जय वसुंधरे!
- 1 August, 1951
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- 1 August, 1951
जय वसुंधरे!
यह धरती अधिवास युगों से यही हमारी
परिजन फूले-फले कि जैसे मधुवन क्यारी
भाव-धरा के फैले गिरिवर-सरित-सिंधु में
नयन धरा के सदा उलझते रहे इंदु में!
नींव हमारी गहरी इसमें सदा रही है
भूकंपों ने दृढ़ता की ही कथा कही है,
धरती के सपने ही हमको सदा सुहाए
तट की आशा लिए पार सागर कर आए।
कली फूल मुस्कान धरा के, उर हैं सागर
दिव्य भाव ही तुंग हिमालय, ममता अंबर,
उल्कापात सघन विद्युत् पल सिर आँखों पर
विजन-विहंगम की कल वाणी धरती के स्वर।
क्रीड़ामयी विविध ऋतुरानी, जब वसुंधरे
सूर्यमान हे! कौन विदेशी सम्मुख ठहरे?
ज्ञानदायिनी, शस्य-श्यामला, रत्नावलि जय
विद्रोही स्वर भी जय बनकर हुए सदा लय।
किंतु आज परिभाषा बदली जन-जीवन की
आशा, चिर अभिलाषा बदली पंडित-मन की
पर्वत, नदियाँ, चाँद, सितारे, फूल वही हैं
पर मानवता के विश्वासी कूल नहीं हैं।
जय-यात्रा रथ रुका पंथ में, मानव हारा
डूबा तम में पथ-निर्देशक, उज्ज्वल तारा,
क्रय-विक्रय की वस्तु ज्ञान है, दृढ़ दीवारें
अधरों का विलास है वाणी, क्या मन वारें?
पहुँच न पातीं तृप्ति-यज्ञ तक श्रमनत बाहें
उभर न पातीं स्वर तक, घुटती मन में आहें,
डूबी निर्मल धार ज्ञान की युग-मरुथल में
भोर हुआ, मन उड़ा न फिर भी, फँस शतदल में!
लौटे फिर धन-धान्य देश के आँगन में मंगल आपरित
गृहिणी हो गृहदेवि मरुतगण लावें कुशल क्षेम अभिनंदित,
पथ-निर्देशक रसवंती ऋतु करें, सदा ध्रुव सत्य उदित हो
इष्ट पूर्ति हो, पुन: धरा के मनुष्यों में मानवता हित हो।
Image: Exotic Landscape
Image Source: WikiArt
Artist: Henri Rousseau
Image in Public Domain