शरतचंद्र संबंधी मेरे संस्मरण (तीसरी कड़ी)

शरतचंद्र संबंधी मेरे संस्मरण (तीसरी कड़ी)

उस वर्ष (1923) रायटर ने यह समाचार प्रचारित कर दिया कि इस बार का साहित्य संबंधी नोबेल पुरस्कार किसी भारतीय लेखक को मिलने वाला है। उन दिनों रायटर द्वारा प्रसारित समाचार अकाट्य रूप से प्रामाणिक माने जाते थे। मैं हर्ष से उछल पड़ा। शरत् को छोड़कर और किसी भी दूसरे भारतीय लेखक को नोबेल पुरस्कार मिल सकने की संभावना की बात ही मैं नहीं सोच सकता था। कुछ ही समय पूर्व ‘श्रीकांत’ का पहला भाग अँग्रेजी में अनुवादित होकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित हो चुका था। मैंने सोचा कि उसी अनुवाद से प्रभावित होकर नोबेल पुरस्कार समिति के सदस्यों ने शरत् को पुरस्कृत करने का निश्चय किया होगा। नोबेल पुरस्कार के इस नियम से मैं परिचित था कि पुरस्कार के लिए केवल उन्हीं रचनाओं पर विचार किया जा सकता है जिनका अनुवाद किसी भी एक यूरोपियन भाषा में हुआ हो।

जो भी हो, समाचार पढ़ते ही मैं इस कदर उतावला हो उठा कि तत्काल शरतचंद्र को अग्रिम बधाई देने के लिए दौड़ पड़ा। सुबह प्राय: आठ बजे का समय रहा होगा। जाड़े के दिन थे। शरतचंद्र बाहर दालान में एक आराम कुर्सी पर लेटे हुए थे और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए धूप खा रहे थे। दो अतिरिक्त कुर्सियाँ वहाँ पर रखी हुई थीं। मैं हाथ जोड़कर एक कुर्सी पर बैठ गया और पुलक-भरी प्रसन्नता मुख पर झलकाते हुए बोला–“बधाई देने आया हूँ।”

“किस बात के लिए?” स्नेहपूर्वक मंद-मंद मुस्कराते हुए उन्होंने पूछा।

“नोबेल प्राइज संबंधी समाचार तो आपने पढ़ा ही होगा?”

“हाँ, पढ़ा तो है। पर उसमें यह बात कहाँ कहीं गई है कि पुरस्कार शरतचंद्र को ही मिलेगा?”

“पर रवींद्रनाथ के बाद आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसा भारतीय लेखक है जो इस पुरस्कार के योग्य हो?”

शरतचंद्र ने हुक्के की सटक मुँह से निकाल कर कुर्सी की बाँह पर लटका दी और अधलेटी मुद्रा त्यागकर तनिक मेरी ओर झुककर ठीक से बैठ गए।

“देखो भाई, सच बात यह है कि समाचार पढ़ने के बाद से मेरे मन में भी थोड़ी-सी खलबली मची है,” उन्होंने अपेक्षाकृत धीमे स्वर में कहा “मैं भी तबसे सोच रहा हूँ कि दूसरा भारतीय लेखक कौन हो सकता है जिसे पुरस्कार मिल सकने की संभावना हो। आजकल डॉ. इकबाल की कविताओं की भी इंगलैंड में चर्चा है। अँग्रेजी में उनकी कविताओं का अनुवाद हो चुका है। सरोजिनी नायडू का कोई नया कविता-संग्रह यद्यपि इधर प्रकाशित नहीं हुआ है फिर भी यह असंभव नहीं कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल जाए। इन दो के अलावा एक व्यक्ति और हैं। भारत में उनके साहित्य का विशेष प्रचार नहीं है, पर अँग्रेजी में उनकी कुछ अच्छी चीजें इधर प्रकाशित हुई हैं, जिनकी काफी चर्चा अँग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में हुई है…”

मुझे किसी ऐसे लेखक की जानकारी नहीं थी। मैंने उनका नाम जानना चाहा। जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने उक्त लेखक का नाम सुरेंद्रनाथ बताया। मालूम हुआ कि वह बंगाली हैं पर लिखते अँग्रेजी में हैं और कलकत्ते से प्रकाशित कुछ अँग्रेजी पत्रों में भी उनकी कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।

मैंने पूछा–“आपने उनकी चीजें पढ़ी होंगी; आपको कैसी लगीं?”

“मुझे तो कुछ खास जँची नहीं,” उन्होंने सहज भाव से उत्तर दिया।

“तब आपके मन में यह कल्पना ही कैसे जगी कि उन्हें भी नोबेल पुरस्कार मिल सकने की संभावना है?”

“पाश्चात्य पारखियों के दृष्टिकोण के संबंध में कोई बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती, संभव है कोई विशेषता तुम्हारी और हमारी नजर से छिपी रह जाए और नोबेल पुरस्कार के पारखियों की पकड़ में आ जाए।”

“नोबेल पुरस्कार के पारखियों के संबंध में आपकी क्या धारणा है? उन्हें आप उचित निर्णय के अधिकारी मानते हैं या नहीं?”

“उनके संबंध में यद्यपि मुझे कोई जानकारी नहीं है; तथापि मुझे पूरा विश्वास है कि उनका ज्ञान बहुत गहन और दृष्टि बहुत पैनी होती है।”

“तब आप यह मानते हैं कि वे किसी ऐसे लेखक को पुरस्कार नहीं दे सकते जिसके साहित्य का स्तर बहुत ऊँचा न हो?”

“मेरी यही धारणा है।”

“फिर भी आप यह कल्पना करते हैं कि ऐसे लेखक को पुरस्कार मिल सकता है जिसका साहित्यिक स्तर आपकी दृष्टि में सामान्य है! यह आश्चर्य की ही बात है। आपको भले ही अपनी परख पर विश्वास न हो, पर मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि नोबेल पुरस्कार के किसी भी पारखी की अपेक्षा आपका अंतर्ज्ञान हीन नहीं हो सकता।”

वह मंद-मंद मुस्कराए। बोले–“कुछ कहा नहीं जा सकता भाई, कुछ कहा नहीं जा सकता!”

मैं अपनी अंतर्प्रेरणा से उनके मनोभाव को खूब समझ रहा था, मेरी यह धारणा है। मैं देख रहा था उस महान कलाकार के भीतर मचनेवाली खलबली को जिसके मन में जन-साधारण की तरह ही यह विश्वास जमा हुआ था कि नोबेल पुरस्कार एक महान् विभूति है जो किसी बिरले भाग्यशाली को ही प्राप्त हो सकता है। और अपने भाग्य को उस हद तक प्रबल मानने में शरत् का मन हिचक रहा था। यह अपनी योग्यता पर नहीं, अपने भाग्य पर अविश्वास था। यही कारण था कि उन्हें एक ऐसे लेखक को नोबेल पुरस्कार मिल सकने की संभावना भी दिखाई दी, जिसकी बात दूसरा कोई व्यक्ति कष्ट-कल्पना में भी नहीं सोच सकता था। सोच-सोचकर मुझे मन-ही-मन हँसी भी आ रही थी और दु:ख भी हो रहा था।

उनका मनोभाव जान लेने के बाद मैंने कहा–“देखिए, मैं एक बात आपको साफ-साफ बता देना चाहता हूँ। व्यक्तिगत रूप में मैं नोबेल पुरस्कार को उतना महत्त्व नहीं देता जितना कि साधारणत: दिया जाता है। इसके कई कारण हैं, जिनमें एक तो नोबेल पुरस्कार के पारखियों को न तो दूध का धुला हुआ मानता हूँ और न आपकी तरह मेरी यह धारणा है कि उनका अंतर्ज्ञान बहुत गहन और दृष्टि बहुत पैनी होती है। वे लोग साहित्य के अच्छे ज्ञाता हो सकते हैं, पर उच्च कोटि की साहित्य-कला संबंधी सभी बारीकियों से वह अवश्य ही परिचित होंगे, ऐसा मैं नहीं समझता। उनसे भी बहुत-सी ऐसी भूल हो सकती हैं जितनी आपसे या हमसे। साथ ही वे सभी पक्षपात से बरी होंगे, ऐसा भी मैं नहीं सोचता। एक और कारण यह है कि प्रतिवर्ष इतने अधिक लेखकों की रचनाएँ उनके पास जाती होंगी कि सब को ईमानदारी से धैर्यपूर्वक पूरा-पूरा पढ़ सकना उनके लिए संभव भी न होता होगा। केवल उन्हीं लेखकों की रचनाओं को पढ़ते या देखते होंगे जिनकी सिफारिश किसी मान्य सांस्कृतिक संस्था द्वारा की गई हो। जहाँ तक मुझे मालूम है, नोबेल पुरस्कार समिति ने कुछ इसी उद्देश्य का एक नियम भी निर्धारित किया है। ऐसी हालत में संसार के सभी महान् और प्रतिभाशाली लेखकों की रचनाओं पर विचार कर सकने का अवसर उन्हें प्राप्त होता होगा, ऐसा मैं नहीं समझता। अवश्य ही बहुत से ऐसे योग्य और महान् प्रतिभा-संपन्न लेखक संसार में होंगे जो कुछ विशेष कारणों से लोकप्रिय न हो पाए हों और फलत: उनके नाम किसी भी मान्य संस्था द्वारा नोबेल पुरस्कार समिति के पास भेजे जाने से रह जाते हों। इन और दूसरे कारणों से मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि जिस लेखक को नोबेल पुरस्कार मिला हो वही उस विशेष वर्ष में संसार के सभी विशेष लेखकों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो चुका। पर यह सब होने पर भी मेरा दृढ़ विश्वास है कि आपने सुरेंद्रनाथ नाम के जिस अँग्रेजी में लिखने वाले लेखक का उल्लेख किया है उसे इस जन्म में कभी नोबेल पुरस्कार नहीं मिलेगा।”

“क्यों? ऐसी निश्चित धारणा उसके विरुद्ध तुम्हारे मन में क्यों जगी है, जबकि उसकी कोई रचना तुमने अभी तक नहीं पढ़ी?” स्नेहपूर्वक मुस्कराते हुए शरत् ने कहा।

“जो लेखक अपनी मातृभाषा छोड़कर अँग्रेजी में मौलिक चीजें लिखने का दम भरता हो वह कभी कोई गहरी, चुभती हुई और स्थाई महत्त्व की चीज लिख नहीं सकता।”

“यह तुम्हारा अन्याय है। इस प्रकार का विरोधी संस्कार कभी किसी ‘रेशनल’ सिद्धांत पर आधारित नहीं होता…तुम केवल भाव के आवेश में इस तरह की बात कह रहे हो।”

“ठीक है,” मैंने उसी आवेश के साथ कहा, “मैं मानता हूँ कि मेरी यह बात किसी ‘रेशनल’ सिद्धांत पर आधारित नहीं है। फिर भी मेरी बात में कितनी सच्चाई है इसका प्रमाण आपको जल्दी ही मिल जाएगा।”

कुर्सी की बाँह पर साँप की तरह बल खाती हुई सटक को फिर से मुँह में लगाकर शरतचंद्र ने हुक्का गुड़गुड़ाया। चिलम ठंढी हो चुकी थी इसलिए धुआँ नहीं निकला। उन्होंने नौकर को पुकारा और नए सिरे से चिलम भर लाने को कहा। जब नौकर चिलम लेकर चला गया तब उन्होंने प्रेमपूर्वक मंद-मंद मुस्कराते हुए तनिक संकोच-भरी मुद्रा में कहा–“तो तुम्हारी यह धारणा है कि पुरस्कार यदि किसी भारतीय लेखक को मिल सकता है तो वह केवल मुझी को?”

“मेरी तो यही धारणा है। केवल एक आशंका मेरे मन में है।”

“वह क्या?” उन्होंने तनिक उत्सुक भाव से पूछा।

“आपके ‘श्रीकांत’ का केवल एक ही भाग अभी तक अँग्रेजी में अनुवादित हो पाया है। यदि दोनों भाग1 एक साथ अनुवादित हो गए होते, तो आपका दृष्टिकोण और अधिक सुस्पष्ट हो गया होता। पहले भाग में बहुत-सी बातें अधूरी रह गई हैं। दो-एक पात्रों को छोड़कर शेष सबका चरित्र-चित्रण अधूरा रह गया है। यहाँ तक कि स्वयं नायक का चरित्र ठीक से परिस्फुट नहीं हो पाया है।…”

वह अविश्वासपूर्वक मुस्कराते हुए बोले–“तुम्हारी यह दलील मुझे कुछ जँची नहीं। मेरी अपनी यह धारणा है कि पाश्चात्य जनता केवल ‘श्रीकांत’ के पहले भाग को ‘एप्रीशियेट’ कर सकती है। उसमें अन्नदा दीदी और इंद्र जैसे चरित्र उनके लिए एकदम नए और कौतूहलवर्धक हैं, जो केवल भारतीय वातावरण में ही मिल सकते हैं। दूसरे भाग में विद्रोहिणी अभया, उसका चरित्रहीन और अत्याचारी पति आदि चरित्र ऐसे हैं जिनसे पाश्चात्य देशों के लोग अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिए उनका कोई विशेष महत्त्व उनके लिए नहीं है।”

नौकर ताजा चिलम भरकर ले आया और शरतचंद्र आराम से हुक्का गुड़गुड़ाने लगे।

मैं उनके इस तर्क से प्रभावित न हो सका। मैंने उन्हें बताया कि दूसरे भाग में अभया और उसके पति के अलावा और भी बहुत से ऐसे निम्न-मध्यवर्गीय और प्रोलेतेरियन श्रेणी के बंगाली तथा बर्मी पात्र-पात्रियों का चरित्रांकन किया गया है जिनमें पाश्चात्य पाठक-समाज काफी दिलचस्पी ले सकता है, और चूँकि उन पात्र-पात्रियों का चरित्रांकन बहुत ही सुंदर रूप से हुआ है, इसलिए दूसरे भाग का पहले से कुछ कम महत्त्व मैं नहीं मानता हूँ। इसके अलावा मैंने इस बात पर भी जोर दिया कि दूसरे भाग में कथानायक श्रीकांत और नायिका राजलक्ष्मी (उर्फ प्यारी) के चरित्र और अधिक सुस्पष्ट हो कर उभर आए हैं।

इस बार वह कुछ देर तक मौन रहकर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए शायद मेरी बातों पर विचार करते रहे। उसके बाद बोले–“देखो, क्या होता है। यदि तुम्हारी ही बात मान ली जाए कि अनुवाद अधूरा रह गया है तो भी अब उसका कोई उपचार नहीं हो सकता, क्योंकि नोबेल पुरस्कार समिति का अंतिम निर्णय अब होने को होगा। यदि पुरस्कार मिल गया तो अच्छा ही है, और न मिला तो भी मुझे कोई विशेष खेद न होगा। तुम्हारी इस बात में मैं बहुत-कुछ सच्चाई मानता हूँ कि संसार के सभी बड़े और प्रतिभाशाली लेखकों को नोबेल पुरस्कार मिल ही जाएगा ऐसी कोई निश्चयात्मक बात नहीं है। फिर भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि यह पुरस्कार किसी भी लेखक के लिए है प्रलोभनीय…”

“प्रलोभनीय किस अर्थ में?” मैंने पूछा।

“जिसे यह पुरस्कार मिल जाता है उसकी ख्याति सारे ज्ञात विश्व में बिजली के वेग से फैल जाती है। और इतनी बड़ी ख्याति का प्रलोभन न हो ऐसा कोई कवि या लेखक हो सकता है, यह मैं नहीं मान सकता। मैं इतना बड़ा ढोंगी बनना नहीं चाहता कि तुमसे कह दूँ कि मुझे इसका कोई भी प्रलोभन नहीं है।”

मैं उनकी इस सरल और स्पष्ट उक्ति पर मुग्ध हो गया। कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छाया रहा। मैं मौन भाव से उसके मुख के भाव का अध्ययन करता रहा और वह मेरी ओर अनमने भाव से देखते रहे।

संकोच को प्रश्रय देने वाले उस अशोभन मौन को भंग करते हुए मैंने कहा–आपकी यह सहज स्वीकृति आपके चरित्र की महानता की परिचायक है। पर एक बात इस संबंध में मुझे आपसे और कहनी है। वह यह कि यह केवल इसी देश का दुर्भाग्य है कि बिना नोबेल पुरस्कार पाए यहाँ के प्रतिभाशाली लेखकों की ख्याति समस्त ज्ञात विश्व में नहीं फैल सकती। पाश्चात्य देशों के लेखकों के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। वहाँ विभिन्न देशों में बहुत से ऐसे प्रतिभाशाली लेखक हैं जो नोबेल पुरस्कार न पाने पर भी अनेक नोबेल पुरस्कार-प्राप्त व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक प्रसिद्धि पा चुके हैं।

“जैसे?”

“टाल्सटाय को नोबेल पुरस्कार समिति ने कभी पुरस्कार योग्य नहीं माना, इस तथ्य से आप अवश्य ही परिचित होंगे। पर उसके जीवन-काल में ही उसकी जैसी ख्याति सभी पाश्चात्य और प्राच्य देशों में फैल चुकी थी और आज भी फैली हुई है वैसी शायद ही किसी भी नोबेल पुरस्कार-प्राप्त व्यक्ति को प्राप्त हुई हो। वही हाल गोर्की का है। आनातोल फ्रांस को अभी पिछले वर्ष प्राय: 76 वर्ष की अवस्था प्राप्त कर चुकने पर नोबेल पुरस्कार मिला, पर पिछले पचास वर्षों से संसार भर में उसकी जैसी प्रसिद्धि रही है वह किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्या योग्य है, यह आप मानेंगे। इसी तरह के और भी कई उदाहरण मिल सकते हैं। पर बेचारे भारत के प्रतिभाशाली लेखकों का यह हाल है कि देश के बाहर ख्याति पाने की बात तो दूर रही, देश के भीतर भी (अपने प्रांत को छोड़कर) उनकी ख्याति ठीक से नहीं फैल पाती। आप अपना ही दृष्टांत लीजिए, बंगाल में आपकी ख्याति काफी फैल चुकी है, पर बंगाल के बाहर केवल मुट्ठी भर लोग ऐसे होंगे जो आपके नाम तक से परिचित हों–रचनाओं से परिचित होने की बात दूर रही।”2

“तुम्हारी बात में बहुत कुछ सच्चाई है,” बरबस निकलती हुई लंबी साँस को दबाने का प्रयत्न करते हुए शरतचंद्र ने कहा। “और इसका कारण भी स्पष्ट है। देश के भीतर ख्याति न फैल सकने का कारण है देश में फैली हुई अशिक्षा, सुसंस्कृत साहित्यिक रुचि का अभाव, सामूहिक आर्थिक दुरवस्था, जिसके कारण इने-गिने साहित्य-प्रेमी लोग भी इच्छित पुस्तकों को खरीद कर अंतर्प्रांतीय साहित्य का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकने में असमर्थ हैं। रही विदेशों की बात। सो वहाँ के लोगों को क्या गरज कि यहाँ की भाषाएँ सीखें। उनकी धारणा है कि गुलाम देशों की भाषाओं में कोई महत्त्वपूर्ण साहित्य नहीं मिल सकता। फिर भी कुछ बिरले मनीषी ऐसे भी हैं जो यहाँ के साहित्य में पूरी दिलचस्पी लेते हैं। कुछ ही समय पहले एक इटालियन ने एक लंबी-चौड़ी चिट्ठी मेरे पास भेजी थी जिसमें उसने ‘श्रीकांत’ की बहुत प्रशंसा की थी और लिखा था कि यह रचना आज के विश्व-साहित्य की चोटी की रचनाओं में गिने जाने योग्य है। उसने मूल बंगला में उसे पढ़ा है और अब इटालियन भाषा में उसका अनुवाद करने जा रहा है। कुछ अंग्रेज़ विद्वानों की चिट्ठियाँ भी मेरे पास आई हैं, जिनमें उन्होंने मेरी रचनाओं की प्रशंसा करने के साथ ही आलोचना भी की है। इन चिट्ठियों से पता चलता है कि पश्चिम के विद्वानों में धीरे-धीरे यह विश्वास जगने लगा है कि प्राच्य देशों के लेखक भी संसार को महत्त्वपूर्ण साहित्य दे सकते हैं। रवींद्रनाथ को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद यहाँ के साहित्य के प्रति जो दिलचस्पी वहाँ जनता में जगी थी वह कुछ ही वर्षों बाद फिर उदासीनता में परिणत होने लगी थी। इधर फिर नए सिरे से यह दिलचस्पी जगने लगी है। पर, जैसा कि मैंने अभी कहा वह कुछ इने-गिने विद्वानों तक ही सीमित है। वहाँ की साधारण साहित्यिक जनता की उदासीनता अभी तक वैसी ही बनी हुई है…”

मैंने कहा–“इस उदासीनता को दूर करने का केवल एक ही उपाय हो सकता है–यहाँ के विद्वान आलोचक विदेशी भाषाएँ सीखें और तब उन भाषाओं की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में यहाँ के प्रतिभाशाली कवियों और लेखकों की रचनाओं पर गंभीर विवेचनात्मक रूप से अधिक से अधिक प्रकाश डालें और उनका अधिक से अधिक प्रचार करें। यह प्रचार का युग है, बिना प्रचार के अच्छा से अच्छा साहित्य भी एक कोने में पड़ा रह जाता है। इसलिए संसार की अधिक से अधिक जनता तक अच्छे साहित्य को पहुँचाने के उद्देश्य से प्रचार की सहायता लेनी ही पड़ेगी, प्रचार के अच्छे और बुरे दोनों पहलू हैं। इसी प्रचार के बल पर आज यूरोप और अमेरिका की तीसरी श्रेणी की रचनाएँ भी भारत की साहित्य-प्रेमी जनता के आगे ‘श्रेष्ठ साहित्य’ के रूप में आ रही हैं। भारत के श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली साहित्यिक केवल लेखक की साधना पर विश्वास करते आएये हैं प्रचार पर नहीं, मैं स्वयं भी साधना को ही सबसे पहले महत्त्व देता हूँ। पर साथ ही वास्तविकता के प्रति आँख मूँदकर केवल साधना को लेकर चलना बहुत बड़ी बुद्धिमता का काम है, ऐसा मैं नहीं मानता। साधना पर निश्चय ही अधिक से अधिक जोर दिया जाना चाहिए किंतु साथ ही प्रचारात्मक साधनों का भी उपयोग साहित्य-प्रसार की दृष्टि से करने में हानि के बजाए लाभ ही होगा। तभी भारतीय रचनाएँ और भारतीय प्रतिभा विश्व-साहित्य के प्रांगण में सुधीजनों के बीच में आ सकने में समर्थ होगी।”

“तुम्हारी बात गलत नहीं है,” शरतचंद्र ने सहज भाव से कहा। “पर अभी हमारे पास प्रचार के कोई साधन ही नहीं हैं। इसके लिए अभी हमलोगों के पास न धन-बल है, न जन-बल और न संगठन-बल ही। शासक-संप्रदाय से इस संबंध में कुछ भी सहायता मिलने के बजाय रुकावट ही मिलने की संभावना अधिक है। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए कभी-कभी ऐसा अनुभव होने लगता है कि केवल मौनभाव से अपना कार्य करते चले जाने में ही भलाई है। मैं कभी प्रचार के पचड़े में नहीं पड़ सकता–मेरा स्वभाव ही इसके अनुकूल नहीं है।” यह कहते हुए उन्होंने थोड़ा-सा मुँह बनाया, जैसे आज की दुनिया की झूठी प्रचारात्मक कार्रवाइयों से तंग आ गए हों।

“कोई भी श्रेष्ठ लेखक अपने या दूसरों के प्रचार से संबंधित किसी भी कार्रवाई में योग नहीं दे सकता यह बात मैं पहले ही स्वीकार कर चुका हूँ।” अपनी बात को स्पष्ट करने के उद्देश्य से मैंने कहा। “मैंने जो कुछ कहा उसका तात्पर्य केवल यही है कि देश में कुछ ऐसी सांस्कृतिक संस्थाएँ कायम हों जो अपने यहाँ के उच्चतम कोटि के साहित्य का प्रचार विदेशों में निरंतर करती रहें। शांतिनिकेतन बहुत-कुछ इस काम की पूर्ति कर रहा है, यद्यपि पर्याप्त आर्थिक साधनों के अभाव से उसके कार्यों में बहुत-सी रुकावटें आ रही हैं। अकेले शांतिनिकेतन से हम यह आशा कर भी नहीं सकते कि वह हमारे देश के सभी श्रेष्ठ साहित्यिकों की प्रतिभा को पाश्चात्य जनता में पूर्णतया प्रचारित कर सके। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि देश भर में स्थान-स्थान पर ऐसी साहित्यिक संस्थाएँ स्थापित हों जो इस कार्य में हाथ बटावें। तभी हम अपने साहित्य और संस्कृति के प्रति पाश्चात्य जनता की निपट उपेक्षा के जड़ पाषाण को हिलाने में समर्थ हो सकेंगे।”

बाहर धूप कुछ तेज मालूम होने लगी थी। शरतचंद्र ने कहा–“चलो भीतर चल कर बैठें। चाय भी वहीं पिएँ।” वहाँ से उठकर जब हम लोग भीतर जाकर बैठे तब मैंने फिर नोबेल पुरस्कार की बात चलाई। मैंने कहा–“प्रचार इस युग में ऐसा विकट साधन बन गया है कि नोबेल पुरस्कार की प्राप्ति के लिए भी उसका प्रयोग किया जाता है, और आश्चर्य इस बात पर है कि इस प्रयत्न से अक्सर सफलता भी मिल जाती है।”

“उदाहरण के लिए?”

“रुडयार्ड किपलिंग को ही लीजिए। उसकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों से हम सभी लोग परिचित हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे तो उसकी तथाकथित प्रतिभा बहुत ही हलके ढंग की और ऊपरी स्तर की लगती है। उसकी रचनाओं में हमें जीवन का जो स्वरूप मिलता है वह अत्यंत कृत्रिम और छिछला लगता है और हमारे अंतर्मन में प्रवेश कर ही नहीं पाता। भारतीय जीवन की जो झाँकियाँ उसने अपनी विविध रचनाओं में दिखाई हैं और जिस ढंग के भारतीय चरित्रों का चित्रण किया है उन सब में उसी दृष्टिकोण की प्रधानता है जो एक कुतूहली गोरे का रहता है जब वह बर्बरों के बीच उनकी नृत्य मंडली में या दूसरे प्रकार के उत्सवों में सम्मिलित होता है। ऐसे ओछे ढंग के ‘कलाकार’ को नोबेल पुरस्कार देकर और टाल्सटाय और गोर्की की परिपूर्ण उपेक्षा करके समिति ने अपनी आश्चर्यजनक अज्ञता और अमर्मज्ञता का परिचय दिया है। वह अँग्रेजी पत्रकारों के निरंतर प्रचार की सहज शिकार बन गई।”

नौकर दो प्यालों में चाय दे गया। एक घूँट ले चुकने के बाद शरतचंद्र ने कहा–“किपलिंग को नोबेल प्राइज कैसे और किस कारण से मिल गया इस बात पर सभी साहित्य-विशेषज्ञों को आश्चर्य है। रही टाल्सटाय और गोर्की को पुरस्कार न दिए जाने की बात। जहाँ तक मेरा ख्याल है टाल्सटाय की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ नोबेल पुरस्कार कायम होने के पहले ही निकल चुकी थीं। बाद में उन्होंने जो चीजें लिखीं वे प्रचारात्मक अधिक थीं। गोर्की की रचनाओं में वह आदर्शवादिता नहीं है जिसका विशेष उल्लेख नोबेल पुरस्कार की नियमावली में किया गया है…”

मैं तब तक शरत् की ही प्रेरणा से गोर्की की कई रचनाएँ पढ़ चुका था। उनकी बात बीच ही में काटते हुए मैंने कहा–“तो क्या आपकी भी यह धारणा है कि गोर्की की रचनाएँ विशुद्ध यथार्थवादी हैं और किसी भी प्रकार के आदर्शवाद से रहित हैं?”

शरतचंद्र तनिक मुस्कराए संभवत: मेरी अज्ञता पर। स्नेह घुले स्वर में धीरे से बोले–“गोर्की के यथार्थवाद के भीतर जो गहन और महान् आदर्शवाद निहित है वह अपने ढंग का एक ही है, पर नोबेल पुरस्कार समिति ने जिस आदर्शवाद की शर्त रखी है वह है पुराने ढंग का परंपरा-प्रचलित सुधारवादी आदर्शवाद…”

“और किपलिंग में वह आदर्शवाद उन्हें मिलता है?” मैंने चाय का अंतिम घूँट समाप्त करते हुए तनिक शिकायत-भरे स्वर में कहा।

वह हँस पड़े। बोले–“तुम फिर किपलिंग पर चले आए। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उसे एक अपवाद मान लो।”

मैं इस बात पर गौर कर रहा था कि शरतचंद्र के मन में नोबेल पुरस्कार समिति की साहित्य-समीक्षा संबंधी बुद्धि की विशेषता पर अटूट विश्वास है। पर मेरा विश्वास कई कारणों से टूट चुका था, हालाँकि मैं स्वयं इस बात के लिए बहुत उत्सुक था कि शरतचंद्र उस विश्व-विख्यात पुरस्कार द्वारा सम्मानित हों, और उसके द्वारा सारे संसार में उनके साहित्य का मुक्त प्रचार हो।

नौकर ने बताया कि तीन व्यक्ति मिलने के लिए आए हैं। शरतचंद्र ने बिना जाने ही कि वे लोग कौन हैं और किस लिए आए हैं, उन्हें बुला लाने का आदेश दिया।

तीनों व्यक्तियों ने आकर श्रद्धा और संकोच-भरी विनम्र मुस्कान मुख पर झलकाते हुए शरतचंद्र के प्रति हाथ जोड़े। तीनों की अवस्था प्राय: तीस के आस-पास लगती थी। उनमें से एक की ओर देखकर शरत् ने कहा–“बोसो बोसो! कोबे एले?” उसके बाद दूसरे व्यक्तियों से बोले–“आपनाराओ बोसून। एँदेर परिचय दाओ हे!”

तीनों बैठ गए और शरतचंद्र के पूर्व-परिचित सज्जन ने अपने दो साथियों का (जो खद्दरधारी थे) परिचय दिया। मालूम हुआ कि दोनों काँग्रेसी कार्यकर्ता हैं और किसी ग्रामीण क्षेत्र में काम करते हैं। शरतचंद्र ने बिना भूमिका के उन लोगों से प्रश्न पर प्रश्न शुरू कर दिया और दोनों अपने क्षेत्रों की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ बताने लगे। मैं अपने को हंसों में काग का-सा अनुभव करता हुआ उठ खड़ा हुआ और शरतचंद्र से हाथ जोड़कर विदा हुआ।

मेरे कमरे से बाहर निकलने के पहले ही उन्होंने पीछे से कहा–“फिर कब आओगे?”

मैंने लौटकर कहा–“जल्दी ही आने का प्रयत्न करूँगा” और फिर हाथ जोड़कर बाहर निकल गया। कुछ समय बाद यह पता चला कि रायटर ने नोबेल पुरस्कार संबंधी जो खबर भेजी थी वह गलत थी।


1. तब तक शरत् ने ‘श्रीकांत’ के केवल दो ही ‘पर्व’ लिखे थे और उस समय तक उनका विचार उसे और आगे बढ़ाने का नहीं था।                                                                                      –लेखक

2. तब तक शरतचंद्र के नाम से परिचित लेखक या पाठक हिंदी संसार में भी उँगलियों में गिने जाने योग्य थे,महाराष्ट्र और गुजरात में तो शायद इतने भी नहीं थे।                                          –लेखक


Image: Still life. Vase with flowers on the window
Image Source: WikiArt
Artist: Paul Gauguin
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इलाचंद्र जोशी द्वारा भी