एकांकीकार डॉ. रामकुमार वर्मा
- 1 December, 1951
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- 1 December, 1951
एकांकीकार डॉ. रामकुमार वर्मा
हिंदी एकांकी क्षेत्र में पाश्चात्य टेकनीक एवं विचारधारा का अध्ययन एवं मौलिक प्रतिभा लेकर जो नाट्यकार अवतीर्ण हुए हैं, तथा जिन्होंने अपने मौलिक प्रयोगों तथा कलात्मक समन्वय से हिंदी एकांकी को पाश्चात्य एकांकी साहित्य के समकक्ष पहुँचाया है, उनमें डॉ. वर्मा का कार्य युगांतरकारी है। डॉ. वर्मा ने अपने प्रयोग उस काल में प्रारंभ किए थे, जब नाट्यसाहित्य पुरानी संस्कृत प्रधान शैली पर धीमी गति से चल रहा था।
डॉ. वर्मा स्वयं एक अभिनेता हैं। पिछले अनेक वर्षों से उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय की नाटकीय संस्थाओं का परिचालन और निर्देशन किया है। उन्होंने विविध प्रकार के नाटकों के अभिनय के अनेक सफल प्रयोग किए हैं। “यही वे एकांकीकार हैं, जिनका प्रत्येक नाटक मंच तथा रेडियो पर खेला जा चुका है–अधिकांशत: इनके नाटक खेलने के लिए ही लिए गए हैं।”
1930 में आपने जब एकांकी साहित्य के उद्धार का कार्य प्रारंभ किया, हिंदी साहित्य में एकांकी प्राचीन प्रचलित संस्कृत-बंगला प्रणाली पर चल रहा था। ‘प्रसाद’ का ‘एक घूँट’ प्राचीन संस्कृत परंपरा का प्रतीक था। प्राचीन संस्कृत परंपरा में वर्णित अंक का वह आधुनिक रूपांतर मात्र था। उसमें अंक तो एक ही है, किंतु समस्या का केंद्रीयकरण नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि नाट्यकार उसके प्रति सजग नहीं है। इसके अतिरिक्त उसमें रसोद्रेक के लिए संगीत की व्यवस्था, प्राचीन कालीन विदूषक, स्वगत कथन, विस्तार उसे आधुनिक एकांकी कला से काफी दूर तक हटा हुआ रखते हैं। डॉ. वर्मा ने सर्व प्रथम पाश्चात्य ढंग के प्रयोग प्रारंभ किए। जिस टेकनीक और समस्याओं को लेकर आपने अपने नाटक लिखे वे सर्वथा अभूतपूर्व और मौलिक थे। एक लंबे दृश्य में संपूर्ण घटनाओं को घनीभूत कर पात्रों का चरित्र-चित्रण, परिष्कृत रंगसूचनाओं के प्रयोग, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में वर्मा जी पथ-प्रदर्थक बने।
डॉ. वर्मा एकांकी जगत में पथ-प्रदर्शक माने जा सकते हैं या नहीं? इस विषय पर आलोचकों का विभिन्न मत है। एक स्कूल उन आलोचकों का है, जो डॉ. वर्मा को एकांकी का पथ-प्रदर्शक मानते हैं। इसमें डॉ. सत्येंद्र, रामनाथ सुमन, सत्यप्रसाद थपलियाल एम.ए., देवचंद्र नारंग, प्रो. अमरनाथ, श्री दुलारेलाल और सत्येंद्र शरत हैं।
दूसरा स्कूल उन आलोचकों का है, और जिसमें अग्रगण्य श्री प्रकाशचंद्र गुप्त हैं, जो वर्मा जी की प्रतिभा और प्रखरता तो स्वीकार करते हैं पर उन्हें पथ-प्रदर्शक के रूप में नहीं मानते। ‘हंस’ के एकांकी अंक में प्रोफेसर प्रकाशचंद्र गुप्त ने अपने ‘एकांकी नाटक’ शीर्षक एक निबंध में लिखा था–
“वर्मा जी को पथ-प्रदर्शक के रूप में हम नहीं देख सके, एकांकी नाटक को अथवा हिंदी साहित्य को यहाँ कोई नया पथ नहीं सुझाया गया। सरस भाषा और भावुकता, जो इनके नाटकों के प्रधान गुण हैं, वर्मा जी की निजी संपत्ति है। टेकनीक आदि में वर्मा जी ने कुछ नया अन्वेषण नहीं किया।”
हम उपरोक्त मत से सहमत नहीं हैं, क्योंकि इस निबंध में आगे चल कर हम वर्मा जी की देन पर विस्तार से विचार करेंगे। गुप्त जी का यह मत संभवत: इसलिए हो कि डॉ. रामकुमार वर्मा ने प्रकाशचंद्र गुप्त द्वारा मान्य प्रगतिशील शैली में योग नहीं दिया। प्रगतिशील तत्त्वों का विवेचन न मिलने के कारण गुप्त जी को यह मत बनाना पड़ा होगा। अपनी ‘रेशमी टाई’ की भूमिका में वर्मा जी ने प्रगतिशीलता की आलोचना करते हुए लिखा है–
आधुनिक चिंतन में साम्यवाद के जो विचार उठ रहे हैं, उन्होंने ही हमारे साहित्य में प्रगतिशील रचनाओं को प्रोत्साहित किया है। और हमारे नवीन लेखकों ने प्रगतिशीलता के नाम पर जो अपनी उच्छृंखलता पृष्ठों पर रख दी है, वह हमारे जीवन की नैसर्गिक गतिशीलता से बहुत दूर जा पड़ी है। किसान और मज़दूर की परिस्थितियों का सौ बार नाम लेकर भी हमारे नवीन साहित्यकार हमें साहित्य क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ा सके हैं। उनका चिंतन-पक्ष जितना ही दुर्बल है, साहित्य पक्ष उतना ही निकृष्ट।
हमारे प्रगतिशील कलाकारों ने अपने प्रचारात्मक दृष्टिकोण से साहित्य की चारुशीलता को नष्टभ्रष्ट कर दिया है। मानवी हृदय की अभिव्यक्तियाँ उनके सिद्धांतवाद के बोझ से दब गई हैं। उनके साहित्य के ‘चरित्र’ मनुष्य के नैसर्गिक हाव-भाव के प्रतीक न होकर सिद्धांतों के सीधे-टेढ़े प्रतीक बन कर रह गए हैं। मनुष्य को भूल कर हम ‘वर्ग’ के पीछे पड़ गए हैं। हम वास्तविक वस्तुस्थिति से आँख बंद नहीं करना चाहते, किंतु हम उसके प्रदर्शन में साहित्यिक सुरुचि तो सुरक्षित रख ही सकते हैं, जिसका प्रगतिशील साहित्य में विनाश होता जा रहा है। हमारा अति-आधुनिक हिंदी-साहित्य जिस उच्छृंखलता के साथ जा रहा है, उसमें मुझे भय है, कोई भी उत्तरदायित्व की भावना नहीं जान पड़ती? वह सौंदर्य को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहता है किंतु पुनर्निर्माण के लिए कोई मार्ग निर्धारित नहीं करता। हमारे प्रगतिशील लेखकों की दृष्टि सदैव कुरूपता की ओर जाती है; वे साहित्य में सदैव उसी को अंकित करना चाहते हैं। पहले से वे अपने दृष्टिकोण को साहित्य के व्यापक क्षेत्र में संकुचित बना लेते हैं। वे प्रकृति या जीवन का मंगलमय रूप नहीं देखते, वे एक प्रतिहिंसा लेकर साहित्य का निर्माण करना चाहते हैं। साहित्य की रचना यदि प्रतिहिंसा लेकर हुई तो वह सर्वकालीन सत्य और सौंदर्य से बहुत दूर होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
वे अपनी रचनाओं में कुत्सित चित्रों को उपस्थित करना चाहते हैं। वे इससे चाहे अपने समाज का हित भले ही कर लें, पर साहित्य का हित नहीं कर सकेंगे। उन्होंने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए साहित्य को एक साधन मान लिया है। सामयिक और वर्गगत आवश्यकताओं का बोझ साहित्य को बहुत दूर नहीं चला सकता, यह बोझ से दब कर निष्प्राण अवश्य हो सकता है। फिर इस प्रकार की रचनाओं से हमारे प्रगतिवादी लेखक मंगलमय भावनाओं और चित्रों का आक्रोशपूर्ण बहिष्कार करते हैं। उन्हें गंदी नाली अच्छी लगती है; वे हमेशा भूखे किसान और पसीने की दुर्गंधि में डूबे मज़दूर के ही साहित्य को सिर पर चढ़ा कर साहित्य का शृंगार करना चाहते हैं। भूखे किसान और मज़दूर के चित्र किसी स्थल पर अच्छे हो सकते हैं पर उनका एक मात्र आधिपत्य हमारे साहित्य के बौद्धिक विकास में सहायक नहीं हो सकता…हमारा प्रगतिशील लेखक अश्लीलता के किनारे बैठ कर साहित्य के नाम पर अपनी वासनाओं का नृत्य देखना चाहते हैं।
उपरोक्त उद्धरण में वर्मा जी ने प्रगतिशीलता तथा उससे होने वाली कुछ खराबियों की ओर संकेत किया है। अपने सामाजिक नाटकों में आपने सामाजिक यथार्थ अपनाया है। वे रोमांस पसंद कर सकते हैं, किंतु उसी सीमा तक जब तक कि वह वास्तविक रहे। जीवन के जिन मार्मिक पहलुओं पर उन्होंने प्रकाश डाला है, वे कल्पना की रंगीनी से अनुरंजित नहीं हैं; यथार्थवादी हैं। उन्होंने अपने नाट्य साहित्य में जिन स्थितियों का चुनाव किया है, वे हमारे समाज में सर्वव्यापी हैं। समाज के हित में उन्हें विश्वास है। उनका नाट्यसाहित्य यथार्थवादी होते हुए भी भावनाओं के केंद्र में संचित होकर हृदय का परिष्कार करता है। वे हमारे सभ्य समाज की दुखती नस पर उँगली रख देते हैं। प्रगतिशील लेखकों की तरह वे अपने चरित्रों को सिद्धांतवाद की गाँठों में नहीं कसते।
अनेक आलोचक इस प्रगतिवादी दृष्टिकोण से वर्मा जी को परखते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि वर्मा जी का क्षेत्र हमारे समाज का शिक्षित धन-संपन्न मध्य वर्ग है। उन्होंने इस वर्ग के जीवन का अध्ययन कर भद्र जीवन के व्यक्तियों के प्रेम, ईर्ष्या, संदेह, असंतोष, रूप-मोह, फैशन, रोमांस और विदेशी रंग से प्रभावित युवकों के चित्र खींचे हैं। उनकी समस्याएँ पति-पत्नी के झगड़े, अनमेल विवाहों का मनोवैज्ञानिक विवेचन, शिक्षित समुदाय के मानसिक द्वंद्व, विभिन्न मन:स्थितियाँ तथा मनोवैज्ञानिक जटिलताएँ, भाव-द्वंद्व, रोमांस, सेक्स समस्याएँ, मध्ययुगीन प्रवृत्तियों का विश्लेषण, प्रेमलोक में हृदय की विविध अनुभूतियों का चित्रण, धर्म और प्रेम का पारस्परिक संबंध आदि हैं। इन सभी के चित्रण में सर्वत्र एक नैतिक आदर्शवाद की गुप्तधारा प्रवाहित मिलती है।
स्वभावत: कवि होने के कारण वे कवित्व का हलका उपयोग नाटकों में करते हैं। यह नहीं कि काव्य से ही संपूर्ण नाटक को बोझिल बना दें। इस दिशा में उन्होंने ‘प्रसाद’ साहित्य को पीछे छोड़ कर आधुनिक हिंदी नाट्य साहित्य को आगे बढ़ाया है। ‘प्रसाद’ का नाट्य साहित्य अतिरंजित और काल्पनिक है। वह आधुनिक होते हुए भी पुरानी मान्यताओं से बँधा है। ‘प्रसाद’ ने शेक्सपीअर का अनुकरण यत्र-तत्र किया। वही अतिरंजना, संवादों की लंबाई में काव्यमयी कृत्रिमता, मनोविज्ञान या लोकवृत्ति का अभाव, द्वंद्व की आँधी, जीवन से पलायन करने की प्रवृति।
उन्होंने यूरोप की नाट्य-टेकनीक का अध्ययन किया और नीरसता को बचाते हुए सरस प्रगतिवान कथोपकथन का प्रयोग किया। केवल मनोरंजन या हास्य के लिए पात्रों से देर तक वार्तालाप नहीं कराया। अपने वार्तालापों में घटनाओं के गूढ़ आरोहों और अवरोहों का ज्ञान कराया। शब्दों में ध्वनि और व्यंजना भर दी और पात्रों के चरित्रचित्रण में मनोविज्ञान का प्रयोग प्रारंभ किया। स्वाभाविक होते हुए भी मनोवैज्ञानिक पूर्णता प्रथम बार हमें डॉ. वर्मा तथा श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों में उपलब्ध हुई। पात्रों के हृदय में ही संवाद के स्वर स्वाभाविक रूप से उत्पन्न किए। आमरिंशा नाटककार जे. एम. सिज से प्रभावित होकर उन्हीं की शैली पर आपने मर्मस्पर्शी और संक्षिप्त संवादों का प्रचलन प्रारंभ किया? अपने पात्रों को रंगमंच पर स्वाभाविक बनाने के लिए विशेष ध्यान दिया।
जिस काल में (1930) वर्मा जी ने एकांकी क्षेत्र में प्रयोग किए थे, साहित्य में एकांकियों की कोई पृथक सत्ता नहीं थी, न एक स्वतंत्र माध्यम के रूप में उसे कोई मान्यता प्रदान की जाती थी। अंग्रेजी का प्रभाव हिंदी साहित्य के अन्य माध्यमों (कहानी, कविता, गद्य, आलोचना आदि) पर तो हो चुका था, किंतु एकांकी पर वह स्पष्ट मुखरित नहीं हो पाया था। ‘प्रसाद’ का ‘एक घूँट’ कुछ अंशों में नवीनता की ओर संकेत करता था किंतु उन्होंने पाश्चात्य टेकनीक का कोई विशेष अध्ययन नहीं किया था। श्री भुवनेश्वर ने पाश्चात्य टेकनीक को अपनाया; भावों तथा अंतर्द्वंद्वों की उग्रता दिखाई किंतु मौलिक प्रतिभा के स्पर्श से वे उसे भारतीय ढंग से प्रस्तुत न कर सके। उन्होंने बिना पचाए ही अपने पात्रों को पाश्चात्य आदर्शों के सहारे खड़ा किया था। वर्मा जी ने गहनता से पाश्चात्य टेकनीक का अध्ययन किया और अपनी नाट्य-प्रतिभा के स्पर्श से नए ढंग के मौलिक एकांकियों की सृष्टि की थी। इनके पात्र शक्तिशाली बन पड़े। संभाषणों में इतना वागवैदग्ध्य होता था कि वे ही उनकी गति निर्धारित करते थे। उनके द्वारा पात्रों के भाव और आवेगों का स्पष्टीकरण होता था; घटनाओं की अभिव्यक्ति परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त ढंग से प्रारंभ हुई, हृदय के भावों के अनुसार कथोपकथन का अनुपात निर्णय हुआ, स्वाभाविकता की रक्षा प्रारंभ हुई और तथ्य का निरूपण चरम सीमा में ही जाकर होने लगा। डॉ. वर्मा के एकांकी चरम सीमा में ही समाप्त हुए। इन सभी तथ्यों के प्रयोगों के कारण वर्मा जी इस क्षेत्र में पथ प्रदर्शक बन सके।
ग्रंथों के काल-क्रम को देखने से विदित होता है कि किस प्रकार एकांकीकार रामकुमार वर्मा की प्रतिभा का विकास हुआ है। 1922 में एक कवि के रूप में आपका साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। ‘वीर हमीर’ (काव्य) 1922 में प्रकाशित हुआ, फिर सात वर्ष पश्चात् 1929 में दूसरा काव्य ‘चितौड़ की चिता’ प्रकाशित हुआ। 1929 में आपकी प्रथम आलोचनात्मक पुस्तक ‘साहित्य समालोचना’ प्रकाशित हुई, जिसमें साहित्य के अंगों पर गंभीर विवेचनात्मक दृष्टि से विचार किया गया। 1930 में ‘अंजलि’ (कविता) के साथ-साथ दूसरी प्रसिद्ध आलोचनात्मक पुस्तक ‘कबीर का रहस्यवाद’ प्रकाशित हुई। पाँच वर्ष पश्चात् जब ‘अभिशाप’; ‘रूपराशि’; हिंदी गीतिकाव्य ‘निशीथ’; हिमहास (गद्यकाव्य) प्रकाशित हो चुके, तब 1936 में ‘पृथ्वीराज की आँखें’ प्रथम नाटक संग्रह प्रकाशित हुआ। वे पहले कविता लेकर अग्रसर हुए, बाद में गीतिकाव्य की ओर आकर्षित हुए। प्रौढ़ता प्राप्त करने पर नाटकों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होने पर यह कवि नाट्यकार बन गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘पृथ्वीराज की आँखें’ (एकांकी नाटक) संग्रह में संकलित कृतियाँ अध्ययन के पश्चात् लिखी गई थीं। अध्यापन और आलोचना द्वारा उन्होंने जीवन और साहित्य का पर्याप्त अध्ययन कर लिया था। भाषा पर उन्हें पूर्ण अधिकार था। अपने आलोचनात्मक ग्रंथों में उन्होंने प्रत्येक विषय को, प्रत्येक धारा को, पाश्चात्य नाटकों एवं नाट्य-साहित्य को अपने ढंग से परखा और उसका महत्त्वांकन किया था। “उनके स्फुट रेखाचित्र और एकांकी साफ बता रहे हैं कि कवि में मुक्त उड़ान अब नहीं रही। अब तो वह गाँठ खोलना चाहता है।”
आलोचक प्रकाशचंद्र गुप्त ने स्वयं निम्न शब्दों में वर्मा जी के महत्त्व को स्वीकार किया है–“हाल में श्रीयुत रामकुमार वर्मा के एकांकी नाटकों का संग्रह ‘पृथ्वीराज की आँखें’ नाम से प्रकाशित हुआ है। जितना रहस्यमय शीर्षक है, उतनी असल रचना नहीं। नाटक अच्छे हैं और ऊँची काव्य-कल्पना के गुण उनमें हमें निरंतर मिले। ‘बादल की मृत्यु’ तो नाटक के रूप में कविता ही है। ‘चंपक’ हमें बहुत अच्छा लगा…उच्च मनुष्य स्वभाव के यहाँ विशद चित्र हैं।”1
हम डॉ. सत्येंद्र के मत से सहमत हैं। वर्मा जी के ‘पृथ्वीराज की आँखें’ संग्रह में ‘चंपक’, ‘दस मिनट’ और ‘एक्ट्रेस’ सफल एकांकी हैं। ‘बादल की मृत्यु’ में बादल के मनोवेग सुंदरता पूर्वक अभिव्यक्त किए गए हैं। ‘दस मिनट’ को छोड़ कर प्राय: अन्य सभी नाटकों में, अंत:संघर्ष प्रधान है। क्रमिक उतार-चढ़ाव के सहारे घटना अथवा चरित्र चरम परिणति पर पहुँचता है और अंत में समस्या का हल प्राप्त हो जाता है। सभी नाटकों में उदार, कोमल और त्यागशील भावनाएँ प्रधान हैं। सभी नाटक अभिनय की दृष्टि से सफल हैं और क्योंकि यह हिंदी नाट्य-साहित्य में बिल्कुल ही एक नई दिशा की ओर प्रयास है, बहुत ही श्लाघनीय और पथ-प्रदर्शक हैं।
वर्मा जी का सर्व प्रथम एकांकी नाटक ‘बादल की मृत्यु’ 1929 में विरचित हो कर 1930 में प्रकाशित हुआ था। आप कविता लिखना चाहते थे, किंतु उन मनोभावों को व्यक्त करने के लिए काव्य उचित माध्यम न बन सका। अत: आपने ब्राउनिंग की ‘ग्रो ओल्ड विद मी’ जैसी नाटकीय कविता में इसका सृजन किया। उस समय कवि वर्मा जी पर नाटकीय कविता की शैली का प्राधान्य था। वे प्रारंभ से ही ऐतिहासिक विषयों में दिलचस्पी लेते रहे हैं। उस समय शुजा पर अध्ययन कर रहे थे। शुजा की कहानी में जो एक गुप्त रहस्य है, उसने आपको विशेष प्रभावित किया। पिता पुत्र का युद्ध होना, अराकान के जंगलों में शुजा का गुप्त हो जाना–इस भाव को लेकर आपने ‘रूपराशि’ में शुजा पर एक नाटकीय पद्धति पर कविता लिखी थी। इस मूड में ‘बादल की मृत्यु’ एकांकी की सृष्टि हुई। इस एकांकी में स्वभावत: काव्य का अंश अधिक है किंतु इसमें तीव्र अनुभूति और अंत:संघर्ष का महत्त्व है। इसके संभाषणों में संवेदना और काव्यात्मक भावुकता है। बादल का मनोवेग सुंदरता से अभिव्यक्त किया गया है।
दूसरा नाटक ‘दस मिनट’ (1931) अभिनय प्रेरणा से लिखा गया। इसमें आदर्शात्मक वीरता का करुणाजनक उदाहरण है। इसमें भावुकता का प्राधान्य है, किंतु यह भावुकता काव्यगत भावुकता है। कवि रामकुमार वर्मा की काव्यमय सृष्टि की परंपरा का प्रभाव इस एकांकी में यत्र-तत्र स्पष्ट हो गया है। यह नाटक भी प्रयोगात्मक युग की देन है। अत: इसका संविधान कमजोर है। जहाँ हम एक ओर इसकी काव्यगत सुषमा के कायल हैं, वहाँ दूसरी ओर इसकी स्वाभाविकता में कमी अनुभव करते हैं। केवल मैली दृष्टि से देखने के कारण एक व्यक्ति का दूसरे को छुरा भोंकना बैद्धिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। यह संभव है कि आवेश में कोई अदूरदर्शी व्यक्ति ऐसा कर बैठे किंतु बौद्धिकता की दृष्टि से यह दंड अत्यधिक है।
‘पृथ्वीराज की आँखें’ (1932) बनारस की एक धर्मशाला में बैठ कर लिखा गया था; ‘नहीं का रहस्य’ (1933) तथा ‘एक्ट्रेस’ (1924) भी इसी प्रयोगकाल की रचनाएँ हैं। इनकी विशेषता चरित्र का सौंदर्य और मनोविश्लेषण है। अपने चिरत्रों की ऐतिहासिक सत्यता एवं गढ़न पर वर्मा जी ने सबसे अधिक ध्यान दिया है। इसी प्रकार मनोविश्लेषण के क्षेत्र में आप अंतर्द्वंद्वों को बड़े कलात्मक रूप में प्रस्तुत कर सके हैं। प्रौढ़तम रचनाओं में ये दोनों विशेषताएँ हमें पग-पग पर चकित करती हैं। इन प्रयोगकालीन नाटकों में भी ये क्रमश: विकास पथ पर दीखती हैं। ‘एक्ट्रेस’ की उपेक्षिता प्रभातकुमारी के चित्रण में संकोच, लज्जा तथा विछोह की अग्नि का अंतर्सौंदर्य किसी मनोवैज्ञानिक की आँखें ही देख सकती थीं।
प्रारंभिक नाटकों में ‘दस मिनट’ को छोड़ कर शेष पाँच रचनाएँ–एक्ट्रेस, चंपक, नहीं का रहस्य, बादल की मृत्यु और पृथ्वीराज की आँखें–अंत:संघर्ष प्रधान हैं। वर्मा जी की प्रतिभा बाह्यसंघर्ष की अपेक्षा अंतर्संघर्ष चित्रित करने में विशेष सतर्क प्रतीत होती है। मूल केंद्र पात्र और उसका मनोविज्ञान है। कथानक सर्वथा मौलिक है। कवि होने के कारण आपकी उर्वर कल्पना ने मनोवेगों के चित्रण के साथ भावात्मक प्रवाह का सौंदर्य भी भर दिया है। यह भावात्मकता वहीं उत्पन्न की गई है, जहाँ उनकी संभावना है। नारी पात्रों के हृदय को चित्रित करने में कवि रामकुमार की समस्त संवेदना जैसे उड़ेल दी गई है। चाणक्य, पुष्यमित्र, भीमसिंह इत्यादि के चित्रण में हमें इस भावुकता के कहीं दर्शन नहीं होते। यह भावुकता नारी चरित्र के अंत:सौंदर्य दिखाने में स्पष्ट दीखती है। इनके अतिरिक्त तीन स्थानों पर प्राय: हमें इसके दर्शन होते हैं–
- उन पात्रों के चित्रण में जिनकी संवेदनाएँ उनके स्वभावगत आकर्षण और जीवन के माधुर्य से प्रेरित हो कर उन्हें लालित्य की ओर आकर्षित करती हैं।
- उन मनोवैज्ञानिक गुत्थियों, हृदय के भावों और संवेदनाओं के चित्रण में जो किसी भी पात्र को कला-साधना की ओर आकर्षित करते हैं।
- उन ऐतिहासिक स्थलों के चित्रण में जिनके प्रति इतिहास मौन है। वर्मा जी ने अपनी कोमल तूलिका के द्वारा इतिहास के इन अछूते स्थलों में रंग भर दिए हैं और अपनी काव्यगत माधुरी से उनको सरस और भावुक बना दिया है।
वर्मा जी का दूसरा एकांकी संग्रह पाँच वर्ष पश्चात् 1941 में ‘रेशमी टाई’ नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें ‘रेशमी टाई’ (1938); ‘एक तोले अफ़ीम की क़ीमत’ (1939); ‘18 जुलाई की शाम’ (1937); ‘रूप की बीमारी’ (1940); ‘परीक्षा’ (1940) पाँच एकांकी संग्रहीत हैं। पुस्तक के प्रारंभ में एकांकीकार ने एकांकी की टेकनीक, आदर्श, शैली, अभिनय, यथार्थवाद इत्यादि के संबंध में अपने अनुभव 19 पृष्ठों में लिखे हैं। ये नाटक काफ़ी अध्ययन और मनन के पश्चात् लिए गए थे। इस संग्रह के तीन संस्करण समाप्त हो चुके हैं। हिंदी के किसी भी एकांकी नाटक के संग्रह का इतना प्रचार और मान नहीं हुआ जितना इस संग्रह का हुआ है।
इस एकांकी-संग्रह में एकांकीकार को जीवन के अध्ययन का पर्याप्त अवसर मिला है। वर्षों के साहचर्य से उसे जीवन की प्रत्येक मुस्कान और प्रत्येक उच्छवास की गहराई का ज्ञान है। प्रेम और घृणा में हृदय के स्पंदन की गति से उसके कान परिचित हैं। वह जीवन की बहुत-सी धूसर भुजंग-सी पगडंडियों पर चल चुका है। उसे शायद ठोकरें भी लगी हैं। वह पुरुष और स्त्री के मनोविज्ञान में बैठ कर वास्तविक मनुष्यत्व की रूपरेखा का निर्माण करता है। जीवन के चारों ओर जो घटनाओं का अविराम प्रवाह चल रहा है उसी में से वह अपने एकांकियों के प्राण-तत्त्व खींचता है। नित्य प्रति की घटनाओं को सजीव दृष्टि से देख कर उसकी व्यंजना में कथावस्तु का निर्माण करता है और अत्यंत कौतूहलपूर्ण कथावस्तु को भी अत्यंत स्वभाविक बना देता है। इन एकांकिकों का प्राण संघर्ष है और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण होने के कारण पात्रों की रूपरेखाएँ स्पष्ट हैं। उसके पात्रों के परिचय में संकेतलिपि (बरनार्डशा वाली Elarborate Stage directions पद्धति) विस्तरमय (detailed) और शुद्ध यथार्थ (Accurate) होती जाती है। वह भाव, संभाषण, संबोधन, कथोपकथन में पर्याप्त सतर्क है। रंगमंच पर वह प्रत्येक कुर्सी और मेज़, दरवाज़ा और खिड़की तक का स्थान निर्दिष्ट कर देना चाहता है। रंगमंच के संचालक से वह आशा करता है कि वह पात्र, वेशभूषा इत्यादि का निर्धारण, समाज और परिवार के संघर्षों का चित्रण बिल्कुल नाटककार के मंतव्य के अनुसार करे।
‘रेशमी टाई’ संग्रह का नाटककार मानव जीवन के बाहर नहीं जाता, वह जीवन की दैनिक घटनाओं में से चुन कर केवल कलात्मक रूप से घटनाओं को उपस्थित करता है। “चिरंतन अस्तित्व की पीठिका पर जीवन के कौतूहल को व्यंजनात्मक भाषा में उपस्थित करता है।” वर्मा जी प्रगतिशील लेखकों का जीवन प्रस्तुत करने की शैली के बारे में विभिन्न मत रखते हैं। वे उस प्रगतिशीलता के विरोधी हैं जो साहित्य में केवल भूखे किसान और पसीने की दुर्गंधि में डूबे हुए मज़दूर को सिर चढ़ाता है। जीवन में कुछ मंगलमय भावनाएँ भी हैं। उन्हें भी विकसित होने का अवसर प्राप्त होना चाहिए।
वर्मा जी वास्तविकता (यथार्थवाद) को नाट्य-क्षेत्र के लिए आवश्यक समझते हैं, किंतु उसे अश्लीलता और कुरुचिपूर्ण क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं से बचाना चाहते हैं, जो साहित्य को सर्वव्यापी और सर्वहितकारी नहीं रहने देता। ‘कला कला के लिए’ वाले सिद्धांत के अनुसार वे कलात्मकता के तो पक्षपाती हैं किंतु उसे वहीं तक चाहते हैं, जहाँ तक वह जीवन की वस्तु-स्थितियों को कुरुचिपूर्ण और नीरस होने से बचाता है। अपने एकांकियों के पात्रों में घटनाओं का चित्रण वार्तालाप के सहारे करते हैं। शब्दों में ध्वनि और व्यंजना के लिए सतत उद्योगशील हैं और हाव-भाव के चित्रण में मनोविज्ञान की सहायता लेकर अग्रसर होते हैं। इस संग्रह के एकांकी आयरिश नाटककार जे. एम. सिंज के संवादों से प्रभावित हो कर अत्यंत मर्मस्पर्शी और काव्य छटा से ओतप्रोत हो कर लिखे गये हैं।
वर्मा जी ने इन नाटकों में मनोविज्ञान का तो सहारा लिया है किंतु ‘एक्सप्रेशनिस्ट’ स्कूल की भाँति उसकी अति करने से बचे रहे हैं। रंगमंच पर रूपकों के सहारे वे अपने सिद्धांतों को पुष्ट करना श्रेयस्कर समझते हैं। प्रेम, करुणा और हास्य के रूपक (जैसा पंत जी ने ‘ज्योत्स्ना’ में किया है) रंगमंच पर उपस्थित करने के पक्ष में हैं। रूपकों द्वारा भाव-व्यंजना की तीव्रता में भी आपका विश्वास है।
आपके एकांकी नाटकों में प्रवेश कुतूहलता की वक्रगति से होती है। घटनाओं की व्यंजना वक्र गति से ऊँची उठती है और गति की तरंगों से उठती हुई कुतूहलता से खिंच कर चरम-सीमा में परिणति पाती है। चरम-सीमा के पश्चात् प्राय: नाटक समाप्त हो जाते हैं। आपकी नाटक-भावना जीवन का एक पहलू दिखा कर शांत होती है। जैसे जीवन का एक पृष्ठ उलट गया हो।
वर्मा जी के द्वितीय एकांकी संग्रह ‘चारुमित्रा’ में अंधकार, उत्सर्ग, रजनी की रात और चारुमित्रा चार भिन्न-भिन्न प्रकार के एकांकी संग्रहीत हैं। इसमें नई परिस्थितियाँ व गति है। 1942-48 के मध्य में लिए गए इन चारों एकांकियों में वर्मा जी की लेखनी निखरती हुई प्रतीत होती है। उसने बहुत ऊँची उड़ान भरी है। इस संग्रह में उनका एक दार्शनिक नाटक ‘अंधकार’ भी है, जो कुछ आलोचकों के विचार से हिंदी का ही नहीं, भारतीय साहित्य का एक सर्वश्रेष्ठ एकांकी नाटक है।
‘चारुमित्रा’ नाट्य शैली एवं चरित्रचित्रण की दृष्टि से वर्मा जी का अपूर्व संग्रह है। ‘चारुमित्रा’ एकांकी की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक; ‘रजनी की रात’ की सामाजिक तथा ‘उत्सर्ग’ व ‘अंधकार’ गूढ़ चिंतन प्रधान दार्शनिक नाटक हैं। कवि रामकुमार वर्मा के काव्य-सौकुमार्य के पीछे हलका-सा दार्शनिक तत्त्व छिपा हुआ है। इन दो एकांकियों–‘उत्सर्ग’ एवं ‘अंधकार’ में काव्य और गंभीर चिंतन का सम्मिश्रण है। ‘अंधकार’ को तो एक प्रकार का दार्शनिक रूपक कहा जा सकता है। श्री रामनाथ सुमन ने ठीक ही कहा है कि ‘चारुमित्रा’ संग्रह उनकी प्रतिभा का एक निश्चित और प्रमाणिक रूप हमारे सामने रखता है। ‘उत्सर्ग’ और ‘अंधकार’ हिंदी एकांकी के नवीनतम प्रयोग हैं। वर्मा जी की मौलिक प्रतिभा ने इस क्षेत्र में पथ-प्रदर्शन किया है। एक ओर उनकी प्रखर वस्तुवादिता दृश्य-विधान की सफल योजना में सहायक है, तो दूसरी ओर उनकी कविहृदय कोमलता उन्हें भौतिकवाद की नीरसता से बचाए हुए है। उनका प्रखर यथार्थ भी ऐसा रूप हमारे सामने ले कर आता है कि हम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं और वह हमारा आदर्श बन जाता है। इस आदर्श और यथार्थ की संधि में ही वर्मा जी की ललित कल्पना बड़ी सहायक हुई है।
‘पृथ्वीराज की आँखें’ और ‘रेशमी टाई’ की परिस्थितियों से निकल कर नाटककार आगे बढ़ा है। उसमें गति, अनुभव और प्रौढ़ता है। उत्कृष्ट कला, गंभीर चिंतन (विशेषत: ‘अंधकार’ में) भावना-जन्य कल्पना और मौलिक विचार गुंथन इनकी विशेषता हैं। ऐतिहासिक, सामाजिक एवं दार्शनिक तीनों क्षेत्रों में सफल प्रयोग हैं। संवाद प्रौढ़ता, स्वाभाविक घटनाक्रम, भौतिक और दार्शनिक व्याख्या वर्मा जी के विकास की नई सीढ़ियाँ हैं।
चौथा एकांकी संग्रह ‘विभूति’1943 में प्रकाशित हुआ था। उसमें वर्मा जी ऐतिहासिक एकांकीकार के रूप में प्रकट हुए हैं। इसमें तीन मौलिक ऐतिहासिक एकांकी नाटक–(1) शिवाजी (2) समुद्रगुप्त पराक्रमांक (3) विक्रमादित्य संकलित हैं। ये विशाखदत्त से प्रभावित हैं। इनकी मूल प्रेरणा राष्ट्रीयता, देशभक्ति, चरित्र महत्ता और प्राचीन हिंदू आदर्शों के गौरव का प्रदर्शन है। इसमें एकांकीकार ने मध्ययुगीन भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि पर तीन हिंदू राजाओं का चरित्र अंकित किया है। तत्कालीन सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय नैतिक चेतना का बड़ा सुंदर चित्रण इन तीनों नाटकों में है।
ये तीनों एकांकी अपेक्षाकृत लंबे हैं। ‘शिवाजी’ 76 पृष्ठों का होने के कारण प्रारंभ में बड़ी मंथर गति से चलता है। प्रारंभिक अंश शिथिल है। लेखक का अभिप्राय भी स्पष्ट नहीं होता। इसे ‘शितानी’ के चरित्र के लिए भूमिका स्वरूप कहना ही उचित होगा।
अपने रंगमंच संकेतों द्वारा वर्मा जी और भी विस्तृत हो गए हैं। वे अपना मंतव्य प्रकट करने और जैसा चित्र उनकी कल्पना में है, हू-ब-हू वैसा ही चित्रित करने के लिए सजग हैं। ध्वनि, हावभाव, गति और पात्रों की वेशभूषा के वर्णन में वे अत्यधिक सतर्क प्रतीत होते हैं। कहीं तो रंगमंच-संकेत दो-दो पृष्ठ तक के हो गए हैं। उदाहरण स्वरूप ‘शिवाजी’ एकांकी में शिवाजी का वर्णन इतना लंबा और सूक्ष्म है कि निर्देशक को अपनी बुद्धि बहुत कम लगानी पड़ती है। क्रिया और संघर्ष भी इस संग्रह में उत्तरोत्तर वृद्धि पर हैं।
इस संग्रह की भाषा शुद्ध और सांस्कृतिक हिंदी कही जा सकती है। वह पात्रों के बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विकास की परिचायक है। पात्रों की भाषा काल को दृष्टि में रखकर नियोजित की गई है और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत है। एकांकीकार अभिनयात्मक दृष्टिकोण से पात्रों के मुख से उनकी भाषा नहीं छीनना चाहता। जिस वातावरण में जो पात्र साँस ले रहे हैं, उस वातावरण के अनुकूल भाषा की आयोजना कर उसने स्वभाविकता की सब जगह रक्षा की है। प्राचीन कथानकों के आधार पर लिखे गए इन एकांकियों की भाषा शुद्ध और स्वाभाविक रूप में अच्छी और विशुद्ध हिंदी है। पात्रों के अनुसार वर्मा जी भाषा बदलते गए हैं। सहज, स्वाभाविक और कहीं-कहीं काव्य से भीगी हुई हिंदी का उपयोग यहाँ किया गया है। चरित्रों के चित्रण में प्राय: प्रचलित इतिहास को ही ग्रहण कर लिया गया है।
‘सप्तकिरण’ (1947) के सात एकांकी मानव समस्याओं का सात भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन है। ‘राजरानी सीता’ धार्मिक दृष्टिकोण से, ‘औरंगजेब की आखरी रात’ और ‘पुरस्कार’ राजनैतिक दृष्टिकोण से, ‘कलाकार का सत्य’ आर्थिक दृष्टिकोण से; ‘फेल्ट हैट’ सामाजिक तथा ‘छोटी-सी बात’ पारिवारिक और ‘आँखों का आकाश’ वैवाहिक दृष्टिकोण से लिए गए हैं। इनमें एकांकीकार की कला और भी विकसित अवस्था पर है। उसने “मानव जीवन की अंतर्व्यापिनी संवेदनाओं को घटनाओं के संघर्ष में उभारने की चेष्टा की है। संवादों की रूपरेखा एकमात्र मनोविज्ञानी द्वारा खींची गई है।”
इन एकांकियों के कई तत्त्वों में वर्मा जी की कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची है। संवादों में मनोवैज्ञानिक कुशलता इतनी स्वभाविक रूप से प्रयुक्त हुई है कि प्रत्येक पात्र सजीव और अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं (Individuality) को लेकर प्रकट हुआ है। ‘महारानी सीता’ में सीता की पवित्र स्वामीभक्ति, चरित्र की दृढ़ता, प्रेम और निष्ठा; ‘औरंगजेब की आखरी रात’ में आलमगीर का पश्चाताप और आत्मग्लानि; ‘पुरस्कार’ में नलिन के प्रेम और कर्तव्य का संघर्ष चित्रित किया गया है।
वर्मा जी का ‘ध्रुवतारा’ अपने आदर्शवाद के कारण बहुत उच्चकोटि की रचना है। इसमें सफीयत-उन-निसा का चरित्र-सौंदर्य तथा अपूर्व त्याग कलात्मक रूप में प्रकट हुआ है। ‘कलंकरेखा’ में कृष्णकुमारी के चरित्र-गौरव की प्रतिष्ठा की गई है। ‘स्वर्ण श्री’ अतीत भारत की एक सुंदर झाँकी है। प्रहसन लिखने में भी वर्मा जी ने सफलता प्राप्त की है। उनके नवीनतम प्रहसन ‘छींक’ में एक पुराने विचारों के पंडित जी तथा उनकी पत्नी का हास्य-व्यंग्यमय चित्र खींचा गया है।
1. ‘हंस’ मई, पृष्ठ 725
Image: Arum and Conservatory Plants
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Artist: Pierre-Auguste Renoir
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