प्रबोध
- 1 August, 1951
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- 1 August, 1951
प्रबोध
जागो निद्रा-तंद्रा के कर बिके हुए बेमोल!
उड़ी सुरभि सब ओर भोर के सरसिज-संपुट खोल!!
गत प्रमाद की निशा; दिशाएँ नव प्रकाश में निखरीं,
स्वर्ण-वर्ण की सजग रश्मियाँ फूटीं, फैलीं, बिखरीं
हुआ विलंब व्यतीत हुए नीहारघनावृत शीत
प्रात-वात के प्रथम परस से टपके द्रुम-दल पीत
गूँज उठी झंकार एक अरुणाम शिखर तक फैल
रोमांचित हो गई धरित्री पुलक-प्रकंपित शैल
सर-सरिता-सागर में शत-शत हिल्लोलित कल्लोल
जागो निद्रा-तंद्रा के कर बिके हुए बेमोल!
दो डग चले नहीं, माथे पर श्रमकण झलमल झलके
शिथिल हुआ उत्साह, छाँह लख कर अलसाई पलकें
करवट भी बदली न; ली न तुमने तम में अँगड़ाई,
तब किरणों के तीर छोड़ती प्रगति-चेतना आई
देश-देश से उड़-उड़ कर आ जुड़-जुड़ संख्यातीत
चहक-चहक विहगों ने गाए अगवानी के गीत
केवल तुम्हीं लुके धुँधयारे में, साए में अपने
डुबो रहे अभिनव भविष्य के रंग-बिरंगे सपने
पोंछ रहे ठिठुरे हाथों से अश्रु टटोल-टटोल
जागो निद्रा-तंद्रा के कर बिके हुए बेमोल!
जागो, जैसे गरल-बुझे बाणों से बिंधा मृगेंद्र
फन फैलाए व्याल-वृंद लख चंचल-चंचु खगेंद्र
जागो, आततायियों के सम्मुख ज्यों शतमुख क्रोध
अबमानित; धूमिल आत्मा ज्वलित अनल-प्रतिशोध
जागो, पतझर के मर्मर में ज्यों पल्लव की लाली
गुच्छ-गुच्छ तुम पुञ्ज-पुञ्ज को ढँक लो सघन वनाली
आँख मूँद, धधके प्रकाश में कब तक पड़े रहोगे?
बड़वानलपायी, सुधा नहीं, क्षार-ज्वार उगलोगे?
खँडहर तो दो छोड़, डोलते हैं भूगोल-खगोल,
जागो निद्रा-तंद्रा के कर बिके हुए बेमोल!
Image: The Sun
Image Source: WikiArt
Artist: Edvard Munch
Image in Public Domain