जैनेंद्र–जिनको मैं जान सका

जैनेंद्र–जिनको मैं जान सका

प्रेमचंद गाँव से पहचाने गए, जैनेंद्र शहर से। प्रेमचंद में जमींदार थे, उनके शोषण के शिकार किसान-मजूर थे। जैनेंद्र में थे पति-पत्नी और प्रेमी। एक समय के ये दो कथाकार, एक-दूसरे को पहचानते हुए भी, एक-दूसरे से एकदम भिन्न। जहाँ प्रेमचंद से एक कथायुग का श्रीगणेश होता है, वहाँ जैनेंद्र से भी। दोनों समान महत्त्व के, समान प्रभाव के युग-पुरुष पर अलग-अलग।

मैंने प्रेमचंद को पढ़ा परंतु जैनेंद्र को मुझे समझना पड़ा। ‘त्यागपत्र’ मेरे लिए गीता रहस्य बन गया। इस गुत्थी को जितना सुलझाना चाहा, मैं उतना ही उलझता गया। भगवती प्रसाद वाजपेयी हमारे यहाँ आए तो मैंने उनसे ‘त्यागपत्र’ के बारे में चर्चा की। वह आदत के अनुसार कुछ देर तक सोचते रहे। फिर वह बोले, “जैनेंद्र विचारक हैं, दार्शनिक बनते हैं। इसकी छाप उसके साहित्य पर है इसलिए वहाँ भी उसका पाठक उलझ जाता है।” परंतु वह ‘त्यागपत्र’ पर कुछ नहीं कह सके।

तब से मेरे मन में जिज्ञासाएँ घिरती रहीं। हिंदी के दिग्गजों ने मुझे डरा दिया कि उनसे मिलना बेकार है। वे समय नहीं देंगे। दे दिया तो स्वयं कुछ नहीं बोलेंगे। दूसरे से चाहेंगे कि वह बोले और चलता बने। उन्होंने अपने को एक इस्पात की दीवार में छिपा लिया है। वे बड़े अहमक हैं। मुझे डॉ. हरिहरनाथ टंडन ने हिम्मत से आगे आने के लिए कहा। उन्होंने कहा, “जैनेंद्र मेरे मित्र हैं। अच्छे इंसान हैं। बहुत बड़े साहित्यकार हैं। निरभिमानी हैं। तुम उनसे जाकर मिलो। दिल्ली तुम्हारा घर है। आते-जाते रहते हो। मैं चिट्ठी लिख देता हूँ।”

मैं पहली बार उनसे मिला। वह मुलाकात लगातार तीन दिन चलती रही। तमाम पूर्व आशंकाएँ ढह गईं। बिल्कुल उल्टा हुआ। जैनेंद्र बोलते रहे और मैं उन्हें सुनता और लिखता रहा। तब से अनेक बार उनसे मिलना हुआ। हर बार मुझे लगा कि उनसे अभी भी मिलना है। उनसे कई बार एक ही बात सुनी परंतु मुझे लगा कि वह बात पहले से कुछ जुदा है–एकदम उनके उपन्यासों की तरह। उनके बोलने में एक प्रकार का रस-संबोध है, लय है, और है गति। वे जब बोलते होते हैं, तब वे अपने में नहीं होते, कहीं गहरे में डुबकी लगाये होते हैं और वहाँ से बहुत धीमे-धीमे बोलते जाते हैं। मैं सोचता हूँ कि बोलना कितना सार्थक हो सकता है। उनमें शब्द नये अर्थ लेकर परिवेश को आत्मलीन कर उठती है। तब वे आकार नहीं रहते बल्कि निराकार हो जाते हैं। तब न वे मृणाल होते, न सुनीता। मैं बहुत सोचता हूँ कि उन्हें उन क्षणों में जज्ब कर लूँ। पर ऐसा होता नहीं, मैं आकार रह जाता हूँ। बात खत्म होती है, मैं उठकर चलने लगता हूँ। मैं सीढ़ियों से नीचे उतरकर धीरे-धीरे सोचने लगता हूँ और पाता हूँ कि प्रश्न अपनी जगह है। टस से मस नहीं हुए। उनमें सोच की गइराई और बढ़ी।

मैं जैनेंद्र की इसी खूबी का कायल हूँ। वे अपने साहित्य में भी इसी तरह से बहुत अकहा छोड़ देते हैं। उनके उपन्यास तो पाठकों के लिए एक चुनौती हैं। मानो वे कहते हों कि जिनके साथ, जिनके बीच में रहते हो, क्या तुम उन्हें जानना चाहते हो? मृणाल तुम्हारी पड़ोसिन है, सुनीता तुम्हारे घर में है। हरिप्रसन्न मैं हूँ। मेरी ओर दीदा फाड़ कर क्या देख रहे हो। क्या तुम्हें विश्वास नहीं होता? तो आओ मेरे साथ और मेरी आँखों से देखो और कहो कि जैनेंद्र गलत कहता है, गलत लिखता है। जैनेंद्र का अपने पात्रों के प्रति वैसा ही ट्रीटमेंट है जैसा तुम्हारा अपने प्रिय के प्रति।

जैनेंद्र को जानना चाहते हो तो पहले समझो, सोचो। जैनेंद्र सोच के भी बहुत नीचे रहता है, जहाँ निर्बाध पवन बहता रहता है, प्रकाश बिना चकाचौंध पैदा किए उजास देता है और गति थमती नहीं। तुम उसको बाँधना चाहते हो। यहाँ से जैनेंद्र अबूझा होने लगता है। दरअसल जैनेंद्र सहज है, मिलने में और पढ़ने में–दोनों में। भाषा का संकट नहीं। भाषा उसकी अनगढ़ है। शैली लीक से हटकर है। भाषा व शैली दोनों के प्रति जैनेंद्र लापरवाह हैं, जबकि मनीषियों के विश्लेषण इन्हीं दोनों बातों पर जोर देते हैं और सिद्ध करते हैं कि वे इसी से अप्रतिम हैं। मैं पूछता, सब कहते हैं कि ‘आप सूक्ष्म हैं। पकड़ में नहीं आते।’ जैनेंद्र के पतले अधरों पर स्मिति अवगुंठन से झाँकती है। जैनेंद्र कहते हैं, ‘सब कहते हैं तो हो सकता है।’

‘सब यह भी कहते हैं कि यह सूक्ष्मता उनका नाटक है। वे इससे अपने को दार्शनिक सिद्ध करना चाहते हैं, जबकि ऐसा है नहीं।’ मैं कहता।

जैनेंद्र मेरी ओर नहीं देखते। उनका ध्यान ‘रैक’ से टकराता। वे कह जाते, ‘वे भी ठीक कहते हैं। वे वही कहते हैं जो मैं उन्हें दिखता हूँ।’

दोनों ठीक। फिर गलत क्या? क्या कोई नहीं? क्या ऐसा संभव नहीं है? मेरे में सवालिया मुद्राएँ समंदर की लहरों-सी उठतीं। पर वे खामोश होते-निश्चल। मैं सवाल करता। वे सुनकर भी नहीं सुनते। वे देखकर भी नहीं देखते। मानो वे ऐसे जटिल क्षणों में यह रहस्य खोलते हों कि वे इस अर्थ में गाँधी के पीछे हैं कि जहाँ से गाँधी लाया है, वे भी वहीं से लाते हैं और उतना ही बोलते हैं, जितना वे अपनी गागर में भर कर ला पाते हैं। ये ऐसी द्विविधा के क्षण होते, जब मैं समझना चाहता और वे नासमझ बन जाते। मैं चीखकर पूछना चाहता कि मृणाल को कोठे पर बिठलाने की क्या जरूरत थी। मृणाल को जब वह लिवाने आया तब वह लौटी क्यों नहीं। क्यों रोक दिया उसे। मानो वे कहते हों, ‘मैं कौन होता हूँ रोकने वाला। वह है, प्रारब्ध है और…।’ यह आपका मायाजाल है। आपके प्रचलित दो ही रूप हैं, जैनेंद्र! या तो आप इतने गूढ़ हो जाते हो कि लगता है, आपका संबंध धरा के लोगों से नहीं रहा या आप इतने विद्रोही भावों का प्रतिपादन करने लगते हो कि परंपराप्रिय पाठक उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। मृणाल पतिव्रता है। उसे पति नहीं चाहता तो वह भी नहीं चाहती कि वह पति पर अपना भार डाले। …और इसलिए पर-पुरुषों की वासना शांत करते हुए अंत में कोठे पर जा बैठती है। क्या यह ठीक है? इसका क्या औचित्य है?

जैनेंद्र के ईषद् नेत्र फैलते। उनके चौड़े भाल पर दो-तीन महीन रेखाएँ खिंचतीं। उनके हल्के आरक्त अधरों पर मौन करवट लेता। वे कहते डॉक्टर, प्रेम पर बंधन बनकर आने वाला विवाह अधिक समय तक टिक नहीं सकेगा। विवाह जो स्वयं से स्वत: को छीनता है, आगे नहीं टिकने वाला है।…जब इसमें ग्रंथियाँ बनने लगती है, एक-दूसरे के प्रति अविश्वास पैदा होने लगता है तब विवाह ऐसा बंधन हो जाता है। जो सुभीते का नहीं रह जाता।…मृणाल की कथा कहने वाला न्यायाधीश है। मृणाल उसकी बुआ है। न्यायाधीश का स्व-विवेक अंत में उन्हें इस्तीफा देने को तैयार कर लेता है। वह अपनी बुआ को कोठे के नरक से निकाल ले जाना चाहता है तो उसकी बुआ उससे कहती है कि युधिष्ठिर जी स्वर्ग गए थे तो कुत्ते को भी नहीं छोड़ गए थे।…इन सबको ले चलेगा, इन सबका मुझपर बड़ा उपकार है।

इस वक्त मुझे जैनेंद्र का यह कथन याद आने लगता है, ‘मुझे कथा के लिए कुछ नहीं सोचना पड़ता। मेरे पास कथा होती कितनी है। पात्र होते हैं जो अपने आप खुलते-बढ़ते जाते हैं। उनका अपना द्वंद्व अंतर्द्वंद्व होता है। जब तक चलता है, कथा भी चलती है। जहाँ वह ठहर जाता है, वहाँ कथा ठहर जाती है।…दरअसल लोग मेरे साहित्य में कथा ढूँढ़ते हैं जो होती ही नहीं और होती भी है तो बहुत कम।’ कहाँ से हो! जैनेंद्र ने अनेक उपन्यास बोल कर लिखवाये। इसमें लंबा ‘गैप’ भी हो गया। फिर से बैठे तो कथा आती-सी चल पड़ी। वह पात्र से चली। पात्र के घात-प्रतिघात से चली। कथा कहीं रह गई तो रह गई। जैनेंद्र प्रेमचंद की तरह कभी कथा नहीं बुनते-संवारते। कथा की उनकी चिंता नहीं। उनको चरित्र की भी चिंता नहीं। उन्हें चिंता है तो जीवन-तत्त्व की। सत्य, अहिंसा, प्रेम-तत्त्व की।

वे मुझसे एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं। मैं जिज्ञासा में विश्वास करता हूँ, ज्ञान में नहीं। ज्ञान सत्य को परिधि में लेता है और सत्य परिधि में आता नहीं है।–विश्लेषण से सत्य प्राप्त होगा, ऐसा मैं नहीं मानता। सत्य संश्लेषण तत्त्व है। वह विश्लेषण प्रक्रिया के अंतर्गत आता नहीं है। बुद्धि प्रयोग द्वारा बुद्धि की अनास्था जो दिखाता हूँ, वह पाठक को अखरता है।

जैनेंद्र की दृष्टि में अश्लीलता का प्रश्न सभ्यता संबद्ध है और सभ्यता अप्रकृत है। जब हम इन प्रश्नों को सभ्यता के घेरे में लेते हैं और उससे सोचने का काम लेते हैं तब अश्लीलता जन्मती है और उससे पापोदय होता है, जैसा आज है और दिनोंदिन हमारा समाज इस ओर बढ़ता जा रहा है। यह सभ्यता के ट्रीटमेंट का फल है। जैनेंद्र कहते हैं, ‘अश्लील वस्तु के साथ नहीं है। कृत्य के साथ भी नहीं है, वह असत्य और छल के साथ है।…देह दर्शन में अश्लीलता नहीं है, अश्लीलता का संबंध तो मनोभाव से है। संथालों में नग्नप्राय युवतियाँ काम करती और नाचती, गाती मन में अश्लीलता पैदा नहीं कर पातीं।…दरअसल झूठ बिना अश्लील हो सकता नहीं और जहाँ झूठ है, वहाँ अश्लीलता के बीच अवश्य है।’ फिर सुनीता तो शब्दों में नंगी हुई है। उससे वासना भी तो नहीं उपजती है। ध्यान सुनीता से ज्यादा हरिप्रसन्न पर अटक जाता है कि वह भाग क्यों खड़ा हुआ! यथार्थत: जैनेंद्र मानसिक जटिलताओं और उलझनों की ट्रीटमेंट देते हैं और वह भी सहज और सरल। जैनेंद्र के इस समर्पित प्रेम को जो लोग प्रहार समझते हैं, वे दरअसल जैनेंद्र को समझते नहीं। जैनेंद्र कभी भी प्रहार नहीं करते। वे प्यार करते हैं। ब्रह्मचर्य की जड़ सत्ता से भी वे विमुक्ति दिलाना चाहते हैं। स्त्री-पुरुष आकर्षण की नैसर्गिकता को अनुभव कराना चाहते हैं। प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता। वह तो प्रिय का शुभेच्छु हैं और त्याग की उत्कट भावना से आप्लावित हैं।

जैनेंद्र से मैं पहली बार मिला–अर्थात् 13 सितंबर, 1970 को, वह दिन रविवार का था। हालाँकि दिल्ली में हम पुरानी सब्जीमंडी में रहते थे। दिल्ली की दूरी की परिभाषा में दरियागंज सब्जीमंडी से दूर तो है पर लक्ष्य सामने हो तो दूरी सिमटती अनुभव होती है। हालाँकि सब्जीमंडी से सीधा बस दरियागंज को नहीं मिलती। तब रीगल के पास से विष्णु प्रभाकर पैदल आते-जाते थे कुण्डेवालान तक। इसके लिए वे बस, स्कूटर नहीं लेते थे। जब मेरे मौसा जी नवीन शाहदरा में मकान बनवाने की योजना में व्यस्त थे। मैं और मौसा जी तड़के ही सब्जीमंडी से पैदल आते-जाते थे कुण्डेवालान तक। इसके लिए वे बस, स्कूटर नहीं लेते थे। जब मेरे मौसा जी नवीन शाहदरा में मकान बनवाने की योजना में व्यस्त थे तब मैं और मौसा जी तड़के ही सब्जीमंडी से पैदल निकल पड़ते थे और नवीन शाहदरा जा पहुँचते थे। लौटते भी पैदल थे। आज यह कल्पनातीत है। आज पड़ोसी भी कोसों दूर हो गया है।

जैनेंद्र को दिल्ली में रहते हुए एक लंबा अर्सा हो गया था। देश के एक प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेंद्र को उनके क्षेत्र दरियागंज में तलाशने में दिक्कत आएगी। यह तो मैंने कल्पना में भी नहीं सोचा था। जैनेंद्र पान नहीं खाते, सिगरेट-बीड़ी नहीं पीते, दुकानदारों से गपशप नहीं करते, आस-पास चाट-पकौड़ी नहीं खाते। फिर कौन जैनेंद्र को पहचाने! न उनके बाल बढ़े हुए हैं और न दाढ़ी। न उनके ऐसे-वैसे चर्चे हैं। वे एक बहुत खामोश और संकोची स्वभाव के आत्मलीन रहने वाले इंसान हैं। खद्दर पहनते हैं और चुपचाप आते-जाते हैं। निराला को दरियागंज में सब जानते थे। उनके अनेक किस्से वहाँ के लोगों की जुबान पर थे। ऐसी बात जैनेंद्र के साथ नहीं थी। मैं घंटे भर घूमघाम कर उनके निवास तक पहुँचा। एक पुरानी तख्ती पर सामान्य ढंग से लिखा हुआ था–जैनेंद्र कुमार।

सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचता हूँ। जीने से लगी है उनकी छोटी-सी बैठक। एकदम साधारण-सी और साफ-सुथरी, करीने से सजी। पीछे को खुलती है एक खिड़की। खूँटी पर टँगा रहता है खद्दर का कुरता। मैं पूछता हूँ, “आप खुद के कते सूत के कपड़े पहनते हैं क्या?”

“नहीं।’ जैनेंद्र दृढ़ता से कहते।

“तब आप गाँधी जी के अनुयायी…।” में अधूरा वाक्य, कह पाता हूँ। वे मेरा मंतव्य समझ जाते हैं। खखारकर वे कहते–“मैं व्यक्ति को रूप में नहीं, प्रतीक रूप में लेता हूँ। वह रूप सिद्धांत जो मुझे थामता है, वह गाँधी या क्राइस्ट में देखता है। अनुयायी कहना कठिन है, गाँधी जीवन मेरे समक्ष सत्य शोध का उत्तम उदाहरण रहा है।” इसके बाद वे रुक जाते। समय अनाहट किये सरकता रहता। उनके मुख-मंडल पर अपूर्व शांति होती। उनकी आँखें कहीं ठहरी होतीं। मैं साँस रोके उनके कुछ कहने की प्रतीक्षा किये होता। कई बार ऐसा भी हुआ कि मैं प्रतीक्षा किये रहा और उन्होंने अपनी बात को विराम दे दिया। वे इस बार ऐसा नहीं करते। वे कहते “मेरी यह चेष्टा होती है, उनको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त होती थी, वहाँ से प्राप्त करूँ। वह वैचारिक और क्रियात्मक गाँधी को लेती है। दरअसल मेरे पास कुल पूँजी आस्तिकता की है। आस्था स्वयंभू है। वह तर्क पर खड़ी नहीं होती। मुझमें साधना पक्ष शिथिल है, बौद्धिक पक्ष में तीक्ष्णता आ जाती है। जीवन का समीचीन विकास कहें, वह नहीं है।”

सत्य, अहिंसा, प्रेम और गाँधी पर बोलते हुए जैनेंद्र गंभीर हो आया करते। उन पर कहते-कहते वे प्राय: रुक जाया करते। तब उनकी आँखों में एक प्रकार की चमक उभरती। उनका गेहुँआ रंग प्राय: धूप-सा खिल उठता। वे कहने लगे “मिस्टर भटनागर, मैं प्राय: ताल्सताय के बारे में सोचता हूँ तो सोचता रह जाता हूँ। ताल्सताय प्रेम के आदर्श थे। कायल थे।…” मुझे लगता है कि आदर्श उनके लिए धारणात्मक नहीं रह गया था।…उनकी दुखद मृत्यु से यह परिणाम निकाला जा सकता है कि पत्नी के प्रति उनमें तादात्य नहीं बन सका, प्रत्युत अनित्य का भाव शेष रह गया था जिसको वे भर लेना चाहते थे। परंतु जो इस भाँति सर्वथा समाप्त नहीं होता और कहीं व्यथा छुपी रह ही जाती है। जब मैं याद करता हूँ कि मृत्यु के आधे घंटे पहले तक उन्होंने पत्नी को अपने पास आने का निषेध किये रखा और अंतिम साँस से बीसेक मिनट पहले उन्हें अपने पति के पास जाने का अवसर मिला तो मेरा दिल दहल जाता है। इसके साथ ही जैनेंद्र ने गहरी साँस ली। उन क्षणों में मैंने पाया कि जैनेंद्र में द्विविधा सामने आ खड़ी हुई है। व्यथा उन्हें घेर रही है। उनकी आँखों के आगे शून्य आ ठहरा है। वे कुछ विवश हो रहे हैं। मैं टोकता, “हाँ तो आप कह रहे थे।”

“प्रश्न कहने का नहीं, आस्था की अनुभूति का है। ताल्सताय बहुत बड़े साहित्यकार थे। उनसे ऐसी आशा नहीं थी। जरा आप कल्पना तो करो कि उनकी पत्नी रात-दिन चिंता में मृत्यु शय्याग्रस्त पति के कमरे के चारों ओर भटकती ही रही, अंदर प्रवेश नहीं पा सकी…याद करता हूँ तो चित्त वेदना से भर जाता है और मैं सोच उठता हूँ कि अहिंसा की सतत् साधना में यह कैसे फलित हो सका है। उत्तर यही मिलता है कि सचेत साधना से अनित्य का भाव दूर नहीं होता है और सच्चा प्रेम भावुक नहीं हो सकता।”

“फिर?” अनायास मैं कह जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि जैनेंद्र का इन सबके कहने के पीछे क्या उद्दिष्ट है। निस्संदेह ताल्सताय विश्व के महान् साहित्यकारों में से हैं। अहिंसा उसका धर्म है। पर यह कैसी हिंसा? पत्नी के प्रति इतनी निष्ठुरता क्यों? वह पागल-सी बीमार पति के कमरे के बाहर चक्कर काटती रही। क्या साहित्यकार का जीवन उनके साहित्य की स्थापना के पीछे होता है? क्या साहित्यकार के लिए तप-व्रत जरूरी है? क्या तप धर्म ही साहित्यकार की सर्जना का स्रोत है। मैं मन ही मन प्रश्नों की झड़ी लगाने लगता हूँ। यकीनन प्रश्न उत्तर से अधिक कठिन होते हैं। एक प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं। जैनेंद्र कौन-सा उत्तर देते हैं, मेरी दृष्टि वहाँ स्थित होती थी।

“तुमने गाँधी के बारे में पूछा था।”

“हाँ।” मैं कहता हूँ। “आप उनके…।”

“कहा नहीं, अनुयायी नहीं हूँ।–चाहूँ भी तो वह मैं हो नहीं सकता।”

जैनेंद्र सोच की मुद्रा में कहते।

“अभी आप ताल्सताय के बारे में कह रहे थे।” मैंने चर्चा को पुन: जोड़ने की दृष्टि से कहा और कनखियों से उनकी ओर देखा। वह दोहराने लगते, “हाँ, तो मैं कह रहा था। मैं उनको लेकर अनेक बार तन्हा में सोचने लगता हूँ तो घबरा उठता हूँ। सोच जाता हूँ कि प्रेम सचेत होने से भावातिरेक में उतर आता है। वह ब्रह्मचर्य के कायल थे। लेकिन भोग उनसे अंतिम वय तक नहीं छूट सका। यह अंतत: ताल्सताय को गाँधी से अलग डाल देता है, गाँधी में वैसा द्वैत नहीं था। परिणाम हुआ कि उनकी पत्नी कस्तूरबा उनका अवरोध नहीं बन सकी, बल्कि क्रमश: उनके जीवन-क्रम को ही अपनाया।” इसके साथ ही जैनेंद्र ने मेरा ध्यान चाय और नाश्ते की ओर खींचा। वह कह रहे थे, “समय हो रहा है। कुछ विराम भी चाहिए।” मैं सोच रहा था कि ‘जैनेंद्र के पास कलम-कागज लेकर बैठ जाइए और उन्हें सुनते-लिखते जाइए। यथार्थत: वे बोलते वक्त कहीं और होते हैं और वहीं से उनके विचारों का स्रोत फूटता है। साहित्य और दर्शन बनने की ओर मुड़ने लगता है।’

जैनेंद्र भाग्यवादी हैं? प्रेयसी संबंधी विचार उनकी ऐसी उद्भावना है, जिसकी चर्चा रह-रहकर प्राय: हो जाती है। वे सेक्स को भी महत्त्व देते हैं। प्रेम के प्रति वे समर्पित हैं। वे लेखक भाग्य से बने। बचपन से ही वे लिखने के चोर थे। ‘देश-प्रेम’ पर निबंध लिखना उनके लिए पहाड़ बन गया था। वे बताते हैं, मुझसे कहीं बड़ा सत्य है भाग्य। मैं केवल भाग्य को मानता ही नहीं, बल्कि मुझे यह भी मानना पड़ता है कि उसके आगे मैं नहीं हूँ। ‘मैं जो हूँ, वह भाग्य से।’ वे इसी को ईश्वर तक मान जाते हैं। यही उनका सत्य होता है और यही अहिंसा धर्म।

मैं पूछता हूँ, “आपके लिए भाग्य ही ईश्वर है?”

“और आपके लिए नहीं, यही न। पर मेरे लिए वहीं सब कुछ है।”

“और कर्म?” मैं प्रश्न उठाता हूँ। “कर्म भी भाग्य से होता है।… ‘मैं’ करने वाला भाव अहंकार को जन्माता है। इसी से व्यक्ति क्लेश और बंधन में पड़ता है। टूटता-बिखरता है। दु:ख पाता है।…मैं इसे कर्म नहीं, अकर्म कहता हूँ।” जैनेंद्र ने पाँव फैलाते हुए कहा।

“अकर्म अर्थात् कर्म की शून्यता।” मैं कहता हूँ।

“नहीं। इसका आशय है कर्म का क्षय।”… “यानी…।”

“यानी ‘मैं’ कर्ता के भाव से रहित होकर कर्म करते जाना। अकर्म की प्रेरणा रहने से उसके कर्म में प्रतिक्रिया नहीं होती, न बंधन रह पाता है।” मानो कर्म उससे भाग्य ही कराता है। वास्तव में भी तो इसी मत की उन्होंने पुष्टि की है। ‘त्यागपत्र’ के मूल में भी यही स्वर है। ‘कल्याणी’ में वे कहते हैं, “मनुष्य सोचता रहता है। होनहार होता रहता है। यह नहीं और न फिर होनहार में मनुष्य के सोच विचार की गिनती है। सच यह है कि जो होता है, हमारे ही द्वारा होता है, फिर भी वृथा विचार कष्ट ही उपजाता है। इससे आवश्यक है कि विचार हो तो अत्यर्थ हो। भक्तितव्य के साथ जो मंतव्य एक रस है वह ही है, शेष क्लेश है।” मैं उनके वाङ्मय में गोता लगाने लगता हूँ। मुझे इसमें ‘गीता’ के अकर्म की अनुभूति होती है। जैनेंद्र ने खास काम यह किया है कि उन्होंने विभिन्न तत्त्वों को एक धागे में पिरो दिया है। उनका एकाकी अध्ययन मन को बाँटता है, अस्थिरता जन्माता है और चित्त को उद्विग्न करता है।

जैनेंद्र जीवन में प्रेम को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। उनकी दृष्टि में सेक्स, काम और प्रेम-तीनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। वे शरीर संभोग को न तो नकारते हैं और न उससे बंधित होते हैं। वे प्रेम को दृढ़शून्य और संवेदनशील मानते हैं। वे समन्वयवादी हैं। धैर्य से सुनते हैं। समझते हैं। सोचते हैं कि इस थकी-हारी और ऐश्वर्य की ओर भागी जा रही दुनिया को प्रेम जरूरत है। प्रेम में स्वेच्छा से समर्पण है। आज की दुनिया को इसी समर्पण की आवश्कता है। जैनेंद्र ईश्वरवादी हैं। प्रियसी विचार भी उनकी इसी प्रेरणा का फल है। उनकी दृष्टि में हम कुछ नहीं हैं। मैं उनको पकड़ना चाहता हूँ और वह किसी और को पकड़कर सामने लाना चाहते हैं। ऐसे तन्हा लम्हों में जैनेंद्र की आँखों में जो दिव्य दीप्ति झलकती है, वह उनके कहने से भी ज्यादा प्रभावशाली होती है। अनेक बार ऐसा हुआ जब जैनेंद्र से ज्यादा उनकी आँखों ने अकहा उल्था कर डाला। उनका मौन स्वत: मुखर होता गया। उसने क्या कह डाला और मन ने क्या समझ लिया, वह भी गूँगे का गूड़ हो जाता है। यही कारण है कि उनके लेखन में भी वर्षों का ‘गैप’ आ गया। मैं पूछता हूँ कि ऐसा क्यों हुआ?

वे शायद इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते हैं। शायद यह सोचते हैं कि क्या उत्तर दें। लेकिन वे कुछ देर बाद उत्तर देते हैं, “बस, मन नहीं हुआ, सो नहीं लिखा। लिखना जरूरी नहीं हो तो क्यों लिखा जाए, लिखना भी तो अपने आप ही हुआ था सो न लिखना भी अपने आप ही हुआ…इसमें सोचना-विचारना कैसे?”

“परंतु आपने इस बीच में क्या किया?” मेरा अगला प्रश्न था।

“क्यों, क्या करना जरूरी है?” जैनेंद्र सोचते हुए कहते।

“है तो।” मैंने ढीठ बनकर कहा।

“मुझे यह नहीं मालूम था।…आगे से ध्यान रखूँगा।…पर मैं ध्यान रखने वाला कौन हूँ” इसके साथ ही उनकी निगाहें छत को चीरती हुई कहीं दूर चली गईं। वह खखार कर कहने लगे, “ध्यान जिसे रखना है, वही रखेगा। हम तुम चिंता क्यों करें?” इस प्रकार वे हर प्रकार से बच निकलते और बराबर उसके ही होने का एहसास कराते रहते हैं। मैं जितनी बार उनसे मिला, उनको सुना और समझने का प्रयास किया, मुझे लगा कि जैनेंद्र में सैलाब नहीं उठता। वे गाली को भी उतने ही सम्मान से स्वीकार करते हैं, जितने सम्मान से अपनी प्रशंसा को। कलकत्ता समारोह में उनकी उपस्थिति में उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे ‘काँग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के एजेंट हैं। जैनेंद्र ने उसे धैर्य से झेला और विनम्रता से उत्तर दिया, ‘जिन्होंने ऐसा कहा, प्रश्न उनसे होना चाहिए कि किस हेतु से कहा? वह संस्था निषिद्ध भी तो है नहीं, अनिष्ट भी नहीं है और यह मेरे लिए कोई कृतज्ञता की बात भी नहीं है कि मैं उस संस्था से वास्ता नहीं रखता हूँ।’ उनमें गरल पीकर अमृत बाँटने की अद्भुत शक्ति है। मैं ऐसे जैनेंद्र को जानता हूँ, जो अपने से ज्यादा दूसरों को जानता, मानता और समझता है और सम्मान तथा प्यार भी देता है। अपने लिए कुछ नहीं चाहता है। सदा खामोश और स्मित लिये हर छोटे-बड़े इंसान का वह स्वागत करता है। दरअसल उनकी दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा है ही नहीं। सब मानव है और समान हैं। सब प्यार के काबिल हैं। सबको स्नेह-प्यार की जरूरत है और दृष्टि से सबसे होने की पहचान है।

समय बहुत व्यतीत हो चला था। मुझे भी घर लौटना था। मैं नमन कर बैठक से बाहर तो आ गया। परंतु आपने मेरा पीछा करना नहीं छोड़ा। वे भी अपने जानने की मानसिकता से गुजरते हुए अदृश्य भाग्य की चौखट पर अपने को खड़ा पाते हैं। कर्म और ईश्वर का समाधान भी उसी में तलाश कर संतोष पाते लगते हैं। प्रश्न स्वयं में जटिल भी है और स्पष्ट होते हुए भी अस्पष्ट-सा अनुभव होने लगता है, क्योंकि व्यवहारवाद उत्तर की गहराई में जाना नहीं चाहता। दूसरे शब्दों में वह अपने को उलझाकर बहस जारी रखने का पक्षधर नहीं है। मुझे उनसे बात करते हुए बराबर लगता रहा कि कभी जैनेंद्र के निरीश्वरी संप्रदाय से कुछ हटकर और सत्य को ही ईश्वर मानने को तरजीह देकर अपने को न केवल वैष्णव संप्रदाय से अलग दिखलाना चाहते हैं, बल्कि गाँधी के ईश्वर से अपने को सहज अलग कर लेते हैं। फिर भी वे गाँधी की तरह चलने पर जोर देते हैं। यही अस्पष्टता उनके साहित्य की अदृश्य पूँजी है जो उन्हें न दार्शनिक बनने दे सकी और न मात्र विचारक। मैं उनको इतना ही जान-समझ सका कि वे गति में अगति की तलाश करते रहे हैं और अंत में किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर न पहुँच पाने की कोशिश से बचने के लिए भाग्य को ही सर्वस्व मान बैठे हैं।


Image: Svadhinabhartruka
Image Source: Wikimedia Commons
Image In Public Domain