हिंदी नाटक की नवीन धाराएँ
- 1 November, 1951
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- 1 November, 1951
हिंदी नाटक की नवीन धाराएँ
“हिंदी का नाटक-साहित्य कई सीढ़ियाँ पार करके आगे बढ़ा है। जहाँ उसे संस्कृत-साहित्य से प्रेरणा मिली है, अन्य भाषाओं से उसे जी उठने का वरदान प्राप्त हुआ है।”
नाटक साहित्य का वह अंग है, जिसमें साहित्य रस-रूप धारण करके गतिशील होता है और जीवन के प्रत्येक प्राण-स्पंदन को साहित्य का रूप देकर उसमें एक नया आनंद, नई स्फूर्ति देता है। अपने रूप-विधान द्वारा शिक्षित-अशिक्षित, बालक-बूढ़े सबको वह आत्मानुभूति में तन्मय कर देता है। नाटक ही वह साहित्य है, जिसमें न केवल लेखक और उसके पात्रों की, बल्कि पाठक और दर्शक की भी आत्मा बोल उठती है। इसलिए इसे दृश्य काव्य कहा गया है और इसका दृश्य होना ही इसकी सार्थकता है।
हिंदी का नाटक-साहित्य कई सीढ़ियाँ पार करके आगे बढ़ा है। जहाँ उसे संस्कृत से प्रेरणा मिली है, अन्य भाषाओं से भी उसे जी उठने का वरदान प्राप्त हुआ है। एक समय था, जब हिंदी में नाटक या तो संस्कृत की छाया लेकर लिखे जाते रहे या फिर उनका अनुवाद हुआ। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से पूर्व नाटक का न तो रूप परिष्कृत हुआ था और न उनका दृश्यत्व ही सफल हुआ था। उस समय तक हिंदी के नाटक का स्रोत संस्कृत ही था। अँग्रेजी का भी कुछ प्रभाव बंगला के द्वारा माना जा सकता है। यहाँ तक कि जयशंकर प्रसाद के काल तक संस्कृत और बंगला का मिश्रित प्रभाव उनके नाटकों पर पड़ा। नाटकों में रूप तथा वस्तु-विभाजन, दोनों क्रियाओं का संविधान नई परिस्थितियों से हुआ है। प्राचीन नाटकों की परंपरा भी इसीलिए प्रसाद तक ही सीमित रही है। उन्होंने अपने नाटकों में नान्दी, सूत्रधार विष्कंभक, आकाश-भाषित आदि को कहीं-कहीं स्थान दिया है। उनके अंतिम नाटकों में यह प्रक्रिया लुप्त भी हो गई है। इसलिए मेरा मत है कि जयशंकर प्रसाद प्राचीन और नवीन दोनों के बीच की कड़ी हैं। वस्तु के विभाजन एवं वस्तु-संगठन की दृष्टि से भी वे प्राचीन के ही पक्षपाती रहे हैं। एक बात और। अँग्रेजी-साहित्य के प्रचारित होने से पहले तक और बाद में भी हमारे साहित्य की दृष्टि भूत की ओर ही रही। साहित्यिक का ध्येय यही माना जाता रहा कि साहित्य का सृजन केवल भूत को आधार मान कर ही हो सकता है। जैसे साहित्यिक का जीवन से कोई संबंध न हो। इस विचार-धारा के कारण नाटक ही नहीं, साहित्य के प्राय: सभी अंगों का सृजन इसी धारणा को लेकर हुआ। फलत: नई दृष्टि प्राप्त होते ही हिंदी-नाटकों ने पुराना चोला बड़ी कठोरता से उतार फेंका नाटकों के नान्दी, सूत्रधार, विष्कंभक आदि सभी बदल गए। वस्तु में भी परिवर्तन होने लगे। इसका कारण मनुष्य का घोर रूप से यथार्थवादी होना था। यथार्थता की इस दृष्टि ने भूत के प्रति मोह को कम करके उसे जनवादी बनाया। और कुछ नाटककारों ने इब्सन, मेटरलिंक, शा आदि के नाटकों से प्रेरणा प्राप्त करके उन्हें हमारे देश की समस्याओं को आधार मानकर चलने की ओर बाध्य किया। नर-नारी के दायित्व, उनके परस्पर संबंध की चर्चाएँ हुईं, यह अतीत का तिरस्कार परंपरागत पुरुष-स्त्री की रूढ़ियों के प्रति विद्रोह था, जिसने नारीत्व को नए रूप में, नई निष्ठा के साथ प्रतिष्ठित किया। यही नहीं, इसी यथार्थवादी दृष्टि ने सामाजिकता को भी प्रश्रय दिया। मोटे तौर पर, संस्कृत के नाटकों से दूर होने पर जो नवीनताएँ आईं, वे इस प्रकार हैं।
1. संस्कृत नाटक जटिल नियमों से बँधे थे। हिंदी का नाटक उनसे मुक्त हो गया।
2. नाटकीय संकेत संस्कृत नाटकों में नहीं के बराबर थे; किंतु हिंदी नाटकों में उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से स्थान प्राप्त हुआ। आज का हिंदी नाटक रंगमंच में मकान, कोठी, कमरा, सजावट, चित्र तथा बैठने-उठने, हाव-भाव दिखाने आदि सभी का निर्देश करता है। वह पात्र की आयु, शरीर की बनावट, अवस्था तथा वस्त्र पहनने, चलने तथा उसकी प्रकृति, उसके विचार सभी ठीक-ठीक तरह विश्वास के साथ निर्दिष्ट करता है। जैसे उसने उस व्यक्ति का कल्पित चित्र प्रत्यक्ष कर लिया हो। घटना के होने में काल का स्थान महत्त्वपूर्ण है। आज का नाटककार घड़ी और मिनट तक का वर्णन नहीं भूलता।
3. प्राचीन नाटकों में नान्दी, मंगलाचरण, प्रस्तावना, सूत्रधार, विष्कंभक आदि होते थे। आज के नाटककार को यह सब वस्तुएँ व्यर्थ लगती हैं। वह नेपथ्य का बहुत कम प्रयोग करता है। विष्कंभक के बिना भी उसकी गति नहीं रुकती।
4. आज नाटकों में प्राचीन नाटकों की तरह संधि, नायक-नायिकाओं, विशेष प्रकार, उनके विशेष गुण–धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीर-ललित आदि होना भी आवश्यक नहीं है। इस दृष्टि से भी हिंदी का नाटक मुक्त है। आज के नाटक का पात्र संसार का कोई भी व्यक्ति हो सकता है।
5. टेकनीक का बंधन अर्थात् रंगमंच की लंबाई-चौड़ाई के विधान का बंधन भी शिथिल हो गया है। खुले मैदान ‘ओपन एयर थियेटर’ तक नाटक का गमन हो गया है।
6. आज के नाटक में वस्तु और विषय दोनों में क्रांति हुई है। सोद्देश्य, समस्या-प्रधान, सामाजिक, राजनीतिक, प्राकृतिक नाटकों की रचना पिछले दिनों में हुई है। एकांतिक अथवा स्वयं संभाषणशील भी इसी युग में लिखे गए हैं। प्राचीन नाटक के नौ अंक पाँच अंकों में, फिर तीन अंकों में और अंत में एकांकी भी इसी युग का परिष्कार माना जाएगा। वैसे संस्कृत में एकांकी नाटक थे, उनका प्रचार भी था। जैसे रूपक के दस भेद–नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक, ईहाभृग तथा उपरूपक के अठारह भेद-नाटिका, गोष्ठी, सदृक, नाट्य, रासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेखण, संलापक, श्रीगभूत शिल्पक, विलासिका, दुर्वल्पिका, प्रकरणिका, हल्लीश और मानिका, इनमें आज के नाटक के सभी बीज तत्त्व वर्तमान हैं। वस्तुत: साहित्य में मौलिक तत्त्व सदैव एक-से रहते हैं; केवल समयोपेक्षित उनके रूप बदल जाते हैं। उनकी दृष्टि में अंतर आ जाता है। क्योंकि साहित्य जीवन के साथ चलता है। जीवन की प्रगति ही साहित्य को गतिमान करती है। यह गतिमत्ता प्रत्येक साहित्य के अंग में समय-समय पर अपना प्रभाव डालती है। यह वस्तुत: जीवन की परिस्थितियों, दृष्टि एवं मर्यादाओं से प्राण लेकर जैसे ही मनुष्य को बदलती है, वैसे ही साहित्य को नई प्रेरणा देती है। हमारे जीवन में इसीलिए न तो सर्वथा नया ही हुछ होता है और न हम पुरानी वस्तु से ही बँधकर रह सकते हैं। आज भी कपास, रूई, रेशम वही है, जो आज से एक हजार वर्ष पहले थे; किंतु उनके फार्म–रूपों में भेद हो गया है। आज महाभारत काल के कपड़े पहनकर मनुष्य बाजार में नहीं फिर सकता। आज के लिए तो आज की बनावट के, सिलाई के कपड़े चाहिए। भोजन में भी इसी प्रकार परिवर्तन होते गए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन के मौलिक तत्त्व सदा एक-से होते हैं। उनके स्थूल रूप-विधानों में परिवर्तन होता है। साहित्य में यही दशा है। नाटकों का दृश्यत्व आज भी अक्षुष्ण है। उनकी पात्रता भी मूल रूप में वही है। संवाद द्वारा कथा-वस्तु का निर्वाह भी वही है; किंतु जैसे-जैसे आवश्यकता मनुष्य को मजबूर करती है, वैसे साहित्य का ध्येय और उसके दृश्य रूप बदलने लगते हैं। नाटक-साहित्य में भी इसी प्रकार परिवर्तन हुए हैं। प्राचीनकाल में नाटक का ध्येय मनोरंजन, राजाओं का विलास-सौंदर्य प्रदर्शन था। अथवा, किसी अवसर-विशेष के ऊपर खेले गए नाटकों का वह अवसर ही उसकी उपयोगिता थी। फिर भी तत्कालीन आधारण जीवन-वर्णन के अतिरिक्त वे नाटक न तो किसी विशेष समस्या का समाधान करते थे और न उन नाटकों में सर्वसाधारण की आत्मा ही बोलती थी। समय बदलता गया और नाटकों में भी परिवर्तन होते गए। संस्कृत का मृच्छकटिक नाटक भी उस काल के नाटकों की प्रथा में एक क्रांति है। यद्यपि नाटक-शृंखला एवं उसके रूप-विधान में वह भी पूर्णत: बँधा हुआ है। यह परंपरा निरवच्छिन्न रूप से नाटक-साहित्य में प्रचलित रही। मेरा विश्वास है–कविता की तरह नाटक साहित्य में जो बहुत परिवर्तन नहीं हुए, उसका कारण भारतीय रंगमंच का और स्पष्टत: हिंदी रंगमंच का अभाव था। अन्यथा हिंदी में भी कई ऐसे क्रांतिकारी नाटक लिखे जा सकते थे। हाँ, तो आज के नाटक में वाह्य और आभ्यंतर सभी प्रकार के बदलाव हुए हैं। वस्तु, शैली, अभिव्यक्ति, संवाद तथा अंतर्द्वंद्व, इन सब में; किंतु इन सबका कारण, जैसा कि मैंने अभी कहा, समाज और उसकी परिस्थितियाँ हैं। परिस्थितियों ने, उनमें बहुत-सी राजनीतिक भी थीं, नाटक-साहित्य को जनोन्मुख होने को बाध्य कर दिया। तदनुसार ही वस्तु में भेद एवं उसकी दृष्टि में परिवर्तन हुआ। आज के नाटक की वस्तु एक तरह से जनव्यापी हो गई। कोई भी वस्तु, जिसमें संघर्ष, अभिव्यक्ति एवं अंतर्द्वंद्व की गुंजाइश है, नाटक की वस्तु हो सकती है। मजदूरों की हड़ताल के दृश्य से लेकर मनोवैज्ञानिक तक, सभी प्रकार के संघर्ष, जिनमें जीवन को फूटने, विकसित होने का अवसर मिलता है, आज के नाटक की वस्तु हो सकती है। धर्म, समाज, राजनीतिक सुधार के सभी विषय, जिनके द्वारा नाटककार मनुष्य के दंभ पर चोट कर सके, उसको ग्रहण कर लेता है। इस परिवर्तन का कारण है साहित्य का जीवनव्यापी एवं उपयोगितावादी होना। इसी उपयोगितावाद ने मनुष्य एवं लेखक की दृष्टि को यथार्थवादी बना दिया। आज दिन-प्रतिदिन के जीवन-संघर्ष ने, अभावों के पर्याय ने मनुष्य के उर्वर कल्पना-क्षेत्र को आकाश से नीचे ला कर पृथ्वी पर पटक दिया है। दिन-दिन होने वाले युद्ध, अशांति, अभाव-पीड़ा की तरंगों ने उसमें ताजमहल, अजंता की गुफाओं के सौंदर्य-दर्शन द्वारा मनोरंजन पा सकने की क्षमता को हीन कर दिया। इसीलिए कल्पनाप्राण कविता–रोमांस के प्रति मानव बुद्धि में एक प्रकार का अंतर्द्वंद्व उठ बैठा है। और इसी हेतु नाटक की वस्तु, प्रत्येक व्यक्ति की समस्याओं और प्रत्येक समाज की समस्याओं ने जो सामाजिक रूप ग्रहण किया है उसका प्रतिबिंब आज के नाटक में भी प्रतिच्छायित होता है। कदाचित् यही कारण है कि देश और काल की सीमा से विच्छिन्न होकर सृजन देशव्यापी समस्याओं के रूप में व्याप्त हो गया है। फलत: इन दिनों समस्या-प्रधान नाटकों का विस्तार हुआ और उनके द्वारा लेखक ने विभिन्न प्रश्नों का हल प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। उस प्रयत्न के लिए, थोड़े में अधिक कह डालने के लिए शैली और अभिव्यक्ति ने नए-नए रूप ग्रहण किए। संवादों में सीधापन, तर्क, व्यंग्य को प्रधानता मिली। अंतर्द्वंद्व को प्रमुख स्थान दिया गया। गतिक्षिप्रता ने नाटक में नई दृष्टि से उसकी वस्तु को प्रत्यक्ष स्पष्ट बना दिया। इधर हिंदी में बड़े नाटकों की अपेक्षा छोटे नाटकों के लिखने का भी प्रचलन बढ़ गया है। इसका कारण जहाँ समय की बचत है वहाँ लेखकों में बड़ी वस्तु की संकलनात्मकता, संगठितता का अभाव भी दिखाई देता है। विवेचना, विषय के प्रति एकनिष्ठता, तन्मयता के अभाव ने भी कदाचित् महाकाव्य, बड़े नाटक और महान् उपन्यासों के प्रति लेखक में विरक्ति उत्पन्न कर दी है। यह बात आज के युग में अन्य युगों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है। मैं नहीं मानना चाहता कि इसका कारण प्रतिभा-शून्यता है किंतु जीवन-संघर्ष की तीव्रता और भविष्य दृष्टि का अस्पष्ट होना अवश्य है। हाँ, तो आज का नाटक-साहित्य भी कदाचित् इसी ऊपर कहे कारण के अनुसार नाटकों की सृष्टि कर रहा है।
फलत: एकांकी नाटकों द्वारा व्यंग्य को आधार मान कर समाज के अंग-उपांगों, व्यक्ति की दुर्भावनाओं, राजनीतिक विभीषिकाओं पर चोट करना तथा गुणावगुण का प्रदर्शन आज के हिंदी नाटक का लक्ष्य है। मैं मानता हूँ, यदि आज कालिदास होते तो निश्चय ही शकुंतला न लिखकर आज के अभावों, अशांति, संघर्षों का चित्रण करते जिसमें हमारा जन-जीवन प्रतिबिंबित होता और होता वर्ग संघर्षजन्य अभिशापों का तीक्ष्ण तिरस्कार।
इसलिए आज के युग ने साहित्य को जो प्राण, रस, जो भोजन दिया है हिंदी का नाटककार भी उसी चेतना को लेकर जागरूक है।
Image: Indian Theatrical Group in Bombay in the 1870s
Image Source: Wikimedia Commons
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