सामने सागर भरा फिर भी रहे प्यासे!
- 1 October, 1951
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- 1 October, 1951
सामने सागर भरा फिर भी रहे प्यासे!
सामने सागर भरा फिर भी रहे प्यासे!
हो गए जीवन अनोखी एक उपमा-से,
प्रेयसी के हो चुके कवि बहुत ये झाँसे!
ये कनूके फाड़ फेंके प्रेम-पत्रों के,
प्याज़ के छिलके, उखाड़े पंख पाखी के
कब्र पर बिखरे जुही के फूल हैं सूखे!
भीति भी है, प्रीति भी है, गीत क्या सूझे?
इस अबूझे चित्त में हैं एक से दूजे।
हार मेरी भावना तुम संग बुत पूजे!
दुर्ग के खँडहर, निपोरे दाँत ये ईंटे,
याद हैं जैसी दरारें, स्वप्न हों टूटे,
मानवी लत है जहाँ मीठा तहाँ चींटे!
ज्वार उठ्ठा ही नहीं सागर कई फूटे
पत्र लिखे ही नहीं वादे किए झूठे।
Image: The Artist In His Studio
Image Source: WikiArt
Artist: Rembrandt
Image in Public Domain