हिंदी कहानी-साहित्य की नवीन धाराएँ

हिंदी कहानी-साहित्य की नवीन धाराएँ

हिंदी का कहानी-साहित्य कई मंजिल पार कर आज की अवस्था को प्राप्त हुआ है। अनेकानेक प्रभावों और परिस्थितियों ने जैसा असर डाला उसका विश्लेषण और उसकी रूपरेखा हिंदी के कुशल लेखक के इस निबंध में देखिए –संपादक

कहानी आज के हिंदी साहित्य का सबसे पुष्ट अंग है। हिंदी कहानी में भारत की नव चेतना जिस अनुपात से प्रतिबिंबित हुई है उस अनुपात से वह, कविता को छोड़ कर और किसी क्षेत्र में नहीं हुई। परिमाण की दृष्टि से भी कहानी की यही स्थिति है। यह एक साथ उसका गुण और दोष दोनों है। गुण इसलिए कि उसमें जनमत को प्रभावित करने की शक्ति अधिक है। दोष इसलिए कि कहानी के नाम पर प्रकाशित होनेवाला आज का अधिकांश साहित्य सस्ता है।

हिंदी में आधुनिक कहानी का जन्म पचास वर्ष से अधिक पुराना नहीं है। मई 1907 की ‘सरस्वती’ में बंग महिला की एक कहानी प्रकाशित हुई थी। उसका नाम था ‘दुलाई वाली’। वह हिंदी की सबसे पहली कहानी थी जो आधुनिक कहानी के सबसे अधिक पास थी परंतु इसके चार साल बाद तक इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कोई दूसरी कहानी प्रकाशित नहीं हुई। सन् 1911 में श्री जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा में ‘इंदु’ का प्रकाशन शुरू हुआ और इसी वर्ष उसमें उनकी कहानी ‘ग्राम’ प्रकाशित हुई। इसमें जमींदार के अत्याचार का वर्णन था। बस इसके बाद आधुनिक कहानी की धारा बह निकली परंतु इस धारा को वास्तविक मार्ग दिखाने वाले थे मुंशी प्रेमचंद जिन्होंने पुरातन और नवीन कहानी के अंतर को स्पष्ट किया। वे पहले महायुद्ध के बीच सन् 1916 में उर्दू से हिंदी में आए और सबसे पहले उन्होंने कहानी में मनोविज्ञान का प्रयोग किया। उन्होंने अपनी कहानी ‘आत्माराम’ में तोते के प्रति महादेव के तीव्र स्नेह और धन पाकर उसकी मानसिक भावनाओं के परिवर्तन का जो चित्र खींचा है, वह उसे पुरानी कहानी से अलग करता है। मन की अवस्था का चित्रण कितना स्वाभाविक है–“अकस्मात उसे ध्यान आया कहीं चोर आ जाय तो मैं भागूँगा क्यों कर? उसने परीक्षा करने के लिए कलसा उठाया और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पड़ता था उसके पैरों में पर लग गए।”

लेकिन आधुनिक कहानी केवल मनोविज्ञान के कारण ही प्राचीन से अलग नहीं है। उसके और भी कारण हैं। प्राचीन कहानी में अलौकिक और आकस्मिक घटनाओं की प्रधानता रहती थी। घटना-चमत्कार, उपदेश, अभौतिक और अतिभौतिक सत्ता का उपयोग तथा निर्णयात्मक प्रवृत्ति आदि कुछ तत्व उसके लिए अनिवार्य थे। मनोरंजन उसका एक मात्र लक्ष्य था। परंतु आधुनिक कहानी में अलौकिक और अभौतिक से हट कर भौतिक सत्ता, राजा-रानी और अभिजात वर्ग से हट कर जन साधारण तथा संयोग के स्थान पर मनोविज्ञान का प्रयोग शुरू हुआ। मनुष्य की बाह्य प्रवृत्ति के स्थान पर अंत:प्रवृत्ति का चित्रण होने लगा। टेकनीक की दृष्टि से भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। पुरानी कहानी का आरंभ होता था “एक था राजा से” और अंत “जैसे उनके दिन बीते वैसे सबके बीतें” ऐसे किसी भरत-वाक्य से। पर आज का लेखक कथावस्तु के बीच में से ही कहानी शुरू कर देता है। उदाहरण के लिए एक कहानी का आरंभ देखिए–

“वारंट?”

“मेरे नाम?”

“हाँ, तुम्हारे नाम।”

“मैं न चलूँ तो…।”

“कानून कहता है तुम्हें चलना पड़ेगा।”

और अंत की तो आज किसी को चिंता ही नहीं रही है! इन सब परिवर्तनों को देख कर कहा जा सकता है कि आधुनिक कहानी में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के साथ-साथ, जीवन के यथार्थ चित्रण की प्रवृत्ति बढ़ी। कहानी का सत्य जीवन के सत्य के समीप आने लगा।

पर यह परिवर्तन कैसे हुआ। अभी कहा गया है कि हिंदी में आधुनिक कहानी का जन्म 50 वर्ष पूर्व बीसवीं सदी के साथ-साथ हुआ। उस काल तक भारत में अँग्रेजी राज की सत्ता स्थापित हो चुकी थी, परंतु अँग्रेज भारत में अपना शासन विधान लेकर ही आए थे। वे उसके साथ अपनी सभ्यता, संस्कृति और सबसे बढ़ कर वैज्ञानिक आविष्कारों का चमत्कार भी लाए। उन्होंने यहाँ स्कूल और कॉलेज खोले तथा अस्पताल और न्यायालय आदि की स्थापना की। प्रेस, तार, डाक और रेल आदि के प्रचलन के बाद भारतीय मानस में एक अद्भुत क्रांति मच उठी। इस काल के अधिकांश सुधार आंदोलन किसी न किसी रूप में पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित हैं।

वस्तुत: पाश्चात्य शिक्षा आलोचनात्मक और वैज्ञानिक है। उसने तथा तत्कालीन समाज-सुधार आंदोलनों ने भारतीय मानस में शंका के अंकुर उत्पन्न कर दिए। वह रूढ़िवादी परंपरा का विरोध करने लगा। परंतु विद्रोह की यह भावना सामाजिक कुरीतियों और पुरोहित वर्ग तक सीमित नहीं रही, उसने तत्कालीन जमींदार के अत्याचार के विरुद्ध भी युद्ध-घोषणा की। ऐसी स्थिति में पारस्परिक एकता और भूमि के प्रति ममता का उदय होना स्वाभाविक होता है। ऐसी ही परिस्थिति में मानवता जागती है और वर्ग-भेद प्रबल होता है।

तो यह अवस्था थी जब हिंदी कहानी के पर निकले और वह उड़ने लगी। ठीक इसी समय महात्मा गाँधी, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में मानव अधिकारों के लिए सफल युद्ध लड़ा था, भारतीय स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सत्ता से निशस्त्र जूझने की तैयारी कर रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि जो विद्रोह पुरोहित और जमींदार के विरुद्ध जाग उठा था उसने अब अँग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध घोषणा की। यद्यपि आतंकवाद के प्रयोग चल रहे थे, तो भी गाँधी की अहिंसा-नीति के कारण विद्रोह में कटुता नहीं आई। सन् 1927-28 तक के साहित्य में सामाजिक चेतना के साथ-साथ इसी राष्ट्रीय चेतना का प्रभाव दिखाई देता है। ‘समर यात्रा’ के लेखक मुंशी प्रेमचंद और ‘उसकी माँ’ के लेखक पांडेय बेचन शर्मा उग्र आदि इसी धारा के लेखक हैं। इसी काल में या इससे कुछ आगे चल कर धर्म, व्यापार, सरकारी काम और नई सभ्यता की ओट में होने वाले पाखंड को अनावरण करने वाली सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से पीड़ित जनसमुदाय की दुर्दशा का चित्रण करनेवाली तथा अतीत के स्वर्ण-युग का स्मरण कराने वाली अनेक कहानियों का सृजन हुआ। प्रेमचंद, प्रसाद, सुदर्शन, उग्र, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, राय कृष्णदास तथा जैनेंद्र कुमार उस काल के कुछ श्रेष्ठ कहानीकार हैं। इसके अतिरिक्त इस काल में सामान्य प्रेम और हास्य-रस की कहानियाँ भी लिखी जाती रही पर उनका प्रभाव कुछ कम होने लगा था।

इस काल में आदर्शवाद और यथार्थवाद, सामाजिक और राजनीतिक चेतना अद्भुत रूप से समन्वय की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं। सन् 1932-33 तक मनोविज्ञान का क्षेत्र बढ़ जाने के कारण इस धारा का कला-पक्ष भी पुष्ट हुआ। मुंशी प्रेमचंद मनोविज्ञान के क्षेत्र में मानव चरित्र के साधारण पहलू से आगे नहीं बढ़े परंतु जैनेंद्रकुमार, भगवतीप्रसाद वाजपेयी और अज्ञेय ने साधारण से आगे बढ़ कर असाधारण परिस्थितियों में चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण शुरू किया। इसलिए राष्ट्रीय चेतना शीघ्र ही मानवता के उद्बोधन में लय हो गई और शाश्वत सत्यों की खोज की जाने लगी। सुदर्शन और जैनेंद्र आदि कलाकार इसी खोज में अग्रसर दिखाई देते हैं। इसे यों भी कहा जा सकता है कि इस काल में कला का सहारा पाकर पुराना आदर्शवाद फिर पनप उठा। अंतर केवल इतना था यद्यपि इस आदर्शवाद का सिर आकाश में जा लगा था परंतु पैर धरती से अलग नहीं हुए थे।

इसी काल के आसपास, जिसे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के ह्रास के आरंभ का काल कहा जा सकता है, लगभग 1935-36 में एक और प्रवृत्ति हमारे साहित्य में उत्पन्न हुई। गाँधी जी ने भारतीय मानस को इतनी तेजी से झकझोरा था, उसमें इतना साहस उत्पन्न कर दिया था कि वह चहुँमुखी स्वतंत्रता के लिए आकुल हो उठा, इतना आकुल कि उसे गाँधी का मार्ग भी प्रभावहीन जान पड़ा। इसलिए उसने अर्थशास्त्र पर आधारित समाजवाद के एक नए मार्ग की खोज की। उस मार्ग के प्रणेता थे मार्क्स। हमारे साहित्य में इसका उदय प्रगतिवाद के रूप में हुआ। चूँकि इस धारा में विद्रोह का स्वर बहुत तीव्र था और गाँधी जी की अहिंसा की भाँति उस पर कोई अंकुश नहीं था इसलिए कहानी-साहित्य में शुरू में काफी उच्छृंखलता दिखाई दी। मार्क्सवाद का नारा लगा कर, सर्वहार वर्ग से मौलिक सहानुभूति प्रगट करने वाली सस्ती कहानियाँ लिखी जाने लगी। और जब फ्रायड के चेतन-उपचेतन के मनोविज्ञान के कारण सैक्स के क्षेत्र में विद्रोह शुरू हुआ, तो नारी और कामुकता के नग्न चित्रण पर भी प्रगतिवादी विद्रोह की मोहर लग गई। वही नहीं, कोढ़ में खाज की भाँति इसी काल में मनोविज्ञान भी दूषित रूप में प्रगट हुआ। वह अस्वस्थ मन और मस्तिष्क की परीक्षा करके ही मौन नहीं हुआ, उसका इलाज करने का दावा भी करने लगा। परिणाम यह हुआ नायिका भेद की भाँति हमारा कहानी-साहित्य मनोविज्ञान का लक्षण ग्रंथ बन चला और उसमें अस्वस्थ मन और मस्तिष्कवाले पात्रों का बाहुल्य हो गया।

ये दूषित प्रवृत्तियाँ दूसरे महायुद्ध के बीच तक चलती रहीं परंतु विश्व तथा देश में होने वाली अनेक सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियों ने शीघ्र ही इन पर अंकुश लगा दिया। प्रगतिवाद की फिर से व्याख्या की गई। बताया गया कि प्रगतिवाद तत्कालीन संकटों के कारणों का विवेचन करके ही नहीं रह जाता, क्या होना चाहिए, इसका निर्देष भी करता है। उसने यौन आचार के संबंध में भी अपनी स्थिति स्पष्ट की। लेनिन के शब्दों में इन सस्ते रोमांटिक प्रगतिवादियों को बताया गया–“यौन जीवन में केवल एक ही बात नहीं देखनी है कि आपकी तबियत क्या कहती है। इसमें यह भी देखना है कि सांस्कृतिक विशेषताएँ और आवश्यकताएँ क्या हैं।” इन अंकुशों का परिणाम यह हुआ कि हमारे साहित्य में सस्ते यौनवादी तथा नकली शौकीनी मजदूरी वाले साहित्य की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। उसके स्थान पर स्वस्थ और वैज्ञानिक अध्ययनवाला साहित्य पनपने लगा। यशपाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, अमृतराय, श्रीमती चंद्रकिरण सौनरेक्सा तथा रांगेय राघव, इस धारा के कुछ प्रतिनिधि लेखक हैं। युद्ध से पूर्व ‘कफन’ नाम की कहानी लिख कर मुंशी प्रेमचंद ने भी इस धारा का स्वागत किया था।

तो इस काल में एक ओर तो विदेशी सत्ता से मुक्ति पाने की भावना है, दूसरी ओर आर्थिक तथा सामाजिक जीवन में संतुलन पैदा करने की प्रवृत्ति है। इसी के साथ-साथ एक दूसरी प्रवृत्ति भी इस काल में दिखाई दी। वह थी शाश्वत सत्यों के साथ तत्कालीन समस्याओं की चर्चा। इन मानवतावादी लेखकों ने मार्क्सवाद पर आधारित प्रगतिवाद को संपूर्ण रूप से तो स्वीकार नहीं किया परंतु यथार्थवाद से भी मुँह नहीं मोड़ा। उन्होंने यथार्थ के सत्य को स्वीकार करके मनोविज्ञान के सहारे मानवता की प्राण-प्रतिष्ठा की। सियारामशरण गुप्त, अज्ञेय और अश्क इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि लेखक हैं। मैंने भी इस प्रकार की कहानियाँ लिखी हैं।

जहाँ तक कला-पक्ष का संबंध है, हिंदी कहानी इस काल में बहुत समृद्ध हुई। कल्पना मँजी और कम से कम पात्रों द्वारा कम से कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से कथानक, चरित्र, वातावरण और प्रभाव की सृष्टि की जाने लगी। तत्कालीन सत्य अर्थात् यथार्थ का चित्रण करने के लिए प्रभावशाली कहानियों का जन्म हुआ। इस श्रेणी की कहानियों में ‘अज्ञेय’ की कहानी ‘रोज’ बहुत प्रभावशाली कहानी है। उसमें एक गृहस्थी में होने वाली एक दिन की साधारण घटनाओं का चित्रण है! पर वह चित्रण जीवन के समस्त बोझ को उठा कर पाठक की छाती पर रख देता है। भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘प्रायश्चित्त’ प्रभाववादी कहानियों में व्यंग्य प्रधान कहानी का एक सुंदर उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कमलाकांत वर्मा ने ‘खंडहर’ और ‘पगडंडी’ जैसी कवित्वपूर्ण कल्पना वाली कहानियाँ भी लिखीं जिनके पात्र महल, प्रकाश और सड़क आदि हैं। वे अपनी कहानी कहते हुए अतीत का अति रोचक और प्रभावशाली चित्र उपस्थित करते हैं। प्रसाद के बाद रायकृष्णदास ने ‘कला’ और ‘कृत्रिमता’ जैसी कुछ प्रतीकात्मक कहानियाँ भी लिखीं पर ये प्रयत्न आगे नहीं बढ़े क्योंकि युद्धकालीन भयंकर घटनाओं ने देश की आत्मा पर गहरी चोट की।

सांप्रदायिक रक्तपात, 1942 का विद्रोह, आजाद हिंद फौज तथा बंगाल का अकाल, ये थीं कुछ घटनाएँ जिन्होंने तत्कालीन भारतीय मानस को झँझोड़ डाला। इन घटनाओं ने कहानी-साहित्य को प्रभावित तो किया परंतु कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ा। उसके कारण थे। एक तो ये घटनाएँ एक के बाद एक सिनेमा के चित्रों की भाँति बदलती चली गईं। दूसरे विभाजन के बाद जिन परिस्थितियों में देश स्वतंत्र हुआ उसके कारण उसकी अनेक पुरानी मान्यताएँ ढह गईं इसलिए आज के लेखक को कुछ सूझ नहीं पड़ता। और न अभी तक वह इन घटनाओं का सही-सही मूल्यांकन ही कर पाया है। फिर भी बंगाल के अकाल, हिंदू मुस्लिम वैमनस्य और शरणार्थी समस्या को लेकर थोड़ी ही सही, पर बड़ी सुंदर और प्रभावशाली कहानियों की रचना हुई। मेरे अतिरिक्त सियारामशरण गुप्त, अज्ञेय हंसराज रहबर, शमशेर सिंह, तेजबहादुर, रामचंद्र तिवारी और अश्क आदि अनेक नये-पुराने लेखक इन दिनों सजग रहे। ‘शरणार्थी’, ‘दिल में जगह चाहिए’ और ‘अगम अथाह’ इस काल की कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ हैं। ‘अगम अथाह’ में विभाजन के बाद के नरसंहार में मारे जाने वाले इकलौते बेटे के माता-पिता के मानसिक द्वंद्व का बड़ा मार्मिक चित्रण है।

इधर युद्धोत्तर कालीन साहित्य में, विशेषकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इन चार वर्षों के साहित्य में, जो शिथिलता दिखाई देती है उसके कारण चाहे कितने तात्कालिक हों, उनकी जड़ गहरी है। ‘वाद’ की बात भी छोड़ दें, तो हिंदी में ढेरों कहानियाँ लिखी जाने के बावजूद किसी नई प्रतिभा का उदय नहीं हुआ। आजकल अधिकर ऊँची श्रेणी का साहित्य बिकता नहीं दिखाई देता है। इसका एक कारण तो यह है कि प्राय: नए लेखक समाज का तो क्या, अपने पूर्ववर्ती लेखकों तक की कला का भी अध्ययन नहीं करते। दूसरी बात यह है कि आज का लेखक युग की भयंकर समस्याओं से त्रस्त हो उठा है और उनसे मुँह मोड़ कर अतीत या फिर रोमांस के पीछे जाना चाहता है। जीवन से हट कर स्वप्न-लोक में भ्रमण करना ही पलायनवाद है। इस दूषित प्रवृत्ति का अंत तभी हो सकता है जब जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं का संबंध आधुनिक जीवन की मूल समस्याओं से स्थापित कर लिया जाए।

इस बड़े अभाव के अतिरिक्त कुछ और अभाव भी इधर की हिंदी-कहानी में स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। पिछले खेमे के प्रेमचंद, प्रसाद, सुदर्शन, वृंदावनलाल वर्मा और चतुरसेन शास्त्री ऐसे लेखकों ने कितनी ही सुंदर ऐतिहासिक कहानियाँ लिखी थीं पर आज तत्कालीन समस्याओं की प्रचुरता ने इस धारा के प्रवाह को मंद कर दिया है। यह स्वाभाविक ही था परंतु नए मूल्यांकनों के प्रकाश में ऐसी कहानियाँ लिखी जानी चाहिए और राहुल जी तथा भगवतशरण उपाध्याय की परंपरा को कला पक्ष के सहयोग से आगे बढ़ाना चाहिए। हास्यरस की कहानियाँ भी हिंदी साहित्य में नहीं के बराबर हैं। सस्ती कहानियों को छोड़ दें, तो राधाकृष्ण और अमृतलाल नागर के अतिरिक्त और किसी लेखक का नाम नहीं सूझता। हास्यरस वस्तुत: निश्छल हृदय से फूटता है। इसीलिए राजनीति से प्रभावित आज के हिंदी साहित्य में व्यंग्य की प्रधानता है। यही बात प्रतीकात्मक कहानियों पर लागू होती है। विशुद्ध मनोरंजन के लिए स्वस्थ जासूसी कहानियों का अभाव भी अस्वस्थता का लक्षण है। गोपालराम गहमरी की परंपरा को मंजे हुए हाथों की जरूरत है। वैज्ञानिक कथावस्तु, प्राकृतिक चित्रण, आदिवासियों के जीवन और विदेशियों से संबंध रखने वाली कहानियाँ भी नगण्य हैं।

हाँ, शैली और कला की दृष्टि से युद्धोत्तरकालीन कहानी बहुत पुष्ट हुई है। भावनाओं की सूक्ष्म व्यंजना और प्रभाव की व्यापकता की ओर भी अधिक ध्यान जाने लगा है। चित्र कला में पेंसिल स्केच और यातायात के साधनों में हवाई जहाज से उसकी तुलना की जा सकती है। प्रवृत्ति कम शब्दों में पूरा चित्र देने की है। अब तो कथानक न भी रहे तो कहानी बन जाती है। कहानी और रेखाचित्र में अब कोई अंतर नहीं माना जाता। वास्तव में आज का सफल कहानीकार व्याख्या नहीं, संकेत करता है। इसलिए चरित्र और वातावरण प्रधान कहानी से आज प्रभाववादी कहानी अधिक लोकप्रिय है।

भाषा में रुझान सरलता, स्वाभाविकता और गतिशीलता की ओर है। पांडित्य का प्रदर्शन आज अतीत की बात है। मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी कम होता है परंतु आज का कहानीकार अभी तक विराम चिन्हों की शक्ति को नहीं समझ पाया है। अर्थ और भाव की रक्षा तथा लालित्य की उत्पत्ति के लिए उनका सही प्रयोग अनिवार्य है।

लेकिन इन अभावों के बावजूद हिंदी कहानी ने बहुत प्रगति कर लही है। आज वह केवल विनोद का साधन नहीं रह गई है। वह आदर्शवाद और यथार्थवाद के पथ से आगे बढ़ती हुई जन जीवन का दर्शन बन गई है। युग की आत्मा का जितना सही चित्रण आज की कहानी में हुआ है उतना साहित्य के किसी और अंग में नहीं, इतिहास में भी नहीं। कला की दृष्टि से उसमें अनुभूति, अभिव्यक्ति और सहानुभूति, ये तीनों तत्त्व वर्तमान हैं। उसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में शंका का कोई कारण नहीं है।


Image: Metamorphosis insectorum Surinamensium
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Artist: Maria Sibylla Merian
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