संत तुकाराम : जीवन और उपदेश

संत तुकाराम : जीवन और उपदेश

महाराष्ट्र ही क्यों, भारत का प्रत्येक व्यक्ति संत तुकाराम के नाम से परिचित है। उसके अभंग आज भी स्थानों-स्थानों में विद्वानों द्वारा गाये जाते हैं। उनको जिसने सुन लिया वही मोक्ष यश का भागी हुआ। वैसे तो जन्मधारण कौन नहीं करता, परंतु जिसने संत तुकाराम की तरह अपना जीवन अहोपुण्य कर लिया, वही सफलजीवी और महान् आदर्श है। संत तुकाबा भी इसी महान श्रेणी के योगियों और भक्तों में हो गए हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ पांडुरंग के चरणों में सौंप दिया था। उनके जीवन में कितने ही महान् दु:ख आए, परंतु विपत्तियों के आते रहने पर भी उन्होंने अपना सत्य का मार्ग नहीं त्यागा। एक बार जिसकी लगन लग गई, तो वह फिर छूट ही कैसे सकती है। दिवाला पिट गया, स्त्री की मृत्यु हो गई और माता-पिता भी परलोक चले गए, दो साल के निरंतर दुर्भिक्ष ने उनकी गृहस्थी को अपंग-सा कर दिया, परंतु उन्होंने दिन-पर-दिन ईश्वर के प्रति अटल भक्ति का ही विकास किया। “भगवान् के आने के यही लक्षण हैं, वे जिसके घर आते हैं, उसकी गृहस्थी पर प्रहार होता है।” उन्होंने ऐसा ही कहा था।

पुण्येश्वर क्षेत्र पूना के निकट देहू ग्राम में इस महान संत का जन्म विक्रमीय संवत 1665 में, तदनुसार सन् 1608 ई. को हुआ था। देहू ग्राम इंद्रियायणी नदी के तटपर आलंदी से 7 मील की दूरी पर है। उनका जन्म भगवद् सेवापरायण शूद्रकुल में हुआ था। कहते हैं कि उनके पूर्वजों में ही पांडुरंग की भक्ति के कमल का विकास हुआ था। वह शूद्रकुल में हुए तो क्या; वही कुल धन्यतम जानना चाहिए, जिसने अपने जीवन को भगवान् के चरणों की सेवा में न्यौछावर कर दिया। वह गृहस्थी तीर्थ है, जहाँ निरंतर प्रेम और हरिचर्चा की मंदाकिनी प्रवाहित रहती है। देहू में ही इनके पूर्वज वणिक-व्यवसाय करते थे, जो मोरे के नाम से जाने गए। उनके आठवें पूर्वज विश्वम्भर बाबा ने देहू में विट्ठल का मंदिर बनाया और भक्ति की महिमा चारों दिशाओं में गाई, जो आज भी उसी मनोहर रूप से विकसित होकर, जनप्राणों के आतप को शीतल करती रहती है।

संत तुकाराम तीन भाइयों में मंझले थे। इनके पिता का नाम बोल्हा बाबा था और दूसरे दो भाइयों का नाम सावजी और कान्होबा। सावजी कुछ विरक्त-से थे, अत: परिवार का पूरा उत्तरदायित्व, माता-पिता के परलोक-सिधार जाने पर, तुकाराम पर ही पड़ा। वैसे तो 13 साल के होते ही उनको अपना व्यवसाय देखना पड़ता था और उनके परिवार में कोई निर्धनता भी नहीं थी, परंतु 17 साल की आयु होते ही, सन् 1682 में उनके माता-पिता और उनकी भावज का देहांत हो गया, जिसके दूसरे साल ही उनके बड़े भाई सावजी पत्नी की मृत्यु से विरक्त होकर कहीं चले गए। अत: सारे परिवार का भार उनको ही वहन करना पड़ा। उनकी दो स्त्रियाँ थीं, रुक्माबाई और जीजाबाई।

इस प्रकार गृहस्थी पर प्रहार होने पर तुकाराम संसार की यथार्थता को जानकर, उसके भोगों से ऊब उठे। फलत: उनका व्यवसाय गिरता गया। जिन लोगों को उनका रुपया देना था, वे भी इस अवसर का अनुचित लाभ उठाते गए और कर्जदारों से रुपया उगाहने में असमर्थ होकर तुकाबा का व्यवसाय दिन-पर-दिन डूबता गया। प्रत्येक व्यवसाय में उसकी यही अवस्था रही। उनका मन तो कहीं और था, तो भला इस संसार की पूर्ति कौन करता? एक बार तो किसी व्यापारी की चालबाजी में आकर भोले संत ने पूरा धन सोने के धोखे में पीतल के टुकड़ों पर गवाँ दिया। सत्य है, संत बनने के लिए प्रकृति मनुष्य को इसी प्रकार प्रस्तुत करती है।

इसी प्रकार एक बार जब वे घर को लौट रहे थे, तो उन्हें एक अति दीन विप्र दिखलाई दिया, जो क्षुधातुर हो रहा था। सभी जीवों में अपने उपास्य को देखने वाले भक्त का कोमल-हृदय द्रवित हो गया। साक्षात् पांडुरंग को ही उन्होंने इस विप्र के रूप में देखा और जो कुछ अपने पास था, उसके समर्पण किया और खाली हाथ घर लौट आए। गृहस्थी के कार्य में तन्मय रहने पर भी वे भजनानंदी ही बने रहे। उनकी पत्नी ने चाहा कि वे किसी प्रकार व्यवसाय में सफल हों, परंतु जिसका मन एक अखिल-वैभवशाली पांडुरंग में लवलीन हो गया, उसके सामने इस क्षणिक वैभव का मूल्य ही क्या रहा? जिसे पारसमणि ही मिल गई, वह सोने की खान क्योंकर खोदेगा? जिसने एक बार अपने प्रभु के गीतों का अनिर्वचनीय आनंदाप्लावित रसपान कर लिया, वह कौन-सा मूर्ख है, जो फिर इस संसार के भोगों के विष की प्याली की आकांक्षा करेगा! दिव्यतम वीणा के राग सुनकर इस नि:सार-संसार के राग को कोई ज्ञानी पुरुष सुनना नहीं चाहता। अत: जीजाबाई के प्रयत्न सिद्ध नहीं हुए। उल्टे रहा-सहा व्यवसाय भी डूब गया।

सं. 1686-87 (सन् 1629-30) में देश को महान् दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा। तुकाराम का व्यवसाय तो नष्ट हो ही चुका था, निर्वाह का कोई साधन नहीं था। इसी दुर्भिक्ष में उनके पुत्र संताजी तथा रुक्माबाई का अन्न के बिना देहांत हो गया। अपनी स्त्री और बालक को उन्होंने अन्न के बिना परलोक जाते देखा और दिल पर पत्थर रख कर रह गए। इस अकाल के समय कर्जदारों से धन का उगाहना भी नहीं हो सकता था। अत: पांडुरंग के आशीर्वाद का द्वार निर्द्वंद्व था और तुकाराम तैयार बैठे थे।

दुर्भाग्य के अवतरण होते ही तुकाराम ने विश्वप्रपंच की यथार्थ स्थिति का बोध किया और एक दिन, जब उन्होंने निश्चय कर लिया कि संसार नश्वर है और इसके भोग और सुख भ्रम ही हैं, वैराग्य द्वारा इसका उच्छेदन करना चाहिए–वे भामगिरी के अंचलों में चले गए और ध्यान और भजन में मग्न हो गए। स्वार्थमय जगत् से उन्होंने मुख मोड़कर परमार्थ की सेवा की। कंचन और सुख को तिलांजलि दे, उन्होंने आत्म-विश्रांति की ओर प्रस्थान किया। उनको यह ध्यान नहीं रहा कि उनकी पत्नी जीजाबाई दु:ख और विषाद को प्राप्त होगी। जीजाबाई के विषय पर विचार करने का उनका अपना स्वार्थ था, परंतु जीजाबाई को भूल कर अपने आराध्य देव का विचार करने से उनके दु:खों की मुक्ति तो हो ही गई, सातों पीढ़ियाँ भी तर ही गईं–साथ-साथ असंख्य-पथ-भ्रमित विश्व के प्राणियों का जो महान् उपकार हुआ, उन्हें जो शीतल छाया मिली, उसका महात्म्य वर्णनातीत है। एक स्वार्थ को त्याग कर, महान् और फिर उससे भी महानतम स्वार्थ की सिद्धि करना मानवता के विकास का बिंदु है, जिसमें ज्योतिपुंज के रूप में संत तुकाराम और अन्यान्य संतों के लोकातीत कार्यकलाप भूले हुए पंथियों को सत्य और सुगम-मार्ग की ओर आमंत्रित करते हैं और राह पर चलने वाले यात्रियों के लिए प्रकाश की चिरंतन किरणें प्रसारित करते हैं। अत: संत तुकाराम अपनी पत्नी को असहायरूप में बिलखता त्याग कर, किसी महान् श्रेय की प्राप्ति के लिए, जिससे जनजन अनंतकल्याण हो प्रस्थित होवें तो उसमें असभ्यता और निर्दयता ही क्या है? क्या स्त्री ही तुम्हारा परिवार है? उदार चरितवंतों के लिए विश्व ही परिवार हैं, जिसके वे एक सदस्यमात्र हैं। इस विश्वात्मक-परिवार की युगानुजीवी-सेवा ही प्रत्येक महात्मा का ध्येय होता रहा है और इसी आदर्श पर हमारे देश की संत परंपरा अमर और पुरातन है।

जीजाबाई के शोक का पार ही नहीं रहा। एक तो टूटी गृहस्थी, उस पर भी यह कंगाली में आटा गीला। सारा विश्व उनके लिए शून्य हो गया। उनका विश्वोत्तर आकर्षण चला गया था। 15 दिन तक निरंतर उस साध्वी ने उनकी खोज के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया। अंत में उस शोकाकुला को उनके भामगिरी निवास का पता चला, तो वे उन्हें वहाँ से वापिस लिवा लाईं। परंतु उसने देखा कि वे पहले के तुकाराम नहीं थे। उनकी झोली तब भर चुकी थी। उनका मन निर्मल हो चुका था। उनको परमेश्वर के सगुण दर्शन हो चुके थे। उनका शरीर सूखकर काँटा-सा हो गया था, 15 दिन निर्जल और निराहार रहने के कारण–परंतु उनके तपोमय मुखमंडल का तेज विलसत्तर हो, निखर रहा था। दैवी आभा उनके सात्विक और चिरमहत्तर मुखपर नाच रही थीं। उनका हृदय शुद्ध और विरागरंजित हो चुका था। आँख खोलो तो भगवान् और आँख बंद करो तो भगवान्…यह उनकी अवस्था थी, तन्मयता उनके जीवन का प्रधान अंग बन चुकी थी। जिस प्रकार मद्य पीकर कोई व्यक्ति कुछ समय के लिए बेसुध हो जाता है, उसी प्रकार हरिनाम की माधुरी को पीकर, वे चिरंतन काल के लिए अनंत-समाहितचितत्व को प्राप्त कर चुके थे। जिस प्रकार रक्त का संचार प्रत्येक मानव की धमनियों में होता रहता है, उसी प्रकार भगवान् की अनंत-चेतना उनके अंग-प्रत्यंग में व्याप्त हो गई थी।

तात्पर्य यह कि उनकी जीवनानुभूति का परिवर्तन हो गया। अत: उन्होंने घर आते ही धन संबंधी बहियाँ और लेन-देन विषयक सभी दस्तावेजों की एक गठरी बनाई और उसे इंद्रियायणी में विलीन कर दिया। इसके उपरांत उनके आगे जो विशाल कार्य था, वह था अपने 8वें पूर्वज के बनाए श्री विट्ठल मंदिर का जीर्णोद्धार करना। परंतु यह तो उनके बस के बाहर की बात थी। जिसके लिए रात के खाने का जुगाड़ न हो, वह कैसे मंदिर का जीर्णोद्धार कर सकता है? परंतु यह केवल लोकोक्ति ही है। संत और महात्मा इन सबके परे होते हैं। संत तुकाराम ने भी मंदिर की टूटी दीवालों को अपने शरीर का पसीना बहाकर उठाना प्रारंभ कर दिया। वे कला के दृष्टिकोण से संभवत: सुंदर और समान न हों, परंतु उन दीवारों के मसाले में आत्म-तन्मयता और विशुद्ध-प्रेम का इतिहास अंकित था, जिसकी प्रतिमूर्ति तुकोबा थे। अपने हाथों ही उन्होंने मंदिर को यथाशक्ति सुंदर किया और पूर्ण किया और पूजा-उपचार का श्रीगणेश किया।

भक्ति-साधना के आदर्श को नित्य यशस्वी बनाते हुए, तुकाराम ने गुरु महाराज के दर्शन और उपदेश प्राप्त किए। गुरु उपदेश बिना सत्यसाधन नहीं होता, अत: किसी भी कोटि का गुरु क्यों न हो, उपदेश अवश्य श्रवण करे! इसमें जीव का कल्याण है। महाराज को भी गुरु-शिष्य परंपरा को जीवित रखने के उद्देश्य से गुरु के दर्शन हुए और उपदेश भी मिला। ‘रामकृष्णहरि’ का परमपवित्र मंत्र उनको मिला और उनका जीवन धन्य हो गया। स्वयं महाराज ने कहा है–“गुरुराज ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिए, जबकि इंद्रियायणी स्नान के लिए जा रहा था–उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और माधशुक्ल दशमी के गुरुवार को मुझे रामकृष्णहरि मंत्र दिया।” इस प्रकार ईश्वर दर्शन प्राप्त संत ने भी लोक की विमल-परंपरा के गुरु-शिष्य रूप को सजीव रखते हुए, अपने जीवन के 24वें साल, माघ शुक्ल 10 गुरुवार, सं. 1689 तदनुसार जनवरी सन् 1631 को गुरु के दर्शन पाए और मंत्रोपदेश ग्रहण किया।

भगवान् की अथक-कृपा तो थी ही। हृदय तो अनंत-सौंदर्य-गुण-कल्याण के प्रतिष्ठाता, विश्व-नायक के चरणों में लवलीन था ही। भगवान् के सत्संकल्प से उनमें कवित्व-शक्ति का संचार हुआ और अभंग भगवती भागीरथी की युगांतरीय-प्रवाहिणी की नाई दिगंतोज्ज्वल होते गए। स्वयं श्री नामदेव और पांडुरंग ने स्वप्न में आकर उनको दर्शन दिया और यह कहा कि वे शतकोटि-अभंगों की संख्या को पूर्ण करें, जिसको स्वयं नामदेव पूर्ण नहीं कर पाए। अत: कवित्व-शक्ति का विकास हुआ और वाणी ने ईश्वर-महिमा के सुंदर-सुंदर गीत गाने प्रारंभ कर दिए, उन्हीं गीतों को गा-गाकर आज महाराष्ट्र ही नहीं, भारत का प्रत्येक भक्त-नागरिक आनंद-सिंधु में तन्मय हो जाता है। लगभग 500 संवत् बीता चाहते हैं, परंतु उन गीतों में नित्य जीवन की मधुरता आती जा रही है, नित्य-नवीन-रस आनंद और लालित्य आता जा रहा है…कोटि-कोटि कंठ जिनको गा रहे हैं।

ऐसे महापुरुषों की सौभाग्यदायिनी कीर्ति के विस्तार में देर ही कितनी लगती है। लोग उनके पास दौड़े आते थे और अपने संतप्त-जीवन की शांति के उपाय का अवलंबन करते थे और उनके साथ भजन में आनंद-विभोर हो जाते थे। विट्ठल के सामने जाति-पाँति का भेदभाव नहीं था! सभी का एक ही भक्ति-समन्वित-हृदय था और एक ही आंतरिक-भावना थी। परंतु बहुधा यह देखा गया है, ऐसे संतों के जीवन को प्रकाशित करने के लिए कुछ विशेष-प्रकार के पुरुषों का अवतरण होता है। श्री राम की कीर्तिगाथा को प्रोज्ज्वल बनाने के लिए रावण भी तो निमित ही था। कंसादि असुरों के कारण ही भगवान् श्रीकृष्ण की विभुता प्रकाशित हुई। उसी प्रकार किसी भी महान् पुरुष के पास, जहाँ भक्त और प्रेमी जनता का समागम होता है, वहाँ कुछ ऐसे दुष्ट व्यक्तियों का प्रादुर्भाव होता है, जो उस महात्मा को कसौटी पर कसते हुए, उसकी वर्चस्वतेजसमुज्ज्वला-कीर्ति की यशस्विनी को उत्तुंग मस्तका बनाते हैं। ऐसा क्यों होता है–अथवा यह परंपरा ही क्यों है? इसका कोई उत्तर न भी हो तो यह अवश्य जानना चाहिए कि विश्व के जीवों को धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य, पाप और पुण्य, सदाचार और दुराचार, अंधकार और प्रकाश, मृत्यु और अमरजीवन तथा यथाविध सभी द्वंद्वों का समुचित परिचय देने के उद्देश्य से यह आवश्यकीय ही रहता है कि जनता में अविकसित मन के अनुसार, उसको किस प्रकार से जिस पारस्परिक-भेद का परिचय दिया जावे कि वे वास्तविकता को जान पाएं और पत्थर को सोने के भ्रम में न पूजने लगें। अत: दुष्ट और महान् पुरुष के दो रूपों में दो पृथक्-विधांतर कर्मों का दिग्दर्शन करा कर, हमारे समक्ष यह निश्चित किया जा सकता है, कि अमुक व्यक्ति का कर्म सत्यपक्षीय था, क्योंकि उसका परिणाम इस-इस प्रकार अच्छा हुआ और अमुक व्यक्ति का कर्म अधर्मपक्षीय था, क्योंकि उसका परिणाम अत्यंत भयंकर और हृदयद्रावक हुआ। अत: हम जान पाते हैं कि कौन-सा कर्म ग्रहण करने योग्य है और कौन-सा कर्म त्याज्य है। विपक्षी का दिग्दर्शन करा कर किसी भी कार्य के महत्त्व को प्रदर्शित कराया जा सकता है।

महाराज तुका के जीवन में भी इसी प्रकार के कई अवसर आए, जहाँ उनकी कीर्ति को देखकर कुछ लोगों को जलन और अंतर-वेदना होने लगी। दुर्जन दूसरे के यश को सहन नहीं कर सकते और वे उसके विनाश और ह्रास की चेष्टा करते हैं। यही अवस्था तुकाराम के साथ हुई। रामेश्वर शास्त्री नामक एक तत्कालीन ब्राह्मण विद्वान् की आँखों में उनकी कीर्ति काँटा बन खटकने लगी। उसने तुकाराम को शूद्र कहकर, यह दोषारोपण किया कि वह अब्राह्मण होने के नाते वैदिक-सिद्धांतों को उपदिष्ट करने का अधिकार नहीं रखता है। शूद्र यदि अपने कुत्सित-जीवन में वैदिक-सिद्धांतों का उपदेश करता है, तो वह उनकी मर्यादा का अपहनन करता है, ऐसा तर्क उस अज्ञानी ब्राह्मण का था। उसे संभवत: यह भ्रांति हो गई कि क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र और स्त्री–सभी परमगति को प्राप्त करने का समान अधिकार रखते हैं। अत: तुकाराम को विवश किया गया कि वह अभंगों की रचना को त्याग दे। और यह भी कहा गया कि जो रचनाएँ अभी तक उन्होंने प्रस्तुत की हैं, वे सभी नदी में समाहित कर दी जाँए। तुकाराम को दंभ का लेश भी नहीं था। हरिभक्त की यही तो पहचान है, कि वे इस शरीर की महत्ता का दंभ नहीं रखते। वे शूद्र होने पर भी आत्मा निष्ठवृत्ति का अनुचित लाभ नहीं उठाते और न ब्राह्मणत्व का दंभ ही उन्हें संस्पृष्ट कर पाता है। निरहंकारिता हरिभक्तों का सर्वप्रथम लक्षण है। अत: ब्राह्मण की आज्ञा को शिरोधार्य समझकर, उन्होंने अपने अभंगों की लिपियों को इंद्रियायणी को अर्पण कर दिया। उनका विश्वास था कि अक्षरों से माथापच्ची करने से क्या। पंढरी के महाराज का स्मरण ही सब शास्त्रों का सार और सब वेदों का रहस्य है। शास्त्र-पांडित्य का अहंकार आडंबर ही है। अत: ऐसे निर्द्वंद्व महात्माओं के लिए अभंगों की ही हस्ती क्या थी। उनको नामदेव की आज्ञा हुई, अत: उन्होंने अपनी कवित्व स्फूर्ति का विकास और उचित उपयोग किया। यदि भगवान की इच्छा तदनुकूल न हो, तो उनको विरोध ही क्यों करना? आज्ञा हुई सो पालने हो गई और अब भी रामेश्वर तथा अन्य ब्राह्मणों के रूप में स्वयं भगवान् ही उन्हें आदेश देते हुए प्रतीत हुए तो उनको आपत्ति ही क्यों होनी थी। भगवान् तो सभी रूपों में हैं न? और रही अभंगों की महत्ता–परमपिता भगवान् की विशाल-सृष्टि में उनका स्थान ही कहाँ था? और सच बात तो यह कि वे न तो अभंगों के लिए हुए और न परोपदेश के लिए ही। उनका जो आत्मिक-आदर्श था, वह तो और भी विशालतम था। गंगा सागर से मिलने जाती है, तो मार्ग के क्षेत्रों को और जनपद वासियों को आनंद-मंगल का दान करती हुई जाती है, परंतु उसका चरम उद्देश्य सागर में तन्मय हो जाना ही है, उस विशाल-रूप में एकात्म हो जाना ही है। इसी प्रकार महात्मागण भी इस संसार में आकर, जब आत्मा-सिंधु की ओर अग्रसर होते हैं, तो उनकी शीतल और सुखद छाया के नीचे सभी प्राणियों को सुख और शांति का अनुभव होता है और वे उसके नीचे जहाँ तक संभव हो, अपनी अविताप-विदग्धता को शीतल करते हैं और इस भव-मरु की थकान मिटाते हैं। परंतु महात्माओं का वह प्रयास निरंतर आत्मनिलय की ओर होता है, चाहे विश्व उनकी परवाह करे या न करे। यदि गंगा को लोग तिरस्कृत करने लगें और उसकी परवाह न करें तो क्या उसकी निरंतरता में विकार आ सकता है? इसी प्रकार महाराज तुकाराम को भी इस घटना पर दु:ख नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने परम-भागवत-धर्म की ध्वजा को उत्तुंग तरंगिणी बनाना था।

परंतु उपरोक्त घटना के 13वें दिन उनके एक भक्त के रूप में भगवान् ने उनको यह आदेश दिया कि उनकी बहियाँ नदी के किनारे तैर रही हैं और उनको उठा लिया जाए। उनके लिए यह तो भगवान का आदेश था। वे अपनी बहियों को आश्चर्यजनक रीति से सुरक्षित और जीवित जान, ईश्वर की इस असीम कृपा का स्पष्ट-अनुभव कर आनंद विभोर हो उठे। आज उनको ही क्या, सभी को ईश्वर-कृपा का प्रत्यक्ष-प्रमाण मिल चुका था। परंतु उन्होंने इतना अवश्य किया कि पुन: किसी अभंग की रचना नहीं की–यही तो उन ब्राह्मणों की आज्ञा थी।

इस घटना के कुछ ही दिनों के अनंतर तत्कथित रामेश्वर शास्त्री बाघोली गाँव से होकर जा रहा था, तो अंगदशाह नामक एक मुस्लिम-फकीर के गाँव में एक सुंदर जलाशय को देखकर, उसने उसमें स्नान करना प्रारंभ कर दिया। अंगदशाह को यह जानकर अति क्रोध हुआ कि कोई विदेशी उसके जलाशय को दूषित कर चुका है। तुरंत उसने श्राप दे दिया कि उसके (रामेश्वर के) शरीर में जलन होने लगे, क्योंकि उसने ब्राह्मणत्व के अहंकार में प्रविष्ट हो, उस जलाशय को दूषित किया था। शारीरिक वेदना से अत्यंत व्याकुल हो, रामेश्वर आलंदी पहुँचा और वहाँ संत ज्ञानेश्वर महाराज की समाधि के पास बैठकर प्रार्थना करने लगा। उसी रात आलंदी के संत ने उसको स्वप्न में यह आदेश दिया कि वह तुकाराम के पास जाकर क्षमा-याचना करे और यह आश्वासन भी दिया कि वह तुकाराम महाराज की कृपा से वह इस दु:ख से मुक्ति पा सकता है।

तुकाराम के मन में उस ब्राह्मण के प्रति कोई मनोमालिन्य नहीं था। संतों में यही विशेषता होती है, वे क्या पशु, क्या पक्षी, क्या पंचमवर्ण, क्या महाराजा–सभी के साथ समदर्शिता का व्यवहार करते हैं। समस्त चराचर में उनके लिए उनके इष्टदेव ही व्याप्त हैं, तब वे किस प्रकार और किसको अनात्मीय जानें, किसको और कैसे दु:ख देने का विचार करें। विप्रवर रामेश्वर के प्रति भी उनका यही व्यवहार रहा। अत्यंत प्रेमान्वित हो उन्होंने उनको सांत्वना दी, क्योंकि वहाँ क्षमा का कोई प्रश्न ही नहीं था। वेदनाकुल रामेश्वर ने उनकी सांत्वनापूर्ण वाणी में अपनी मुक्ति को अंतर्हित पाया और आजीवन उनकी सेवा का व्रत धारण किया।

नाम और यश का अनुचित लाभ किसी भी संत ने नहीं उठाया। उन्होंने अपने लौकिक-सुखों के लिए कभी भी भक्ति की परीक्षा नहीं की। हाँ, धर्म की रक्षा के लिए, पतितों के उद्धार के लिए, ईश्वर धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने समय-समय पर भगवान् का आह्वान अवश्य किया। इसी प्रकार तुकाराम का यह भी दिन दूना और रात चौगुना, निर्मल-चंद्र की नाई विकसित होता जा रहा था, परंतु उनकी पारिवारिक आर्थिक स्थिति सोचनीय ही थी। सारे परिवार का उत्तरदायित्व उस आदर्श रमणी जीजाबाई पर ही था। तुकाराम तो भामागिरि की मालाओं में सदा ध्यानस्थ रहते थे। बेचारी जीजाबाई को उन्हें भोजन कराने के लिए खोजना पड़ता था।

उनके भक्तों ने एक बार विचार किया कि तुकाराम को गाँव के खेतों की रखवाली का भार दिया जाए तो उसके परिवार के भरण-पोषण के लिए अन्न उगाह कर दिया जा सकता है। तुकाराम को उनके विचार अत्यंत प्रियकर प्रतीत हुए। सोचा कि आनंद से एकांत में भजन कर सकेंगे और आनंद से प्रकृति के विशाल लहलहाते खेतों में उनकी महिमा के गीतों में समाधिस्थ रह पाएँगे। तद्निश्चय के अनुसार तुकाराम खेतों की रखवाली के लिए गए, परंतु अन्न को नष्ट करने वाले पक्षियों को भगाना तो दूर रहा, स्वयं अपनी सुध-बुध भी उन्हें नहीं रहती थी। गाँव वालों को उनकी इस लापरवाही का पता चला, तो वे अत्यंत रुष्ट हुए और तुकाराम से कहा कि उसे ही इस हानि की, उत्तरदायी बनने के नाते, पूर्ति करनी होगी। यह निश्चय किया गया कि इस साल जितना अनाज कम हो, उसकी पूर्ति तुकाराम किसी न किसी प्रकार करे। परंतु जब फसल काट कर खलिहानों में भरी गई तो गाँव वालों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। क्योंकि इस साल तुकाराम की लापरवाही के बावजूद इतना अधिक अन्न उत्पन्न हुआ कि खलिहानों ने जवाब दे दिया। गाँव वालों को तुकाराम के प्रति किए गए अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और जितना अधिक अन्न हुआ था, वह सब महाराज के घर भेज दिया गया, जिसको पाकर महाराज के आनंद का पारावार नहीं रहा, क्योंकि दीन और दु:खियों को अन्नदान करने का यह अवसर भगवान् का आकस्मिक विधान ही था।

तत्कालीन महाराष्ट्राधिपति शिवाजी के कानों में संत तुकाराम की यशोगाथा का प्रवेश हुआ, तो उन्होंने अत्यंत मूल्यवान् आभरण उनको उपहार भेजा। परंतु तुकाराम तो नामधन के धनी थे। “हमारा वैभव तो हमारा पांडुरंग है, जिसके हम दासानुदास हैं। यही हमारी पैत्रक अक्षय संपत्ति है।” यही उनका सिद्धांत था। राजवैभव को ठुकरा कर ही तो उन्होंने यह त्याग-विराग का वेष धारण किया था। तब फिर क्यों माया को गले लगाएँ! “हम संतों के समान दरिद्रों के लिए इस राजवैभव का क्या करना?” कहते हैं कि महाराज शिवाजी इस व्यवहार से इतने प्रभावित हुए कि वे स्वयं उनके दर्शनों के लिए आए। तुकाराम के भजनों को सुनकर सहसा ही उनके मन में राज्य-विराग का विचार आया। यह जानकर कि महाराज शिवाजी को राज्यविराग हो रहा है, हमारे संत ने उनको राज्य धर्म का उपदेश दिया। इस प्रकार शिवाजी सदृश नरकेशरी को संत-शिरोमणी-तुकाराम के आशीर्वाद का अवसर प्राप्त हुआ।

महाराज के जीवन का एक-एक क्षण भी महान् और अनुकरणीय है। उन्होंने क्या-क्या नहीं किया। उनके प्रेम के वशीभूत होकर मृत-जीवों में भी जीवन का पुन: संचार हो जाता था और कह नहीं सकते कि कितने सहस्र जीवों का इस भवसागर के तापों से उन्होंने उद्धार किया। भागवतधर्म की ज्योति को शाश्वत बनाते हुए, उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पल को आत्म-बलिदान की कसौटी पर कसा। ऐसे पुरुष शूद्र हुए, तो क्या हुआ। “वह कुल पवित्र है, वह देश धन्य है, जहाँ हरिगुण गायक संत जन्म लेते हैं।” स्वयं महाराज तुकाराम भी इसी बात को कह गए कि “मैं शूद्र हुआ सो अच्छा ही हुआ, अन्यथा मैं दंभ से मारा जाता।” उनका प्रेम महान कोटि का था। अज्ञानी-जनता के लिए उन्होंने सगुण-भक्ति का ही प्रचार किया और भक्ति को मुक्ति का सुगम मार्ग निदर्शित किया। योगाभ्यास की योग्यता सभी में तो नहीं होती है और सभी योग की दुरूह प्रणाली को जानने की क्षमता भी तो नहीं रखते। परंतु भगवान् के चरणों में चित्तवृत्ति को अचल रखना और उनके अक्षय वरदान को प्राप्त करना सभी के लिए आसान और सुगम है। यही उनका सिद्धांत और उपदेश था।

उनके अभंगों में यही प्रतिध्वनि मिलती है कि भक्ति-पंथ अत्यंत सुलभ हैं। वह पाप-पुण्य का बल हर लेता है और आवागमन के चक्र को लुप्त कर देता है। “रामकृष्णहरि ही उत्तम मंत्र है। जप करो, अनुष्ठान करो और संतों के मार्ग का तदनुसरण करो। यही परमपद की प्राप्ति का परमोपाय है।”

महाराज तुकाराम इस नश्वर लोक को त्याग कर, चैत्र कृष्ण 2 को सं. 1706 में, 41 बसंतों को लहराते देखकर, शनिवार के दिन सूर्योदय के अनंतर, परात्परलोक में प्रयाण तत्पर हुए। उनका जीवन आज भी हमारे लिए एक प्रेरणा है, उनका एक-एक शब्द हमारे लिए श्रुतिवाक्य है। निरक्षर होने पर भी उन्होंने कोटि-हृदयों से परमात्म-वाणी के उद्गार निकाल दिए हैं और वातावरण को ईश्वरभक्तिमय कर दिया है। उनका जीवन हमारे लिए कितनी बड़ी प्रेरणा है, हम कह नहीं सकते। जीवन के कष्टों की भी परवाह न कर उन्होंने अपने इष्टदेव का साक्षात्कार किया। अपने व्यवसाय को ठुकराया गृहस्थी के दीपक को मंदतम होते देखा, अपने जीवन को भवसंताप से विदग्ध भी हो जाने दिया…परंतु किसी भी अवस्था में अपने परमपिता का आसरा, उनका स्मरण नहीं त्यागा। तभी तो आज उनकी विमल काया, उनकी अमर-वाणी, उनका उपदेश, उनका मंत्र, संसार के क्लेशों से जर्जर हुए, हम प्राणियों के लिए अमृत के समान शीतल और सुखदायक हो रहा है। उनके आत्मसमर्पण के उद्गार सुनकर किसका हृदय तरंगति नहीं होगा…“पूर्वपरंपरा से प्राप्त पैतृक-संपत्ति, हे पांडुरंग तेरी ही चरण सेवा है। उपवास और पारण ही मेरे लिए तेरे मंदिर-द्वार हैं। इसी के भोग मात्र का हमें अधिकार मिला है। वंश परंपरा से ही मैं तेरा दास हूँ।”

उनकी महिमा का और क्या वर्णन किया जाए? जो कुछ कर सकेंगे, थोड़ा ही होगा। हाँ, उनके चरणारविंद की विभूति के सौरभ में ओतप्रोत हो, हम इस जगजीवन पथ पर महाकल्याण, परम सत्य और शाश्वत जीवन की ओर युग-युग तक चलते रहें…इन्हीं संतों के गाये हुये मार्ग पर, जहाँ इनके चरण प्रसून अभी बिखरे हुए हैं।


Image: Sant Tukaram
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain