बलिपथ के गीत
- 1 September, 1951
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- 1 September, 1951
बलिपथ के गीत
कवि मिलिंद की कविताओं का नवीनतम संग्रह ‘बलिपथ के गीत’ के नाम से हाल में जनता के सामने आया है। इस अवसर पर कवि तथा उसकी रचना की कुछ चर्चा करना उचित प्रतीत होता है। जब राष्ट्रोत्थान की भावना दिनोंदिन अपना व्यापक रूप धारण करती जा रही थी, उन दिनों भी ‘मिलिंद’ मिलिंद था। वह कभी अकोला में अध्ययन करता था, तो कभी पूना के तिलक विद्यापीठ की परीक्षा देता था। बनारस के काशी विद्यापीठ के राष्ट्रीय कॉलेज में साहित्य तथा समाजविज्ञान की उच्च शिक्षा का तो उस पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसे शांतिनिकेतन और वर्धा-आश्रम में अध्यापक होकर ही शांति मिली। नि:संदेह, उसके वे दिन भी कुछ कम महत्त्व के नहीं रहे, जिन्होंने उसके जीवन को राष्ट्रीय बना दिया है। राष्ट्रसेवा ही उसके जीवन का एकाकी लक्ष्य बना है, जिसके लिए वह नाटककार, कवि, पत्रकार और न जाने क्या-क्या बन सका है। तो, यह है उसके जीवन की संक्षिप्त झाँकी।
स्वच्छंदता और स्वावलंबन उसकी आत्मा के प्रधान गुण हैं, जो उसके जीवन के पल-पल को नवीन बनाते हुए उसकी दुनिया में परिवर्तन का एक नया तूफान खड़ा किया करते हैं। परंतु, संघर्षों में वह विजयी इसलिए हो जाया करता है कि उसे किसी से कुछ लेना नहीं है। वह अपने पथ का पथिक है और केवल पथिक ही रहना चाहता है। इसीलिए उसकी आत्मा में ओज है, किसी के अहसान का बोझ नहीं। वह जो कुछ भी गाता है, वह उसके ‘जीवन का संगीत’ है। उसके पास जो कुछ भी है, अपने ‘नवयुग के गान’ हैं, उसके अपने ‘बलिपथ के गीत’ हैं। आगे चलकर यदि वह अपने गीतों को अपने ही पथ की ‘भूमि की अनुभूति’ के नाम से प्रकाशित करे, तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि उसे जो कुछ भी कहना है, वह अपने और अपने पथ से दूर होकर नहीं। अथवा यह कह लीजिए कि वह उस तरह कहना ही नहीं चाहता। वह सत्य के प्रकाश में, जिसके चित्र को लेकर पूजने बैठा है वही मानवता उसका पथ है–
मानवता की गति के स्वर में,
मैं निज गीत मिला गाता हूँ।
और अपनी इस पूजा में अनवरत लगा रहना ही उसकी साधना है–
तेरा स्वप्न सत्य का अनुचर,
शिव का अविचल साधक है।
सुंदर का अविराम उपासक,
जनहित का आराधक है।
इस प्रकार वह घोषित करता है कि उसकी कला, सत्यं, शिवम्, सुंदरम्’ से दूर नहीं चल सकती, वरन् लोक-कल्याण के लिए सदैव अग्रसर रहेगी। जैसा कि ‘बलिपथ के गीत’ पुस्तक के प्रारंभ में उसने व्यक्त भी किया है–
“ईमादारी को मैंने कला की एक अनिवार्य आवश्यकता माना है।” मैं उसकी इस ईमानदारी ही को उसके काव्य का सत्य मानता हूँ। ‘सत्य’ उसका और उसके काव्य का जीवन है। और इसीलिए वह शिवम् का अनुभव करते हुए निर्भीक है। निर्भीक होकर वह अपनी कला को सत्य के मार्ग पर लिए चल रहा है। यही उसके लिए सुंदरम् है, बस।
जब उसके पथ में देश की स्वतंत्रता को प्राप्त करने का एक लक्ष्य था, तब उसने ‘प्रताप प्रतिज्ञा’ के रूप में प्रदर्शित किया कि स्वाधीनता के लिए लोगों ने क्या कुछ नहीं लुटाया। उन दिनों उसके ‘जीवनसंगीत’ में भी राष्ट्रवादी भावनाओं की लहर थी–
तुम नहीं डराए जा सकते शस्त्रों से,
अत्याचारों से,
तुम नहीं भुलाए जा सकते वीणा की
मृदु झंकारों से,
तुम नहीं सुलाए जा सकते थपकी से,
प्यार दुलारों से
तुम सुनते पीड़ित की पुकार।
मेरे किशोर, मेरे कुमार।
[‘उगता राष्ट्र’]
तब वह गुरुता से लघुता की ओर आने का संकेत करता था, क्योंकि भिन्न के अभिन्न बनने के लिए इससे विस्तीर्ण अन्य कोई संधिस्थल नहीं। कभी वह अपने लक्ष्य पर मर मिटने वालों का स्मरण दिलाते हुए उत्साह का प्रबल मंत्र फूँकता था–
“तरुणो सुनो, दे रही रानी, स्मरण-लोक से मंत्र महान्।
सत्य और स्वत्वों की रक्षा संभव नहीं बिना बलिदान।
[‘झांसीवाली रानी की समाधि पर’]
कहने का तात्पर्य यह है कि हमने उसकी वाणी को जनहित के स्वर में बहुत पहले से सुना है। ‘बलि’ और ‘बलिपथ’ इन शब्दों का प्रयोग तो वह बहुत पहले से करता आया है–
“जागो, जग के तारुण्य। आज बलिपथ की प्रेरक बेला है,
उस मृत्युंजय की चिताभस्म पर दीवानों का मेला है।”
[‘जीवनसंगीत’]
यदि हम यह स्पष्ट कर दें कि उसके कवि के अर्थ में, आत्मत्याग और उत्सर्ग की कहानी ही ‘ईमानदारी’ है, तो कोई अत्युक्ति न होगी। उसके इन “बलिपथ के गीतों” में भी एक यही तकाज़ा है। जब बहुत से साथी अपनी सेवाओं को स्वार्थलोलुपता में विलीन करना चाहते हैं, तब उसका यह तकाज़ा प्रबलतर होना ही चाहिए। भारतवर्ष के स्वाधीन हो जाने पर, जब उसके कितने ही साथियों ने अपना पथ समाप्त समझ लिया और मिनिस्टरियों के खेमों में अपने बिस्तर खोल दिए–
“रुक लो तुम भी क्षण भर पथ पर,
साथी डाल चुके हैं डेरा।
एक गीत सुन लो विराम का,
ले तो तुम भी ज़रा बसेरा।”
तब भी उसने अपनी यात्रा नहीं छोड़ी। उसने आगे प्रगति की है और प्रकट किया है कि बलिपथ के गीत यदि आज निजी स्वार्थ पर आकर समाप्त हो रहते हैं, तो पिछली लक्ष्य-पूर्ति को वह नहीं मानता। और तब अभी उसका पथ आगे है। वह अपने जीवन के लक्ष्य को, सुख के दो क्षणों पर लुटाकर इतराना नहीं चाहता। वह उस वैभव की निधि को नहीं लेना चाहता, जिसमें उसे अपने सत्य से भटक जाना पड़े। जिस तपस्या में उसने अपने जीवन को निखार कर निर्मल किया है, वह उसे निर्मल ही देखना चाहता है–
“तुम सत्ता-लिप्सा से ऊपर,
चिरपंथी तुम अविचल साधक।
तुम प्राणों में सत्य लिए हो,
तुम जीवन में लक्ष्य लिए हो।
मिथ्या आडंबर के जग में,
स्वार्थ साधुता, चाटुकारिता और दंभ के
श्वासरोध करने वाले इस
विषमय वातावरण, कलुष में,
भीतर बाहर निर्मल, उज्ज्वल
तुम अपनी साधना लिए हो।
[‘साधक’]
जहाँ उसके काव्य में सत्य की इतनी अभिव्यंजना है, वहाँ एक बात और भी है। पत्रकार होने के नाते उसके कवि की आत्मा एक आलोचक की आत्मा है। यही कारण है कि उसके काव्य का सत्य एक प्रबल सत्य-सा दीख पड़ता है। आलोचनाप्रवृत्ति वर्णन का वह समाँ बाँधती है कि उसकी भाषा शैली में ओज का प्रवाह आ रहता है। कोमलकांत पदावली के स्थान पर उसकी लेखनी से, ऐसे तीखे और गंभीर शब्द निकल पड़ते हैं, जो उसके विरोधी को एकदम घायल कर देते हैं। उसमें पात्र का आत्मरंजन न रहकर उसे दंग और प्रभावित कर देने का अंश अधिक रहता है–
“तुम यहाँ बसा बैठे अपना
छलना के सपने-सा जीवन,
पर यह मंज़िल का अंत नहीं,
यह तो पथ का पहला बंधन,
इस कारागृह के बंधन में
उर के अपूर्ण अरमान छिपे।
इस सरल हासमय जीवन के
पीछे कितने तूफ़ान छिपे।”
[‘कैदी और क्रांति’]
वह कभी अपने शब्दों का ऐसा व्यूह नहीं बनाता, जिसे भेदकर उसका विरोधी बाहर निकल जाए। वह अपना पूरा दलबल बटोरकर ही आगे बढ़ता है। देखिए, अपने को ‘गाँधी बाबा के चेले’ कहने वालों पर आपको आक्रमण करना है, उनके अपने छिछलेपन पर। पलटन मार्च करती है–
“जो अंतर का अहम् मिटाकर
ज्योतिपंथ पर बढ़ता जाए,
बापू के असिद्याराव्रत का
अनुयायी साधक कहलाए।”
तत्पश्चात् फ़ायरिंग शुरू होती है, निशाना ताका जाता है और अंत में विरोधी के पैर उखड़कर ही रहते हैं–
“नंगों भूखों की कराह सुन
द्रवित न होता जिनका अंतर,
जो समता के प्रकट विरोधी,
वे कैसे गाँधी के अनुचर?”
यही नहीं, खदेड़कर भी आप एक हुंकार और लगाते हैं। बेचारे विरोधी को भगदड़ में लुढ़क जाना पड़ता है–
“शोषण की तलवार उठाकर,
मुख से गाँधी जय न निकालो।
ऐ शासनसत्ताधन वालो,
अपने डगमग चरण संभालो।
[‘गाँधी जयंती पर’]
अब तो आप भलि-भाँति जान ही गए होंगे कि हमारे इस ओजस्वी कलाकार की कविता का मुख्य विषय क्या है? राजनीति और उसकी उथल-पुथल, राष्ट्र का त्रस्त और अशांत पहलू–
दिल्ली में हलचल है,
बंगलों में खेत जुतें,
प्रतिदिन हैं निकल रहे
अखबारों में बयान।
खाते हैं शकरकंद
वे नेता, वे शासक,
वेतन में जिनके हैं।
चार अंक,
मोटर से चिरमुखरित राजपंथ।
‘उपजाओ अधिक अन्न’
आंदोलन छेड़ वृहत्
लाखों का खर्च किया।
तू अक्षर शून्य रहा,
पढ़ न सका परचे वे!
गूँज रही बार-बार
दश प्रतिशत की पुकार।
[‘किसान’]
अब यदि आप यह पूछें, कि राजनीति के क्षेत्र में उसका पदार्पण कब हुआ, तो यह ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता। परंतु जिस राष्ट्रभावना ने उसके कवि को जागरूक किया, उसी ने उसे पत्रकार बनाया है और जिस दिन से वह पत्रकार है, उसी दिन से उसने राजनीति के दंगल में कदम रखा है, यह निश्चित है! किंतु, कवि होने के नाते वह वहाँ भी सच्चाई और ईमानदारी का हिमायती है।
“राजनीति और उसकी ईमानदारी या बेईमानी से हम साहित्य के फक्कड़ों को क्या लेना-देना है। अपने राम तो इतना जानते हैं कि न कभी किसी ने हमें निहाल किया और न कोई कर ही सकता है।”–ऐसी धारणा वाले साहित्यकार, यदि अपने को साहित्य का सूखा लक्कड़ कहें तो ठीक है क्योंकि, वह प्रत्यक्ष के वर्तमान को छोड़ कर ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘सुमित्रानंदन’, ‘दशकंधर’, ‘अंगराज’ इत्यादि लिखना ही साहित्य समझते हैं। सत्य से कोसों दूर भागे हुए वह कोरी कल्पना के साहित्यकार हैं। काव्य का विषय तो आदिकाल से प्रत्यक्ष ही रहा है। वह यदि भूत को ही अपनी निधि समझ बैठे हैं; तो उन्हें इतिहासकार बनने का प्रयत्न करना चाहिए। भक्तिकाल के भीतर यदि भूमि पर मठ और मंदिर बने तो साहित्य की भूमि पर भी। रीतिकाल के भीतर यदि समाज में विलासिता पनपी, तो काव्य के भीतर भी इत्र, गुलाब, तहखाने, ऋतुवर्णन इत्यादि ही लिखा गया। और आजकल जब व्यक्ति और उसके समाज के सुख-दुख का उत्तरदायित्व राष्ट्र पर है, चारों तरफ राष्ट्र की ही चर्चा है, तो काव्य में भी राष्ट्र की ईमानदारी और बेईमानी, दोनों पर विचार होगा ही। साहित्य में भी राष्ट्र की भली या बुरी तस्वीर उतरने की ही ठहरी, क्योंकि साहित्य से न जीवन दूर किया जा सकता है और न जीवन से साहित्य ही दूर की वस्तु है। कोरी कल्पना के साहित्यकार को ही साहित्य क्षेत्र से दूर किया जाएगा। यह प्रगतिवादी काव्य और उसके कलाकार की चुनौती है। नि:संदेह, यदि आज के कवि के काव्य में ‘सत्यं’ का अंश अधिक दिखाई दे रहा है, तो उसका भी यही कारण है। वह आनंद के लिए, स्वर्ग की ओर कल्पना के परों से उड़ने की निरर्थक चेष्टा नहीं करता। इसीलिए वह आदर्शवादी न होकर, अपने यथार्थ के इसी जगत् में रंजन की सारी रूप-रेखा देखने को उत्सुक है। ‘मिलिंद’ में भी यही सब कुछ है–
तुम देखो नभ की उदारता, ऊपर का वरदान,
नीचे के तप ने खींचा, मेरे नयनों का ध्यान।
[‘वर्षागम के पूर्व’]
कल्पना की ऊँची उड़ानों में, जहाँ मीठी या खट्टी भावनाओं का दुर्भाव है, वहाँ यथार्थ की पृष्ठभूमि पर कलाकार के हाथ अधिकतर विचार ही लग पाते। ऐसी स्थिति में यदि ‘मिलिंद’ के इस संग्रह में ‘बापू के आँसू’, ‘बापू की हत्या पर’, ‘शहीद की विधवा से’ आदि कविताएँ भी, केवल करुणा से सिक्त न होकर अधिकतर विचारों ही से व्याप्त हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। आज के कवि के पास प्रधानत: विचारों ही की तो भूमिका है। मैंने ‘दिनकर’ का वह ‘कुरुक्षेत्र’ भी देखा है और ‘बच्चन’ के वह ‘खादी के फूल’ भी। जिधर देखो उधर विचारों ही का प्राबल्य है। सच तो यह है कि आज का जीवन ही विचाराधीन है। तब ‘मिलिंद’ की काव्यमंदाकिनी, केवल भावनाओं के कदंब और आम्रवृक्षों के नीचे से प्रवाहित नहीं दीख पड़ती, तो इसमें उसका क्या दोष? उसकी वाणी भी उन्हीं खंडहरों में गूँज रही है, जहाँ अभी एक-एक पत्थर को ठीक-ठीक जमाने की समस्या आगे है–
निज प्रतिभा, मेघा का तानो ऐसा महावितान,
जिसकी छाया में सुख पावें ये मज़दूर किसान।
‘बलिपथ के गीत’ मिलिंद की लेखनी की बहुत बड़ी जीत है। इन गीतों ने उसे पिछले राष्ट्रवादी कलाकारों से भी आगे प्रस्तुत किया है और स्पष्ट किया है कि वह आज भी तरुण है। वह आज के युग के साथ भी चल सकता है, अपनी उसी प्रतिभा और अमंद गति से। वह प्रगतिशील होने के साथ-साथ कलात्मक भी है, विचारप्रवण होने के साथ-साथ रससिक्त भी है। यही उसकी औरों से विभिन्नता है।
Image: The first anniversary of independence, celebrated at the RedFort
Image Source: Wikimedia Commons
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