मद को देख रही थी–“क्या वह बेवफा है?”
मुहम्मद उठा। मुमताज के चेहरे पर बिजली की रोशनी में अच्छी तरह आँख गड़ाए रहा–“क्या यही है वह?” मुमताज ने सिर नीचे कर लिया। मुहम्मद की आँख की वह तेज अविश्वसनीय धार वह सह नहीं सकी। उसके पैर हिलने लगे। वह धम से पलंग पर गिर गई और करवट लेकर पड़ी रही। मुहम्मद भी नंगी तलवार की तरह पड़ा था। मुमताज ने डरते हुए अपनी गुलाबी बाँह मुहम्मद की गर्दन में डाल कर कहा–“तुम बेकार खफा होते हो। मैं जरा सलीमा के घर चली गई थी।”
उसने सफाई दी थी सच्चाई के साथ। लेकिन ठीक उसी वख्त किसी ने उसे दुत्कार दिया–“तुम भी किस बूढ़े की खुशामद में पड़ी रहती हो, जो तुम्हारा तनिक भी ख्याल नहीं रखता।” मुमताज ने कान पर हाथ रख लिया और कहा, “तौबा”। किंतु वहाँ कान के पास “तौबा” सुनने को कौन बैठा था? था वह बहुत गहरे में छिपा बैठा सुरक्षित दुश्मन जिससे लाख तौबा करके भी मुमताज का गला छूटना मुश्किल था। वह बाकी रात करवट बदलती रही। मुहम्मद खुर्राटे भरता रहा। प्रात:काल मुमताज ने ग्लास उठा कर दाई के सिर पर दे न मारा यही कम किया, नौकरों से बिगड़ती रही और मुहम्मद से जाकर सीधे ही पूछ बैठी–“जब तुम्हें अपनी बेटियों से ही इतनी सारी मुहब्बत थी तब इन बातों की क्या जरूरत थी?” मुहम्मद उसका मुँह देख रहा था। वह बिलख-बिलख कर रो रही थी।पीछे मुहम्मद ने उठ कर उसका आलिंगन किया, चुंबन किया और अंदाज लेता रहा–अब इसमें कितना नशा बाकी है। किंतु वहाँ कुछ भी नहीं था। नशा उतर चुका था, उतर चुका था! नशे की हल्की खुमारी भी! बच रहा था उसके बाद का रूखापन और अकड़। उसने तत्काल छोड़ दिया और, जैसे लगा धूल झाड़ रहा हो, कहा–“तुम नित नया तमाशा करती हो। क्या करूँ, लड़कियों को कहाँ फेंक दूँ?”
इतने में मुहम्मद की तीसरी बेटी सलीमा दौड़ती हुई आई और गले में बाँह डालकर झूलती हुई बोली–“अब्बा, आज वह सुनहरी घड़ी ले दोगे न?” मुहम्मद ने उस लड़की की तरह मुँह बनाकर कहा–“हाँ जरूर”! जो अपने माता-पिता से दुत्कारा जाकर दूसरों की गोदी में चढ़ बैठता है और यह दिखाने की चेष्टा करता है कि उनके प्यार के बिना भी उसका काम चल जाएगा, मुहम्मद उस पराए गोद-चढ़े बच्चे की तरह मुमताज़ को कनखियों से देख रहा था और उसके रुदन भरे मुँह को देखकर आसुरी तृप्ति से हो रही थी उसे। हाँ, मनुष्य जिसे प्यार करता है उसे ही जंगली जानवर की तरह नोच कर खाने में उसे तनिक भी संकोच नहीं लगता!
जीवन के किसी काल में जब विष का गुटका आ मिलता है, तो वह सारी विचारधारा को विषमय कर देता है। इसे मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले सहज ही समझ सकते हैं कि मनुष्य के जीवन पर उसका अधिक प्रभाव होता है जो जीवन के प्रारंभ में घट चुका होता है। मुहम्मद सुंदर सजीला युवक था। उसका मन-प्राण निष्कलुष था। लेकिन उसके भाग्य में सुख नाम की चीज नहीं थी। एक युवक के लिए मनचाही प्रेयसी बहुत सांत्वना देने वाली वस्तु होती है। मुहम्मद के जीवन में वह वस्तु नहीं जुटी। मुहम्मद की बीवी सुंदरी थी, विदुषी न थी; सहृदय थी, चरित्रवान न थी। उसका सौंदर्य घोर वासना से लिपा-पुता, पतन की गाढ़ी कालिमा से ढक गया था, जिससे मुहम्मद घृणा करता था। वह स्त्री मात्र पर अविश्वास करता था।
मुहम्मद लड़कियों से भी वितृष्णा का अनुभव करता था क्योंकि लड़कियाँ उसके प्रीत और प्रणय की सुफल नहीं थीं, वासना की क्षणिक पराजय थीं। वह उन्हें पालता था, इसलिए कि वे उसके किए का परिणाम थीं। वह पिता नहीं, दयालु पालक था; गृही नहीं, मुसाफिर था। मुमताज़ उसकी संपूर्ण वासना की पूर्ति बनकर आई किंतु वख्त निकल चुका था। वह उसे घायल पक्षी की तरह झोले में तड़पाना चाहता था। उसका सारा प्रयत्न मुमताज के पंख उखाड़ कर आग में झौंसने की ओर मुड़ गया।
अपने सुखों का नाश मुहम्मद अपने हाथों कर रहा था और बिचारी मुमताज़ तकिए में मुँह गाड़ कर रो रही थी। मुहम्मद वहाँ से चला गया। मुमताज़ के कान में पुन: किसी ने धीरे से कहा–“बूढ़ा भी, बेईमान भी, इसने हमारे जीवन का सत्यानाश कर दिया।” वह पलंग से उठ बैठी–“यह कौन? कौन दुशमन उसके कान में चुपके से कह दिया करता है?” “तौबा”। वह उस कमरे से भागकर मकान के ऊपरी छत पर पहुँची। वहाँ एक कोने में खड़ी होकर उसने खुले आसमान की ओर देखकर साँस लिया और युवक कपोत-कपोती का पंख मिलाना, ठोर मिलाना देखती रही निर्भाव, नि:स्पंद।
मुहम्मद दबे पाँव सीढ़ियों तक आया किंतु तुरंत मुड़ कर दाँत पीसने लगा–“नादान छोकरी, किसी के चक्कर में पड़ी है और हमें बहला रखना चाहती है”। मुमताज़ जिसमें सुन सके उतनी ऊँची आवाज में पुकारा “सलीमा, नसीमा।”
दोनों लड़कियाँ घोड़े की तरह कूदती हुई आईं और उसके दो बाजुओं से झूल गईं। उसने छत की ओर कनखियों से देखकर अधिक दुलार से कहा–“चलो, तुम्हें तुम्हारे खाला के वहाँ से घुमा लाऊँ”।
मुमताज़ ने आँखें फाड़ कर देखा, पोर्टिको से कार लड़कियों को लिए मुहम्मद के साथ जा रही है। कपोत का जोड़ा उड़ गया था। आसमान में छोटे-छोटे बादल के टुकड़े इधर-उधर भाग रहे थे। आसमान जल उठा था। उसने अपना बोझिल सिर मुंडेरे पर धर दिया। उसकी दो आँखों से मोती की लड़ियाँ टूट रही थीं।
मुमताज शरीफ घर की लड़की थी। उसका बाप किसी दरबार में नाजिर था लेकिन बहुत छोटी थी मुमताज तभी मर गया। मुमताज की माँ अपने उस शौहर की याद में चश्मे दरिया बहाती रहीं और मुमताज को पालती-पोसती रहीं। उसने अपनी इस बेटी को इंसानियत की ऊँची तालीम दी थी। मुमताज़ शरीर और मन दोनों ही से मासूम और हसीन थी। उसे देखकर सभी की आँखें ठंडी होतीं।
मुहम्मद मुमताज़ का रिश्ते में बहनोई लगता था और तब से उसके घर आता-जाता था जब से वह घाँघरा पहन कर घूमती थी। मुमताज़ जब कभी फुदक कर भाग खड़ी होती, मुहम्मद उसे पकड़ना चाहता लेकिन भय खाता था। “कहाँ रखेगा इस सुंदर खिलौने को”।
पिछले वर्ष निकाह पढ़ाई बीवी मर गई और मुहम्मद की विनती पर मुमताज़ की माता ने प्रस्ताव मान लिया। मुमताज़ को कोई एतराज़ नहीं था! यह सुन चुकी थी कि मुहम्मद बड़े बाप का बड़ा बेटा है और उसकी कविता-लेखों को वह स्वयं पढ़ती थी, सखी सहेलियों को पढ़ाती थी और मन ही मन मुग्ध हो मनाती थी–“खुदाताला, उससे मेरा रिश्ता बाँध दे”।
जब वस्तुत: खुदाताला ने मुहम्मद से उसका रिश्ता बाँध दिया तब उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी होकर आगे को निकल आईं। लाल होठ फड़कने लगे। पतला, लचीला नन्हा-सा बदन बल खा रहा था। वह मुहम्मद की कोठी की सीढ़ियों पर चढ़ती हुई आसमान को उड़ी जा रही थी। मोती के पर्दे को, मखमली फर्श को, बड़ी कोठी की सजावट को ही नहीं, सामने के बाग के फूल की तितलियों को, बुलबुलों को, रंग-बिरंगी चिड़ियों को, जलाशय और उसके बत्तकों को, सभी को वह समान रूप से कहना चाह रही थी–“मैं सब को प्यार करती हूँ! आह, मैं सभी को प्यार करती हूँ। वह जो मुझे प्यार करता है, जो इतना बड़ा है, इतना भव्य है”। सृष्टि भी मुमताज के इस एक नजर के लिए युगों से साधनारत थी।
और मुहम्मद! उसने मुमताज को गोदी में उठा लिया, आँखों से सटा लिया। उसकी समझ में नहीं आता था कि वह उसका क्या करे। मुमताज ने अपनी हल्की गुलाबी बाँह मुहम्मद के चारों तरफ लपेट कर कहा–“ऊँ-ऊँ”। मुहम्मद ने कितने चुंबन लिए उसे खुद ख्याल न रहा। पर खुशी के दिनों के चरण चंचल होते हैं।
(2)
मुमताज़ यह सुन चुकी थी कि मुहम्मद की पाँच लड़कियाँ हैं किंतु उन लड़कियों का कोई प्रभाव भी होगा मुहम्मद के व्यक्तित्व पर यह उसने अपनी कल्पना से दूर ही रखा था। वह तो उन सभी के भरण पोषण का उत्तरदायित्व मात्र अनुभव करती थी और उसमें वह उदार थी। मनुष्य उदार और दानी बनना तो छाती ठोक कर चाहता है किंतु वस्तुत: अधिकार गँवाना उसे सह्य नहीं। मुमताज़ आई थी घर की मलका बनने का खयाल लेकर। यहाँ वह थी केवल पालतू मैना जिसका उस घर में कोई स्थान नहीं था। मुहम्मद गृहस्वामी था लड़कियाँ गृहचालिका थीं। मुमताज़ बाग की गली की बुलबुल थी, सुंदर खिलौना! सौत और सौत की लड़की-लड़कियाँ कितनी दारुण हैं यह उसकी समझ में अब आई। और पाँच जवान लड़कियों का बाप भी शौहर, किसी युवा स्त्री का शौहर हो सकता है, यह नामुमकिन लगा। वह अंतत: बाप था।
मुमताज़ मुहम्मद को जी जान से अपनी ओर खींचना चाहती थी। मुहम्मद बनैले पशु की तरह छान पगहा तुड़ा कर दूर भागता जा रहा था। मुमताज़ थी युवती, मुहम्मद था युवती बेटियों का प्रौढ़ बाप। प्रवृत्तियों की प्रतिकूलता के चपेट में पड़कर दोनों ही अपना अस्तित्व खोने लगे। मुमताज़ सोचती–“किस आदमी के पाले पड़ी”। कोशिश करके वह लड़कियों में घुल-मिल जाना चाहती, उनकी माँ बनने को भी आतुर होती ताकि मुहम्मद उससे खुश रहे। किंतु अच्छा व्यवहार करने जाकर कटु कर आती; प्यार करने जा कर विद्वेष लेकर लौटती; न चाहते हुए भी कुत्सा सोचा करती और चीखती–“या अल्लाह मेरा दामन पाक रख”! थोड़ी देर उसके मन में स्वर्गीय भावना आती किंतु वह टिकती नहीं। पुन: कोई उसके अंत:करण का एक बकोटा मांस नोच लेता और वह इधर-उधर ताका करती–“हाय वह स्त्री होकर भी यह सब कुछ ठीक-ठाक क्यों नहीं कर लेती?”
वे स्त्रियाँ भी मुमताज की ऐसी ही होंगी जो कई-कई सौतों के साथ रहती थीं। एक औरत दो मर्द नहीं रखती, रख नहीं सकती, लेकिन एक मर्द तो कई-कई औरतों को रखता आया है, रखता जा रहा है और औरतें मजे से रहती आई हैं, रहती जा रही हैं। वह औरत भी किस काम की जो शौहर के कुत्ते-बिल्लियों तक को सिर आँखों पर न रखे! स्त्री समर्थ है। वह अस्वाभाविक को स्वाभाविक कर सकती है, करती आई है। वही एक ऐसी है कि इन अपने बराबर की युवतियों को बेटी करके मुहम्मद की बेटियों की माँ बनकर नहीं मानती। हाय! यह कैसी आचारहीनता है! वह अपने आप से डरने लगी। सदा सिर झुकाए अपने को कोसा करती, सभी के खा लेने पर खाती, सभी की हँसी देखकर हँसती।
और मुहम्मद! उसने अपना लोहे का कवच संभाला। उसने समझ लिया कि सुंदर और जवान औरत को कभी ‘शह’ नहीं देनी चाहिए और इसीलिए जब कभी तरकस से छूटे तीर की तरह मुमताज़ उसके तनमन में समा जाना चाहती थी, वह दूर ही से काट गिराता। वह उसे नफ़रत की निगाह से देखता। उसे अब इसका शुभा नहीं रह गया था कि उमर में कई वर्ष छोटी हसीन-नाज़नी उसे ठगना चाहती है। यह सारा लाड़-प्यार उसे बहलाने के लिए दिखाया जाता है! प्यार तो वह क्या करेगी? चार बच्चों के बाप से ये नाज़ नखरे?
वह मुमताज़ को घूर-घूर कर देखता–“अब इसके बाद?” और ऊब जाता। मुहम्मद चाहता मुमताज़ न रहे; उसका निशान न रहे। यद्यपि इस बात को वह खुद अपने सामने मानने को भी तैयार नहीं था। लेकिन इतना तो वह प्रगट कर देता कि उसके जीवन में मुमताज़ की कोई जरूरत नहीं है। वह उसे ब्याह लाया, यह क्षणिक बात थी। सत्य तो यह है कि उसकी लड़कियाँ ही उसे प्यारी हैं, बहुत प्यारी? मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों के कुचक्र में आप ही बर्बाद होता है।
मुमताज़ का रूप और यौवन उसके भयानक कुढ़न की चीज़ बन गई क्योंकि उसका अंतर अपने मन को उसका उचित अधिकारी नहीं समझता था। अत: वह उसका पद-पद पर तिरस्कार करता। वह उसे यह बखूबी समझा देना चाहता था–“रूप और यौवन दो कौड़ी की चीज़ है। मगर तुम उसी से मत्त होकर मेरे राजमहल की हंसिनी बन कर आई हो। मैं जानता हूँ, खूब जानता हूँ कि तुम्हारी आँख मेरे मोतियों से भरे मानसरोवर पर हैं”। मुमताज इस निगाह को समझती। उसका अपना शरीर ही भार हो उठता। मुहम्मद का राजमहल काले दैत्य की तरह डराता उसको और मोतियों से भरे मानसरोवर चील्ह-कौवों का बसेरा लगता। वह हाँफ कर भागती। तब मुहम्मद उद्विग्न होता, जलभुन जाता–“इस मायाविनी ने मेरे जीवन का सत्यानाश कर दिया। औरत की जात, तौबा”। उसे बुलवाता, गले लगाता, चाटता और उस नशेबाज की तरह कुढ़ता रहता जो सामने लाल शराब रखकर सोचता है–“पी कर मरूँगा, नहीं पी कर पागल बना बैठा हूँ”।
मुमताज तेज बुद्धि की स्त्री थी, लेकिन इस दारुण अवस्था का हल वह कुछ भी नहीं ढूँढ़ पाती थी। मुहम्मद के इस मानसिक रोग का कोई उपचार उससे नहीं हो पाता। वह उसके गले में बाँह डाले घंटों पड़ी रहती। “मैं तुम्हारी हूँ, बिल्कुल तुम्हारी। तुम जैसी ब्याह लाए थे, मैं अब भी वैसी ही हूँ। एक बार मुझ पर दिल खोल कर प्यार बरसाओ, विश्वास करो। आह, मेरे जीवन की बेल सूखी जा रही है, मुरझा रही है, अब चेतो”। इसके उत्तर में मुहम्मद उसका हाथ गले से उतार देता, अंक छुड़ा लेता और करवट बदल कर सो जाता। गोया दुनिया में कोई दुरुस्त बात है, तो सोना, बस खर्राटे की नींद सोना।
जब कोई लेख, कोई कविता मुहम्मद की मशहूर होती, मुमताज खुशी जाहिर करती। वह मुहम्मद की खुशी में बराबर की हकदार होना चाहती थी और यह प्रगट करती थी कि उसके शौहर की प्रसिद्धि उसकी अपनी है, वह उससे जुदा नहीं। लेकिन मुहम्मद इससे जल-भुन जाता। वह अपनी प्रसिद्धि को घोल कर पी जाना चाहता था, दरिद्र की तरह अकेला उससे चिपका रहता था। मुमताज की खुशी उसे तनिक भी नहीं सुहाती। वह यह चाहता था कि मुमताज अच्छी तरह समझ ले कि उसकी तरह नाचीज़ छोकरी के बूते की यह विद्याबुद्धि की बातें नहीं हैं और न उससे कोई सहारा ही मिलता है। मुमताज की मुँह की हँसी घने विषाद से ढक जाती और वह शून्य आकाश की ओर मुँह करके देखती–पृथ्वी के तारे क्यों टूटते रहते हैं जबकि आकाश बराबर सजा रहता है?
मुमताज की कोई अपनी संतान नहीं थी और मुहम्मद की लड़कियाँ अपनी माता से दूर रह कर, मातृ स्नेह से वंचित हो हृदय हीन, भावना शून्य हो गई थीं। विमाता को प्यार करना तो वे जानती ही नहीं थी, मुँह चिढ़ाने से भी बाज नहीं आती थीं। मुहम्मद ने लड़कियों को उनकी माता से दूर रख कर सदाचारिणी बनाना चाहा था लेकिन वे बन गई थीं दो सींघों वाला जानवर। जो बच्चे मातृ-स्नेह से वंचित होते हैं वे बचपन से ही जीवित रहने के संपूर्ण साधनों पर पूर्ण अधिकार करना सीख जाते हैं और वयस्क होते न होते स्वार्थी बन जाते हैं। उनके जीवन में मोह-ममता से बड़ी वस्तु स्वार्थ होती है। मुहम्मद की लड़कियों का बड़ा स्वार्थ था मुहम्मद का धन। उस धन की हिस्सेदार बन कर आई मुमताज। अत: वे उसे सह्य नहीं कर पा रही थीं। और स्वयं मुहम्मद ढुलमुल मोती बन गया था; जिधर फाँक मिलती थी उधर ढुलक जाता था। जब वह पूरी तरह लड़कियों की ओर ढुलकता तब उसका मात्र ध्येय रह जाता मुमताज़ को पीड़ित करना। मुमताज़ पानी से निकाली गई मछली की तरह तड़पती और मनाती–“खुदाताला उसकी अपनी औलाद दे”। लेकिन जिस वक्त मुमताज मुहम्मद की याद ऊँ नींदी बैठी होती, मुहम्मद खुर्राटे भरता होता। वह पाँच बेटियों का बाप रात की ऊँ नींदी का वक्त काट चुका था। अब तो उसके खर्राटे का वक्त आ पहुँचा था। मुमताज की तीखी जवानी उसके वयस को जगाने के बजाय कुढ़ा देती थी।
ज्यादा इंतजार न करना पड़ा। मुमताज तेज़ जलने वाली शमा की तरह भक से जल गई, अब लपलपा रही थी उसकी टेम। मुमताज ने कहीं आना-जाना छोड़ दिया; किसी से मिलना-जुलना छोड़ दिया। खास तौर से वह नौजवानों से बेहद घबराने लगी। उसे वफादार बनना था। मुमताज ने बचपन में अपनी दाई से सुना था कि किसी नगर में एक भूत था, जो रात में नाचा करता था। उसकी जटा बहुत बड़ी थी और हाथ में वह मशाल लिए होता था। उसकी आँखें बैल की तरह और दाँत बनैले सूअर की तरह थे। मुमताज इस भूत से बहुत डरती थी। मारे डर के दाई की गोदी में मुँह छिपा लेती। किंतु मन ही मन मनाती–वह भूत यहाँ भी नाचे तो कितना मजा आए! नन्ही मुमताज उस दाई की आड़ से भूत का नाच देखने को आतुर हो जाती और आज युवती मुमताज, मुहम्मद की ओट में मुँह छिपाए, जिंदगी की मौज के लिए तरस रही थी।
मुहम्मद से अब उसका एक खास समझौता हो गया था क्योंकि अब कभी मुहम्मद को मुमताज़ का इंतजार करना नहीं पड़ता। वह रात-दिन के हर पल मुहम्मद की खुशी के लिए हाथ पसारे फिरती। वह जो कहे, जो करे मुमताज़ उसी में खुशी जाहिर करती, शामिल रहती। उसका जब कभी ‘जी’ मिचलाता, जब कभी लड़कियाँ ताना देतीं, मुहम्मद तनता तभी वह फीकी हँसी हँस कर सिर झुका देती। उस पर वार करने के सारे रास्ते बंद थे क्योंकि किसी बात में उसकी खुद की कोई रजामंदी रही नहीं थी। सिर्फ इस वफादारी से वह तब चूक जाती थी जब कोई नौजवान, मन-हरण नौजवान हँसता-खेलता उस गृहस्थी में शामिल होता। मुमताज का चेहरा चमक-दमक जाता। वह अहेतुक हँसती, अहेतुक बोलती, ऐसी प्रसन्नता प्रकट करती कि हँसी-खुशी के दायरे से दूर जाकर धमाके से गिरती। वहीं पर मुहम्मद की दो आँखें जल रही होतीं चिता की भयानक आग-सी।
कुर्बानी का जोश और चीज़ है, हृदय का उल्लास और। वह सूखती गई, सूख कर काँटा हो गई। उसे अपनी बीमारी का ख्याल तबतक नहीं हुआ जब तक वह कठिन यातना से तड़पने न लगी। और मुहम्मद सब देख रहा था किंतु उसे इसकी परवाह न थी। वह सोचता जिसके इश्क में मर रही है वह परवाह करे, मैं क्यों करूँ? यद्यपि उसके ढूँढ़े मुमताज़ का माशूक नज़र नहीं आता था कोई, लेकिन वह था कोई जरूर जिसकी कल्पना कर ली थी उसने और उसी के भरोसे मुमताज को आराम से तड़पने दिया, यहाँ तक कि जिस कमरे में मुमताज़ बीमार थी उसमें झाँकता तक नहीं था। मुमताज़ मनाती–या खुदा ताला एक बार उसका जी पसीजे, वह पास आकर बैठे, पूछे मुमताज़ कैसी हो? किंतु मुहम्मद दरवाज़े से ही लड़कियों से पूछ लेता, “दवा आई” और लड़कियाँ कह देतीं “हाँ”। मुमताज़ करवट बदलती, आँसुओं से भरा पीला चेहरा उस अकेले कमरे में झपके-से बुझ जाता।
एक दिन मुहम्मद को मुमताज़ के कमरे में आना पड़ा। लेकिन तब वह इंतजार नहीं कर रही थी। उसका मुँह सूख कर काँटों की तरह रूखा पड़ गया था। बहुत तेज स्निग्ध आँखें, मटमैली हो गई थीं। मुँह खुल गया था और अधर के दोनों पाट संसार भर की जल विहीन नदियों की सूखी रेत की तरह बन गए थे। मुहम्मद ने उलट-पलट कर देखा और हाथ खींच लिया, जैसे जलते तवे पर उसका हाथ पड़ गया हो। पास ही खड़ी लड़कियों के गले में हाथ डाल कर चीख उठा–“भागो, यहाँ से तुम सब दूर हटो”। वह सभी से यह निपटारा कर लेना चाहता था–यह सब कैसे हुआ? किसने किया? तुम सभी ने मिलकर यह क्या कर डाला? लेकिन नौकर ने जब कहा–“सभी कुछ तैयार है हुजूर” तो वह बिना एक शब्द बोले मुमताज़ के शव-जुलूस में शामिल हो गया। वह भी एक दर्शक था।
प्रात:काल सूर्य के उठते ही मुमताज दफनाई गई थी और अब जब सूर्य धूमिल हो डूबने लगा, लड़कियों ने कहा–“अब्बा घूमने चलोगे” तो मुहम्मद जैसा का तैसा उठकर चुपचाप गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी की खिड़की से पूरा सिर बाहर निकाल कर सामने के झरोखे को देखता रहा। यहाँ तक कि गाड़ी सड़क पर सरपट दौड़ चली किंतु मुहम्मद उस झरोखे पर ही निगाह अड़ाए रहा। किंतु वहाँ कुछ नहीं था, सावन-भादो की तरह उमड़ी वे दो आँखें न थीं, सप्तमी के चाँद की तरह धूमिल कोई आकृति नहीं थी। बिल्कुल साफ बगुले की पाँख की तरह पूरी कोठी चमक रही थी। मुहम्मद ने गाड़ी रुकवा दी और उतर गया।
रुचि को तोड़-मरोड़ कर कर्तव्य की गाड़ी खींची जा सकती है, खींची जाती है। लेकिन रुचि को दबाकर धँसाकर दिल की बस्ती हरी-भरी नहीं रखी जा सकती। शारदीया हवा की तरह वह कलेजे को कँपाती रहती है! आदमी ठिठुरा करता है और एक दिन अकड़ जाता है, जमकर बर्फ हो जाता है।
Image: Dark Young Woman Seated by a Bed
Image Source: WikiArt
Artist: Amedeo Modigliani
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