उपन्यास-एक दृष्टिकोण

उपन्यास-एक दृष्टिकोण

उपन्यासों को देखने का लेखक का अपना दृष्टिकोण है। विशुद्ध भारतीय परंपरा की पृष्ठभूमि में उपन्यासों को रख कर देखने का यह प्रयास पाठकों को रुचेगा, ऐसा विश्वास है। –संपादक

साहित्य के इतिहास की दृष्टि से काल को उसी तरह अनेक युगों में बाँटा जा सकता है, जैसे भूतत्त्वविज्ञान, जीव-विज्ञान, आदि की दृष्टि से। इसका कारण यह है कि प्रत्येक युग की सभ्यता विशिष्ट सिद्धांतों पर टिकी होती है और उस समय के मानव-जीवन में उन्हीं सिद्धांतों की पूर्ण, अथवा आंशिक अभिव्यक्ति होती है। इसलिए साहित्य और कला, जो मानवहृदय और बुद्धि के भावों और विचारों को प्रकट करते हैं, उन्हीं मौलिक सिद्धांतों से सदा प्रभावित रहते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि हृदय की नैसर्गिक माँगें सभी युगों में एक ही रहती हैं, तथापि, जैसे शर्बत को शीशे, मिट्टी, चाँदी, सोने, आदि के पात्रों में दिया जा सकता है, उसी तरह उन माँगों को अनंत रूपों में प्रकट किया जा सकता है। इसी रीति से एक युग था जब मनुष्य अपने भावों और विचारों को ऋचाओं में ही व्यक्त करता था। संसार में, वेदों के समकालीन साहित्य के अभाव के कारण हम यह नहीं कह सकते कि दूसरे देशों में प्राथमिक साहित्य का कोई दूसरा रूप भी हुआ कि नहीं। गद्य-साहित्य का आविष्कार पद्य के बाद ही हुआ था। यह वैदिक-साहित्य के अध्ययन से ही स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि गद्य पहले-पहल ब्राह्मण-काल में ही पाया जाता है, जो ऋग्वेद-काल से बहुत पीछे आया। इसका अर्थ यह नहीं कि वैदिक जनता ऋचाओं में ही वार्तालाप करती थी, किंतु इससे यही अनुमान किया जा सकता है कि उस समय गद्य साहित्य का उचित माध्यम नहीं समझा जाता था।

साहित्य का विस्तार मानव जीवन की उन्नति और विस्तार के अनुकूल ही होता है, और जिस काल में जैसी शैली और भाव की प्रधानता रहती है वह काल उसी के नाम से प्रसिद्ध होता है। इसी से वह काल, जब भारत में सूत्रों की भरमार थी, सूत्र-काल के नाम से विख्यात है। उसी नियम के अनुसार आज का दिन उपन्सास-काल कहलाने योग्य है। आज संसार में, प्रतिवर्ष, कितने उपन्यास लिखे और छापे जाते हैं कहना असंभव तो नहीं, परंतु अत्यंत कठिन है। यदि हम संसार को छोड़ दें, और भारत पर ही ध्यान सीमित रखें, तब भी हम देखेंगे कि भारतीय उपन्यासों का निर्माण आश्चर्यजनक है। और हिंदी में तो उपन्यासों और छोटी कहानियों की ऐसी भरमार है, कि हिंदी साहित्य उनसे लद-सा गया है। उनमें अधिकांश ऐसे ही होते हैं, जो असंस्कृत बुद्धि और हीन विद्या वाले मनुष्यों को आकर्षित करते हैं; और समय का मूल्य न जानने वाले प्राणियों के लिए समय नष्ट करने के साधन बनते हैं। जिस किसी को हिंदी में कुछ लिखने की इच्छा होती है, वह छोटी कहानियों अथवा उपन्यासों से ही श्रीगणेश करता है। पाठकों की रुचि और मानसिक परिधि का इसी से पता चलता है कि जब उच्चकोटि की पत्रिकाओं, निबंधों और पुस्तकों की माँग अत्यंत सीमित है, टकाही कहानियों अथवा उपन्यासों को प्रकाशित करने वाली पत्रिकाओं की माँग दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है। खेद तो यह है कि इनकी खपत अधिकतर छात्रों और नवयुवकों में ही होती है। ऐसी कहानियों और उपन्यासों की जाँच करने पर पता चलेगा, कि नाम-ग्राम छोड़ कर, उनमें भारतीयता का गंध तक नहीं रहता। यदि नाम-ग्राम बदल कर अँग्रेजी नाम ग्राम रख दिए जाएँ, तो स्पष्ट हो जाएगा कि उस कहानी-उपन्यास को कोई भी पाश्चात्य लेखक लिख सकता था। ऐसी अवस्था के कारण पर आगे चल कर विचार किया जाएगा, यहाँ पर उपरोक्त आलोचना को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण दिए जाते हैं।

श्री हरिश्चंद्र ने मौलिक नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ लिखा और ‘दुर्लभ बंधु’ के नाम से शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद भी किया। इसी तरह प्राचीन ‘कथा सरित्सागर’ के प्राय: सभी सभ्य देशों में अनुवाद हो चुके हैं और अनेक रूपांतर भी हुए हैं। किंतु अनुवादों से, अथवा रूपांतर भी करने से इन ग्रंथों का उद्भव कभी संशयमय नहीं रहता, क्योंकि एक में आर्य और दूसरे में पाश्चात्य संस्कृति कूट-कूट कर भरी हुई है।

भारतीय साहित्य के लंबे इतिहास के अध्ययन से हमें एक बात स्पष्ट हो जाती है। जब कभी हमारे पूर्वजों की दृष्टि में, किसी अन्य देश की कोई बात ग्राह्य प्रतीत होती थी तो वे उस पर अपनी भारतीय संस्कृति की ऐसी पुट देते थे कि उसकी विदेशीयता नष्ट-प्राय हो जाती थी। इसका एक बड़ा उदाहरण हमारा प्रचलित ज्योतिष-शास्त्र है। यह अब सिद्ध हो गया है कि यह विद्या यवनों (ग्रीकों) की देन है।1 परंतु भारतीयों ने जिस कंकाल को लिया उसे अपने परिश्रम और अन्वेषण के फलों से यों ढक डाला, कि आज उसकी मौलिक विदेशीयता स्वीकार करना कठिन हो जाता है। अशोक ने तो अपने शिलालेखों में विदेशी राजाओं के नामों को भी भारतीयता दे दी है, जैसे, ‘अलेकजेंडर’ का ‘अलीकसुदर’, ‘टोलोमी’ का ‘तुलुमय’ आदि। विख्यात गुणाढ्य की प्रसिद्ध ‘वृहत्कथा’ पैशाची भाषा में लिखी गई थी, और कुछ विद्वानों का अनुमान है कि उसमें कतिपय कथाएँ अन्य देशों से ली गई थीं जैसे फारस, तुर्कीस्तान, पिशाच देश आदि। गुणाढ्य की वह अमूल्य कीर्ति तो नष्ट हो गई, किंतु सोमदेव की ‘कथासरित्सागर’, जिसे सोमदेव ने ‘वृहत्कथा’ के आधार पर ही लिखा है, आज भी प्राप्त है। उसकी कथाओं को पढ़ने पर हठात् यह कहना असंभव हो जाता है कि अमुक कथा विदेशी है, यद्यपि अनेक कथाओं का रूपांतर, ईरान, अरब, ग्रीस, इटली, स्वीडन आदि देशों में प्रचलित पाया जाता है। इसका कारण यही है कि उन पर भारतीयता की गहरी छाप पड़ गई है। किंतु आज हमारे लेखकों में वह शक्ति ही न रही।

अधिकांश भारतीयों में तो यह भ्रम भी रहता है कि ‘उपन्यास’ पाश्चात्यों की देन है। इससे जब वे उपन्यास लिखने बैठते हैं तो पाश्चात्य-जीवन, विचार और कला को आदर्श बना कर उसका अनुकरण करना ही उत्कृष्ट समझते हैं। कहीं पर तो पाश्चात्य आचार-विचार भारतीय पट पर खींच दिए जाते हैं जो अत्यंत असंगत होते हैं।2 अत: ‘उपन्यास’ के इतिहास का अध्ययन करना मनोरंजक और लाभदायक भी होगा। इसके पहले पाश्चात्य और भारतीय संस्कृतियों पर तुलनात्मक दृष्टि डाल लेना लाभदायक होगा।

प्रत्येक जाति के जीवन के मूल में कुछ ऐसे सिद्धांत रहते हैं, जो उस जाति को पृथ्वी की सभी अन्य जातियों से विशिष्ट बनाते हैं। किसी समाज का अध्ययन तब तक अधूरा ही रह जाता है, जब तक हम इन मौलिक सिद्धांतों और प्रेरणाओं को ढूँढ़ नहीं निकालते। ये सिद्धांत प्रत्येक जाति के धर्मसंबंधी विचारों में ही स्पष्ट रूप में पाए जाते हैं और उनका प्रभाव उस जाति के आदर्शों, जीवन के उद्देश्यों और समाज के संगठन में व्यक्त होता है। पाश्चात्य जीवन इस मौलिक सिद्धांत पर अधिष्ठित रहता है कि भगवान (जो पिता रूप हैं) ने मनुष्य को अपने समान रूप का बनाया और समस्त सृष्टि के अन्य जीवों को–कीट-पतंगा, पेड़-पौधे, फल-मूल, द्विपद, चतुष्पद, खगादि को उसी के सुख के लिए ही बनाया। भगवान् की कृपा को न भुलाना, उनका नित्य गुणगान करके उन्हें प्रसन्न रखना और उनके क्रोध का पात्र न बनना ही इहलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है; और उन्हीं को प्रसन्न करके हम स्वर्ग को पा सकते हैं, जहाँ सभी पार्थिव सुखों की पराकाष्ठा चिरंतन रूप में प्राप्त होती है। इसलिए पाश्चात्य जीवन का स्वाभाविक उद्देश्य पार्थिव सुखों की पराकाष्ठा को प्राप्त करना ही हो जाता है। साधनों के विषय में भले ही मतभेद हो, किंतु उद्देश्य और आदर्श एक ही रहते हैं। साहित्य और कला तो सामाजिक जीवन को अंकित करने वाले दर्पण हैं। पाश्चात्य साहित्य और कला यदि उपरोक्त आदर्शों और प्रेरणाओं को ही अंकित करते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जब शारीरिक और मानसिक सुख के रूप में इंद्रिय-तृप्ति ही जीवन का लक्ष्य बनाई जाएगी, तो स्पष्ट है कि मनुष्य उस अनित्य, परिवर्तनशील, अपूर्ण संसार में आकर, अप्राप्य वस्तुओं और अवस्थाओं में अनुरक्त हो न केवल स्वयं दु:खी, विप्लवी और असहनशील हो जाएगा, परंतु जीवन मात्र को संघर्षमय, प्रतिद्वंद्वियों से भरा, “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाला क्षेत्र समझने लगेगा और इस सिद्धांत का भक्त हो जाएगा कि “आप भला तो जग भला”। जब ऐसे विचार मानव जीवन पर अधिकार कर लेते हैं, तो इंद्रियों का नियमन एक हँसी की बात हो जाती है। आदर्शों की चर्चा गपोड़, काल्पनिक, अपुष्ट मस्तिष्कों का गढ़ंत, अस्वाभाविक तक कही जाने लगती है। जब किसी समाज का वातावरण ऐसे विचारों से भर जाता है, तो उसका साहित्य वैसी परिस्थिति का चित्रण करने पर बाध्य हो जाता है। यही कारण है कि यूरोप के अधिकांश उपन्यासों में ऐसे ही चित्रों की प्रधानता हो गई है, जिनमें उच्छृंखलता, स्वार्थपरता और संकीर्णता अनियंत्रित भावों से प्रेरित कच्चे विचारों की लपेट में आकर्षक रूप धारण कर लेती हैं और हिंदी के साधारण उपन्यासकार उन्हीं को आदर्श मानकर, हिंदी की उन्नति करना चाहते हैं।

मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उपरोक्त कारणों से पाश्चात्य उपन्यासकार निम्न कोटि के हैं; परंतु भारतीय सिद्धांतों के अनुसार जिस कला ने मानव स्वभाव को देवत्व की ओर उठाने का ध्येय नहीं रखा, वह तो व्यभिचारिणी कही जाने योग्य है। इस देश में उसी वाणी की सराहना की जाती थी जो ‘संस्कृता’ (पवित्र) होती थी; वही विद्या विद्या मानी जाती थी जो ‘अनवद्या’ (निष्कलंक) होती थी। यहाँ पुस्तकों की जाँच करने वाले (बुध) होते थे, और जिसका वे आदर नहीं करते थे, “सो श्रम वृथा बालकवि करहीं”, “कीरति भणित भूति भलि सोई। सुर सरि सम सब कंह हित होई।” ये नियम भारतीय संस्कृति के मूलाधार “सर्वे संतु सुखिन: सर्वे संतु निरामय:” से ही निकले हैं, क्योंकि यह सिद्धांत तब तक चरितार्थ नहीं हो सकता, जब तक सभी कर्म इसी के अनुकूल नहीं किए जा सकते। पाश्चात्य सिद्धांत (कला कला के लिए) भारतीय कलाकारों का आदर्श कभी नहीं हुआ। वे तो, अपनी संस्कृति के अनुसार “सत्यं, शिवं, सुंदरं” के ही पुजारी थे।

किंतु भारतीयों और पाश्चात्यों में इतना ही भेद नहीं है। यूरोप के सभी देशों में लेखकों की दो श्रेणियाँ हैं–आदर्शवादी और यथार्थवादी। बहुत लोग ‘यथार्थवाद’ उसी को कहते हैं, जिसमें सामाजिक नियमों का विरोध करने वालों, उच्छृंखल इंद्रियों से प्रेरित मनुष्यों और मानव स्वभाव की कमजोरियों के हृदय ग्राही चित्र खींचे जाएँ। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि आदर्शवाद और यथार्थवाद का विभाजन मौलिक होने पर भी, अस्पष्ट विचारों पर अधिष्ठित है। (Real) यथार्थ के विषय में विचारकों में आदि से ही मतभेद चला आता है, और जब तक यह परिवर्तनशील सृष्टि रहेगी, तब तक यह भेद रहेगा ही। जहाँ पाश्चात्यों ने इस दृष्टिगोचर प्रपंच को सत्य माना है, वहाँ भारतीयों ने इसे ‘माया’ कहा है। जहाँ पाश्चात्यों ने इस संसार से अधिक से अधिक इंद्रिय-सुख प्राप्त करना ही जीवन का ध्येय बना लिया है, वहाँ भारतीयों ने इसके प्रलोभनों को दमन करके उनसे ऊपर उठना, स्वतंत्र अवस्था का निर्माण करना ही सर्वोच्च ध्येय माना है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारतीयों ने इस लोक से मुँह मोड़ लिया है; वे इस लीक को अपने उच्च आदर्शों में ढाल देने का प्रयत्न करते हैं। “विद्यां या विद्यां च यस्तद्वेदो भयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतम श्नते।” इन कारणों से जब पाश्चात्यों में आदर्शवादी और यथार्थवादी का विभाजन अनिवार्य है, वहाँ भारतीयों में यह विभाजन असंगत है।

भारत के राष्ट्रीय, धार्मिक या साहित्यिक इतिहास का प्रारंभ अज्ञात, अंधकारमय शताब्दियों के उदर में छिपा हुआ है। किंतु जब उस अंधकार का परदा हटता है, तो हम वेदों और उनमें वर्णित समाज को जानकर, उनकी श्रेष्ठता, पूर्णता और विकास पर चकित रह जाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि उस सुदूर समय में उनकी बराबरी में आनेवाला न कोई दूसरा ग्रंथ, न समाज ही मिलता है। दूसरा कारण यह है कि भारतीयों के सभी विकासों का बीज इन्हीं वेदों और वैदिक-समाज में ही पाया जाता है। अत: यदि हम उपन्यासों का भी बीज वेदों में ही पावें, तो यह आश्चर्य की बात न होगी!

मनुष्य तो स्वभाव से ही संघ-चारी जीव है और वह जहाँ भी पाया जाता है, समाज के एक अंग के रूप में पाया जाता है। समाज की भित्ति भावों और विचारों के आदान-प्रदान पर ही खड़ी की जा सकती है। साथ ही साथ स्पष्ट है कि मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य क्षुधा-निवृत्ति है और इसके लिए शारीरिक और बौद्धिक श्रम अनिवार्य हो जाता है। श्रम और विश्राम परस्पर संबद्ध हैं क्योंकि बिना विश्राम के न तो शक्तियों का संचय हो सकता, न उनमें नवीनता लाई जा सकती। अब यह प्रश्न उठता है कि यह विश्राम का समय कैसे व्यतीत हो? इसका उत्तर भारतीय संस्कृति ने जोरदार शब्दों में दिया है–

“शास्त्र काव्य विनोदेन कालोगच्छति धीमतां।

व्यसनेन च मूर्खानां निद्रया कलहेन वा॥”

बुद्धिमानों का समय शास्त्र और काव्य में विनोद पाते हुए व्यतीत होता है; मूर्खों का समय व्यसन, निद्रा वा कलह में व्यतीत होता है;

एक आधुनिक अँग्रेज कवि ने भी लिखा है–

“Rest is not the quitting this busy career;

It is the fitting of one’s self to one’s sphere.”

[विश्राम का अर्थ कार्य (व्यवसाय) छोड़ कर बैठना नहीं है; विश्राम से मनुष्य अपने को अपनी परिस्थिति के योग्य बनाता है।] उपरोक्त श्लोक में ‘शास्त्र-काव्य-विनोद’ ध्यान देने योग्य है। भारतीयों ने सनातन से ही समय का मूल्य जाना था और इसी से उनका ध्येय विश्राम के समय में भी उच्च-आदर्शों और उच्च-प्रयत्नों का वातावरण बनाए रखना था।

उपरोक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि ‘शास्त्र काव्य’ को मनोरंजक रूप देकर, उनमें जनता का मन लगा देना भारतीयों के लिए परमावश्यक था। इस भाव के मूल में जगत् का मंगल साधने का, अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का और मानवता को एक स्तर ऊपर उठाने का उच्च आदर्श था। इस महान् कार्य को संपन्न करने के लिए साहित्य और कलाकारों के सर्वोच्च गुणों की आवश्यकता थी; दुधमुँहे, वागा-उम्बरो को सार मानने वाले, इंद्रियोन्माद के चश्मे से नवीनता ढूँढ़ने वाले लेखकों से ऐसे कार्य नहीं बनते। भारत का भरा-पूरा साहित्य-भंडार इस बात की पुष्टि करता है।

भारत में कथा बनाने और कहने की कला वेदों के समय से ही चली आती है। यद्यपि ऋग्वेद धर्मग्रंथ है, उसमें भी देवताओं, ऋषिओं और राजाओं की रोचक कथाएँ आ ही गई हैं। ब्राह्मण और उपनिषद् काल में आख्यानों और कथाओं की बहुलता हो गई। बुद्धदेव और महावीर जिनके जन्म के पहले से ही जातकों, महाभारत और रामायण में संग्रह की हुई कथाओं की स्थिति सिद्ध हो चुकी है और पुराणों का पूर्व रूप भी उसी युग का माना जाता है। हमें इसके प्रमाण भी मिलते हैं कि प्राचीन भारत के प्रत्येक ग्राम और नगर में ऐसे केंद्र बनाए जाते थे जहाँ सभी निवासी एकत्रित हुआ करते थे और भिन्न-भिन्न साधनों से मनोविनोद किया करते थे। यह केंद्र स्थानीय सभा-भवन (जिसे पाली में संठागार कहा जाता था) ही होता था। इन साधनों में सबसे लोकप्रिय और प्रचलित साधन सूतों द्वारा गाये गए कथानकों का सुनना था। बड़े-बड़े राजाओं और महर्षियों के महायज्ञों के समय भी दैनिक पूजा-पाठ, हवनादि के बाद विख्यात सूतों से प्रसिद्ध कथाओं को सुनने की प्रथा थी और इसी तरह रामायण और महाभारत की कथाएँ प्रकाशित हुई थीं। इन बातों से स्पष्ट है कि दूसरी जातियों में हो व न हो, भारतीय आर्यों में कथा बनाने और कहने की कला अत्यंत प्राचीन है और कहा जा सकता है कि यह कला आर्य-जीवन का अंग ही बन गई है। परंतु, इतना ही नहीं। इस भारतीय कला ने संसार के सभी देशों को प्रभावित किया है, इसमें अब कोई संदेह नहीं रह गया है।

उपन्यास के इतिहास में हम धर्म प्रधान वैदिक साहित्य को छोड़ सकते हैं यद्यपि उस साहित्य में भी अनेक मनोहर कहानियाँ पाई जाती हैं जैसे उर्वशी और पुरुरवा की कथा, विख्यात राजा सुदास पर दस संगठित आर्य और दस्यु राजाओं का आक्रमण, शंख और लिखित की चकित करने वाली कथा इत्यादि। इन्हें छोड़ कर हमें निम्नलिखित कथाओं के वृहत् संग्रह मिलते हैं।

  1. बौद्ध जातक
  2. दिव्यावदानादि बौद्ध ग्रंथों में दी हुई कथाएँ
  3. रामायण, महाभारत और पुराण
  4. गुणाढ्य की वृहत्कथा (जो नष्ट हो गई)
  5. दंडी का दशकुमार-चरितम्
  6. कादंबरी, हर्ष चरितम् (बाण)
  7. ईसा के पहली दस शताब्दियों में लिखी गई प्राकृत और अपभ्रंश की बहुत सी पुस्तकें
  8. पंचतंत्र
  9. कश्मीरी सोमदेव की ‘कथा सारित्सागर’ और जैन, गंगधारा-निवासी सोमदेव की ‘यशस्तिलक’
  10. बेताल पंचविंशति आदि (बैताल पचीसी)
  11. सिन्हासन द्वात्रिंसिका (सिन्हासन बतीसी)

भारत का कथा-भंडार इतना विस्तृत है कि सभी ग्रंथों की सूची बनाना इस समय असंभव-सा प्रतीत होता है। किंतु यह पूर्ण भंडार ‘शास्त्र-काव्य-विनोद’ वाले आदर्श का उदाहरण रूप ही है।

इस तरह हम देख पाते हैं कि भारतीय-साहित्य के (उपन्यास) कथा-विभाग का इतिहास अनेक सहस्त्र शताब्दियों में फैला है। इस लंबे काल को, हम मोटा-मोटी चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। (1) प्रारंभ से बुद्ध काल तक–धर्म प्रधान युग (2) बुद्ध काल से ईसा जन्म तक–पाली युग (3) ईसा काल से चौदहवीं शताब्दी तक–संस्कृत और अपभ्रंश युग (4) चौदहवीं शताब्दी से आज तक–प्रांतीय भाषा युग। आज तक भारतीय साहित्य के इस विभाग का विदेशों में ही वैज्ञानिक नियमों के अनुसार अध्ययन किया गया है। संभव है कि जब भारतीयों की दिलचस्पी इस ओर फिरेगी और इस विषय का स्वतंत्र और सूक्ष्म अध्ययन होने लगेगा तो उपरोक्त विभाजन में उलट-फेर आवश्यक प्रतीत होगा। किंतु इस लेख के लिए यह विभाजन पर्याप्त है। प्रथम युग की कथाएँ, किसी धार्मिक व सामाजिक सत्य पर प्रकाश डालने, सिद्ध करने, व खंडन करने के अभिप्राय से कही गई हैं। दूसरे युग की कथाओं का ध्येय तो वही रहता है, किंतु सामाजिक गुण-दोषों का सूक्ष्म चित्रण प्रकट होने लगता है। तीसरा युग पाश्चात्य रोमांसों की बराबरी करने वाले रोमांसों का सृजन काल है, जैसे दशकुमार चरितम्, कादंबरी कथा सरित्सागर, चरास्तिलच और अपभ्रंश और प्राकृत में लिखीं अनेक पुस्तकें। तीसरे युग की पुस्तकों का प्रभाव भारत के बाहर दूर-दूर देशों में पड़ा। पंचतंत्र के आधार पर ‘अन्वर सुहैली (पिलपे की कहानियाँ)’ फारसी में लिखी गई, और ‘खलीला दाम्ना’ उसी की कुछ कहानियों का संग्रह है। गुणाढ्य की ‘वृहत्कथा’ अथवा सोमदेव की ‘कथासरित्सागर’ से ‘अल्लिफ लैला’ प्रभावित हुआ। इन अरबी-फारसी की पुस्तकों से ‘जेस्टा रोमेनोरम (jesta Romanorum)’ और बोकैचियो की ‘डि कैमेरन (De Cameron)’ प्रभावित हुईं। इन दो विख्यात पुस्तकों ने यूरोप के प्रत्येक देश के साहित्य को प्रभावित किया। अनेक विद्वानों के घोर परिश्रम से सिद्ध हो गया है कि ‘पंचतंत्र’ तथा ‘कथा सरित्सागर’ की अनेक कथाएँ, कुछ हेर-फेर के साथ यूरोप के प्रत्येक देश में फैल गई हैं।

कितने आधुनिक हिंदी उपन्यासकारों और कहानी लेखकों को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि अन्य देशों की तो बात ही क्या, भारत के दूसरे प्रांतों में भी उन्हें ऐसी ख्याति मिले?


1. निश्चयात्मक रूप से यह कह सकना कठिन है । बल्कि इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले इसके विपरीत मत रखते हैं । भारत से ही ज्योतिषशास्त्र ग्रीकों द्वारा यूरोप में फैला ।–संपादक.

2. यद्यपि यह ठीक है कि उपन्यास स्वत: पश्चिम की देन नहीं । फिर भी उपन्यासों का वर्तमान कलेवर बहुत अधिक मात्रा में पश्चिमी साहित्य द्वारा गढ़ा गया है । और समय की गति के साथ-साथ विचारों की एकदेशीयता कितनी कम हो गई है यह किसी से छिपी नहीं । आज विचारों की दुनिया में विशुद्ध एकदेशीय कहकर क्या कोई चीज रह गई है?             –संपादक.


Image: The Reader (Marie Fantin Latour, the Artist’s Sister)
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Artist: Henri Fantin-Latour
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