सियाना मालिक

सियाना मालिक

(एकांकी)

नई धारा में प्रकाशित अश्क जी की ‘अंधी गली’ नाटकमाला से पाठक परिचित हैं। उसी नाटकमाला के पात्रों को लेकर यह घरेलू झाँकी गढ़ी गई है। इसे उस माला की एक कड़ी भी कह सकते हैं और यह अपने में भी पूर्ण है। –संपादक

पात्र-परिचय

गुप्ता बाबू–एक हेड कर्ल्क
कोल साहब, दीनदयाल, बिंदा बाबू }–उनके पड़ोसी
सरदार साहब, श्याम, कैप्टन लीकू }–उनके पड़ोसी
हीरा–नौकर

[गुप्ता साहब का ड्राइंग रूम। दाईं-बाईं दीवारों में क्रम से आने और अंदर को जाने के दरवाजे हैं। गुप्ता साहब हेडकर्ल्क हैं। जैसा किसी हेड कर्ल्क का ड्राइंग रूम हो सकता है, वैसा ही उनका भी है। कमरे में बेंत के कोच का एक सेट भी पड़ा है। एक ऑफिस टेबुल और टेलीफोन भी है। अँगीठी पर कुछ खिलौने और तस्वीरें भी सजी हैं और चंद सुरुचिपूर्ण चीजों से कमरे को सजाने की अपेक्षा बहुत-सी चीजों से उसे भरने का प्रयास किया गया है।]

[इस समय गुप्ता साहब और उनके मित्र एक गोल मेज बीच में रखे उसके गिर्द बैठ ब्रिज खेलने में तन्मय हैं। दो एक केवल देख कर ही खेल का आनंद पा रहे हैं। पर्दा उठते समय बिंदा बाबू पत्ते बाँटते दिखाई देते हैं। कुछ क्षण मौन रूप से पत्ते बाँटते रहते हैं।]

श्याम :–(अपने पत्ते लेते हुए) कम्बख्त गजब की गर्मी पड़ रही है, गुप्ता साहब, घर में कुछ बर्फ-वर्फ है?

गुप्ता :–(पत्ते उठाते हुए) बर्फ तो शायद न हो। थी तो सही, पर खाने के वक्त खत्म हो गई। लेकिन मैं भेजता हूँ नौकर को।

दीनदयाल :–अरे भाई बारात आने पर दुलहन के कान न बिंधवाओ। सुराही का पानी ही पिला दो!

श्याम :–कब बर्फ आएगी और कब हम पानी पिएँगे। और यहाँ प्यास के मारे दम निकला जा रहा है।

गुप्ता :–(पत्ते उठाकर लगाते हुए) सुराही का पानी तो गर्म होगा, अभी भरा गया है। लेकिन मैं नौकर को भेजता हूँ। अव्वल तो नुक्कड़ पर मिल जाएगी। नहीं भाग कर चौक से ले आएगा। (नौकर को आवाज देते हैं) हीरे! हीरे!

हीरा :–(नेपथ्य से) जी बाबू जी! (प्रवेश करता है) जी!

गुप्ता :–जरा भाग के कहीं से एक-आध सेर बर्फ ले आ।

हीरा :–जी, बहुत अच्छा। (चला जाता है)

बिंदा बाबू :–(जो पत्ते बाँट चुके हैं) हाँ भई बोलो श्याम, तुम्हारी बारी है।

श्याम :–वन क्लब

दीनदयाल :–वन नो ट्रांप।

गुप्ता :–थ्री क्लब

बिंदा बाबू :–थ्री नो ट्रांप

श्यामू :–डबल

दीनदयाल :–रीडबल

(दरवाजे पर जोर-जोर से दस्तक होती है)

कैप्टन लीकू :–(बाहर से) गुप्ता बाबू, गुप्ता बाबू!

(सब खेल में व्यस्त हैं, कोई उत्तर नहीं देता)

दीनदयाल :–क्यों गुप्ता बाबू, बोलते हैं?

(दस्तक फिर होती है और घबराई हुई आवाज आती है)

गुप्ता :–नहीं, पत्ते खोलिए!

कैप्टन लीकू :–(बाहर से) गुप्ता साहब, गुप्ता साहब

गुप्ता :–लीकू है शायद!

[गुप्ता बाहर उठकर दरवाजा खोलते हैं, कैप्टन लीकू घबराए हुए प्रवेश करते हैं।]

गुप्ता :–कहिए क्या बात है, घबराए हुए क्यों हैं।

लीकू :–क्या मैं टेलीफोन कर सकता हूँ?

गुप्ता :–हाँ, हाँ! आइए, आइए, क्या बात है?

लीकू :–अरे साहब, वह जो नया नौकर रखा था न, वह सब बर्तन लेकर चंपत हो गया है।

बिंदा बाबू :–बर्तन लेकर चंपत हो गया है!

(टेलीफोन का चोंगा उठाते हुए)

लीकू :–जी हाँ, कोतवाली का फोन नबंर क्या है?

गुप्ता :–हमें तो कभी वास्ता नहीं पड़ा कोतवाली से, यह डायरेक्ट्री लीजिए।

(टेलीफोन के नीचे से डायरेक्ट्री निकाल कर देते हैं)

लीकू :–(जल्दी-जल्दी डायरेक्ट्री के पन्ने पलटते हुए) अजीब मुसीबत है। एक भी बर्तन नहीं छोड़ गया, कमबख्त…यह रही कोतवाली…टू टू फोर (टेलीफोन करता है) हैलो, हैलो, हैलो, इज़ दैट टू टू फोर, कैप्टन लीकू दिस साइड, नमस्कार, नमस्कार, अरे साहब गजब हो गया, दो-तीन दिन से नया नौकर रखा था। आज हम सिनेमा देखने गए, वापस आए तो मालूम हुआ कि नौकर ही गायब नहीं, सब बर्तन भी गायब हैं…नहीं बाकी तो खैरियत है। कमरों को ताला लगा गए थे। रसोई घर खाली था और उसमें सब क्राकरी थी…लेकिन साहब बर्तन भी तो चार-पाँच सौ रुपए से कम के नहीं हैं। बड़ी कीमती क्राकरी थी…आजकल वैसे सेट देखने तक को नहीं मिलते। अरे साहब एक भी बर्तन नहीं रहा। (जरा हँसकर) यह तो मैं नहीं कह सकता, साथ में कोई और भी मिला होगा! अब आइए तो पता चले। थैंक्स, बाई, बाई।

श्याम :–अजीब भुक्खड़ चोर है। बर्तन ही उठा कर ले गया।

लीकू :–अजी साहब, चार-पाँच सौ रुपए से कम के न थे बर्तन। आज-कल लेना हो तो एक हजार रुपए लग जाएँ। चार सेट तो चाय के थे। तीन डिनर सेट थे। फिर रकाबियाँ, गिलास, जग और दूसरा सामान।

कौल :–लेकिन इतनी क्राकरी वह ले कैसे गया और फिर दिन-दहाड़े?

लीकू :–अब यह मैं कैसे बता सकता हूँ। जरूर दो-एक मिले हुए होंगे। अकेले का काम तो यह है नहीं।

दीनदयाल :–लेकिन आपने इतनी सारी क्राकरी रसोई घर में कैसे रख दी?

लीकू :–(जरा हँस कर) अब क्या बताऊँ। बात दुखद भी है और दिलचस्प भी। मिसेज लीकू को तो आप जानते हैं–काम करने की आदत नहीं। उनके लिए तिनका तोड़ना पहाड़ ढाने के बराबर है। हमेशा नौकरों में रही है। बनारस में तो तीन नौकर थे, यहाँ जब से आए हैं कोई नौकर ही नहीं मिलता। आता है तो दो दिन से ज्यादा टिकता नहीं।

कौल :–नौकरों के दिमाग की एक ही कही। आजकल बीवी मिल सकती है पर नौकर नहीं मिलता।

लीकू :–मुसीबत यह कि मिसेज लीकू को तो काम करने की आदत नहीं। मैं रोटी पकाने से रहा। लंच यदि होटल में भी ले लूँ तो शाम का खाना तो घर ही पर खाना पड़ता है। फिर चाय और नाश्ता। मित्र भी तो आ जाते हैं, हर घड़ी होटल को तो भागा नहीं जा सकता। इधर हुआ कि मिसेज लीकू रोटी तो पका लेतीं, चाय और नाश्ता भी बना लेतीं, पर बर्तन मलने से उनकी रूह फना होती। सेट पर सेट निकाल कर जूठा रखती जातीं। तीन-चार दिन में सब बर्तन और क्राकरी रसोई घर में आ जाती, तभी कोई नौकर मिल जाता, उन सबको मलता और वे फिर अलमारी में सजाए जाते। तीन नौकर तो इतने सारे बर्तन मलने से ही भाग गए और यह आया तो बर्तन ही लेकर चंपत हो गया।

(मित्र जरा-सा हँसते हैं।)

श्याम :–खैर अब आपका नौकर आएगा तो भागेगा नहीं।

बिंदा बाबू :–(हल्की भर्त्सना से) आप भी खूब हैं, जो इनकी मुसीबत में मजाक कर रहे हैं।

लीकू :–अरे नहीं साहब, मुझे खुद हँसी आती है, इसी को ही तो कहते हैं–दु:ख में रोना, बला में हँसना। हम तो नौकर की ही मुसीबत से परेशान थे, अब नई विपत्ति गले पड़ गई।

गुप्ता :–पर आपको उसके घर-बार का तो पता होगा।

लीकू :–बताया तो उसने था, पर मैं लिखना भूल गया।

गुप्ता :–यही गलती की आपने। सियाना मालिक नौकर रखता है, तो पहले उसका नाम और अता-पता पूछ लेता है। न केवल यह बल्कि उसकी पूरी-पूरी जाँच कर लेता है। समझदार मालिक नौकर की दस-पंद्रह दिन पगार नीचे रखता है। उसे ज्यादा छुट्टियाँ नहीं देता, काम में लगाए रखता है और दूसरों के नौकरों से ज्यादा ‘मिक्स’ नहीं करने देता।

श्याम :–याने सियाने मालिक के लिए नौकर का जेलर होना आवश्यक है। मैंने कभी इतनी सावधानी से काम नहीं लिया लेकिन कभी किसी नौकर से मुझे शिकायत नहीं हुई। कई ऐसे नौकर भी मेरे यहाँ रहे, जिन्होंने दूसरी जगह चोरियाँ की, पर मेरे यहाँ कौड़ी की चीज को हाथ नहीं लगाया। मैं समझता हूँ कि नौकर को भी अपने जैसा आदमी समझना चाहिए, उसकी आवश्यकताओं–बीड़ी, पान, सिगरेट अथवा महीने में एक-आध सिनेमा–का ख्याल रखना चाहिए, समय पर उसे पगार देनी चाहिए। झगड़ा होने पर या नौकर की जरूरत न रहने पर भी उसे पूरी पगार के अलावा चार छै आने अधिक देकर विदा करना चाहिए। नौकरों के समाज में सदा आपका ‘क्रेडिट’ बना रहेगा।

गुप्ता :–आप किसी नौकर के हाथ नहीं लगे, नहीं सारी चतुराई धरी रह जाती। मैं तो भाई बिना अता-पता लिए कदापि नौकर को रखने के हक में नहीं।

कौल :–अरे भाई अते-पते की खूब कही। अब तो मेरा पुराना नौकर आ गया है। पिछले दिनों जब वह छुट्टी पर गया, तो मैंने एक नौकर रखा। चपरासी के यहाँ आया था। उसने कहा कि मैं साहब इसकी गारंटी तो नहीं देता, पर है वह मेरे गाँव का। दूसरे ही दिन मेरे दोनों पेन, घड़ी और दस रुपया लेकर भाग गया, अब कहिए अते-पते को लेकर चाटा जाए।

गुप्ता :–आपने पुलिस में रिपोर्ट की होती।

कौल :–पुलिस में रिपोर्ट की थी। सब-इंसपेक्टर कहने लगे, रखते समय रिपोर्ट करते तो अच्छा था।

गुप्ता :–(दाएँ हाथ की तर्जनी से बाएँ हाथ की हथेली पर जोर देते हुए) हियर यू आर! मैं हमेशा नौकर का अता-पता ही नहीं नोट करता, पुलिस से ‘वेरीफाई’ भी करा लेता हूँ। और कम-से-कम उसकी एक महीने की पगार अपने हाथ के नीचे रखता हूँ।

श्याम :–यह सब सावधानी तो मुझे निरर्थक लगती है। हाँ यदि कोई कर सके, तो यह करना चाहिए कि कीमती चीजें आदमी सम्हाल कर रखे। रुपए-पैसे यदि बिखरे रहे, तो खाह-म-खाह लालच हो आती है। साधारण नौकर ताला तोड़ने का साहस नहीं करता। यह काम तो पुराने पापी करते हैं। लेकिन मैं तो भाई यह भी नहीं कर सकता। ताला लगाने की न मेरी आदत, न मेरी पत्नी की। मैं तो अपने नौकर को इतना संतुष्ट रखता हूँ कि सामने पड़ी चीज भी वह न उठाए।

[पड़ोसी सरदार साहब आते हैं। जो देश के विभाजन के समय इधर आए थे। अजीब पंजाबी-मिश्रित हिंदी बोलते हैं।]

सिख :–क्यों मेजर साहब, असाँ सु या आपके घर चोरी हो गई।

लीकू :–जी हाँ सरदार साहब, नया नौकर रखा था, सब बर्तन उठाकर ले गया।

सिख :–कुछ होर तो नहीं ले गया।

लीकू :–दूसरे कमरों को ताले लगा रखे थे, सो बच गए।

सिख :–भला होइ या, नहीं जे कुछ होर ले जांदा ते बड़ा कहर हो जांदा।

बिंदा बाबू :–अरे साहब ताले साधुओं के लिए होते, चोरों के लिए नहीं।

सिख :–होर क्या जी, हम जब पंजाब से आएये तो हैस्टिग्ज रोड पर अपने दोस्त के यहाँ ठहरे। ओत्थे की होया जी, गरमियाँ की बहार थी। सोये हुए साँ। चोर अंदरों सब सफाई कर गया। मजा इह कि सब ताले लग्गे होए थे। पुलिस में रिपोर्ट कीती ते उनके मजाक सुणने पड़े।

श्याम :–मुझे इस बात पर ‘जस्टिस महेश सिंह’ का किस्सा याद आ गया। ‘जस्टिस सिंह’ आप लोगों को शायद मालूम न हो, क्रिश्चियन थे। पंजाब हाईकोर्ट के प्रसिद्ध जज थे। दुबले-पतले, नाटा कद, लंबी-सी नाक, बेढंगी ठोढ़ी और काला रंग। शक्ल में और चाहे जो मालूम हों पर जस्टिस छोड़ जस्टिस के कर्ल्क भी न दिखाई देते। अजीब यतामत बरसती थी उनके मुँह पर। उनका स्वभाव था कि प्रात: चार-पाँच बजे उठकर सैर को जाया करते थे। एक दिन सैर से वापस जो आए, तो पता चला कि इस बीच में कोई चोर सब कुछ साफ कर गया है।

गुप्ता :–कोई पुराना पापी रहा होगा। बदला लिया होगा जस्टिस साहब से अपनी सजा का।

श्याम :–यह तो राम ही जाने, पर जस्टिस सिंह उस समय नाइट सूट ही में थे, लोयर माल पर उनकी कोठी थी। पुरानी अनारकली का थाना पास ही था। नाइट सूट पहने ही पैदल रिपोर्ट लिखाने चल दिए। थाने पर जो सिपाही ड्यूटी पर था, वह उन्हें जानता न था। उन्होंने थानेदार को तलब किया, तो उसने उन्हें मज़ाक किया कि जो कहना है मुझ से कह, थानेदार से क्या सगाई करनी है। जस्टिस महेश सिंह को क्रोध तो आया पर सिपाही के मुँह लगना उन्होंने उचित न समझा और बताया कि मैं महेश सिंह हूँ और मेरे बंगले पर चोरी हो गई है। यह पतला-दुबला, काला, नाटा महेश सिंह जस्टिस महेश सिंह है, यह उसके देवताओं को भी ख्याल न था। सिपाही कुछ लिए कब रिपोर्ट लिखता। थानेदार भी उस समय आ गया। एक जरूरी केस के सिलसिले में वह जा रहा था। सिपाही ने हँसते हुए कहा कि इस बेटे के घर चोरी हो गई है। थानेदार ने मज़ाक किया कि जाकर बीवी से पूछे, हम क्या कर सकते हैं। जिससे आशनाई होगी उसी को उठा दिया होगा सब कुछ। अब जस्टिस महेश सिंह के संतोष का पैमाना भर गया। टैलीफोन उठाकर उन्होंने सुप्रिंटेंडेंट को फ़ोन किया। दस मिनट के अंदर-अंदर वे कार में आ पहुँचे और सबकी बर्दियाँ उतरवा लीं।

दीनदयाल :–लेकिन रिपोर्ट में उन्होंने अपना नाम न लिखवाया?

श्याम :–नाम तो बताया, पर जस्टिस हैं यह नहीं बताया। सुप्रिंटेंडेंट को फोन किया तब उनको पता चला।

सरदार साहब :–मुझे भी इस पर लाहौर दी इक बात याद आ गई। साड़े एक रिश्तेदार वहाँ सिटी मजिस्ट्रेट थे। एक दिन ऐन माल पर उनकी मोटर बिगड़ गई। खैर ओहणा ने ड्राइवर को वहाँ छोड़िया ते ताँगा कीता। चौरास्ते पर सिपाही ने ताँगे वाले को पकड़ लीता। बात इह हुई कि जब ताँगा सिपाही के पास पहुँचा तो सिपाही ने हत्थ बदल दित्ता। घोड़ा तो तेज़ जा ही रहा था, आगे बढ़ गया और सिपाही ने सिटी दे दी। सिटी मजिस्ट्रेट साहब ने सिपाही को डाँटा कि गलती तुम्हारी है। सिपाही नया था। उनको जानता न था। उसने कहा जा, ओ सरदारा अपना काम कर, नहीं चलान कर देआंगा। सिटी मजिस्ट्रेट साहब कुछ कहने ही वाले थे कि ताँगे वाले ने अट्ठ आने पैसे जरा अलग हो कर सिपाही के हत्थ पर रख दिते। सिटी मेजिस्ट्रेट होरां पुच्छिया कि तुमने ऐसा क्यों किता, कर लेने देते चालान। ताँगे वाले ने बिना यह जानदे होए कि यही साहब सिटी मजिस्ट्रेट हण, शुद्ध पंजाबी भाषा में दस गालियाँ देते हुए कहा कि मामला जाता भाई या सिटी मजिस्ट्रेट के यहाँ और वह पाँच रुपए ठोक देता। अब अठन्नी ही में जान बच गई है। बिना क्रोध किए उन्होंने पुच्छिया, तुम कभी गए हो उनकी अदालत में। ताँगें वाले ने भोलेपने से कहा, रव्ब न ले जाए। जो गया है रोंदा आया है। ओ पहले दो रुपए जुर्माना कर दे हण। आगे से उज्र करो तो पाँच रुपए ठोक देते हण। बात सच थी। खैर सिटी मजिस्ट्रेट साहब ने उस सिपाही को अपना परिचय दित्ता और उससे सीटी लेकर दूसरे सिपाही को बुलाया और उसकी वर्दी उतरवा ली। ताँगे वाला लग्गा गिड़गिड़ाने। लेकिन सरदार साहब ने ओस को कुछ नहीं किहा, बल्कि धन्नवाद दिया कि उसने उनकी आँखें खोल दीं।

(त्रिपाठी घबराए हुए आते हैं।)

त्रिपाठी :–क्यों जी लीकू साहब, सुना आपके घर चोरी हो गई।

लीकू :–अरे हाँ भाई, पुलिस को अभी फोन किया है।

त्रिपाठी :–अरे साहब नौकरों की बड़ी कठिनाई है। आजकल ढंग का नौकर मिलता ही नहीं। मिलते हैं तो चोर-उचक्के, जेब-कटे! आपने कहाँ से लिया था नौकर?

लीकू :–अरे भाई क्या बताऊँ। तीन नौकर आकर जा चुके और बीवी मेरी काम करते आजिज़ आ गई थीं। बर्तनों से रसोई घर भर गया था, पानी पीने तक के लिए गिलास साफ न था। मैं दफ्तर जाने लगा कि मुझे घर के सामने ही मिल गया। हीरा जाने क्या लेने चौक जा रहा था, उसने मुझे रोका भी कि साहब बिना अता-पता लिए नौकर न रखिए, पर मेरी ज़रूरत अंधी थी। शक्ल से इतना भोला लगता था कि बाद में हीरे ने भी कहा–चोर नहीं।

त्रिपाठी :–आपने गज़ब किया, नौकर आपको कभी ऐसे नहीं रखना चाहिए, आपने एंप्लायमेंट एक्सचेंज को क्यों नहीं लिखा?

लीकू :–पहले तीन नौकर एंप्लायमेंट एक्सचेंज ही से आए थे।

कौल :–एंप्लायमेंट एक्सचेंज की भली चलाई। वे जैसे रसोइए भेजते हैं, वह कुछ मैं ही जानता हूँ। पिछले महीने मैंने भी उनसे रसोइया भिजवाने की प्रार्थना की। उत्तर मिला कि ज्यों ही कोई आया भिजवाएँगे। दूसरे दिन जो देखता हूँ तो एक अजीब टेढ़ा-मेढ़ा मैला-कुचेला बेहंगम-सा ठिंगना आदमी चला आ रहा है। टखनों से ऊँचा पायजामा, बड़ा-सा गर्म कोट (जो निश्चय ही किसी मोटे आदमी का रहा होगा) उसके गले में बाँस के हौवे जैसा लटक रहा था। सिर के इर्द-गिर्द उसने एक मैला अंगोछा लपेट रखा था। शक्ल से वह किसी अस्तबल का साईस मालूम होता था। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मालूम हुआ कि नौकरी के दफ्तर ने खाना पकाने के लिए भेजा है। मैंने कहा, “तुम कहीं साईस रहे हो?” मालूम हुआ–साईस भी रहा है, ताँगा भी चलाया है मिलिट्री में नौकरी भी की है और अब तेरह दिन से घास खोद रहा है। मैंने कहा, “खाना-वाना पका लेते हो?” कहने लगा, “हाँ जी आप एक मौका दीजिए। छै महीने से एक बंगाली बाबू के यहाँ काम कर रहा था खाना पकाने का।” मैंने पूछा, “वहाँ क्यों छोड़ा?” कहने लगा मेरा दिमाग जरा गर्म है। मैंने कहा, “दिमाग तो मेरा भी गर्म है तो काम कैसे चलेगा।”

सरदार :–अरे साहब, मेरे एक दर्जी मित्र ने एंप्लायमेंट एक्सचेंज से एक ‘क्टर’ माँगा, उन्होंने ‘ग्रास-क्टर’ भेज दिया।

गुप्ता :–लेकिन एंप्लायमेंट एक्सचेंज से नौकर माँगना इस बात की गारंटी तो नहीं करता कि वह चोरी न करेगा। उनके पास कोई अपनी सी.आई.डी. तो है नहीं कि वह नौकरी की दरख्वास्त देने वाले के ‘एनटिटेसीडेंट’ (पूर्व चरित) का पता करते फिरे। मैं इसके लिए कभी उनका भरोसा नहीं करता। नौकर मैं प्राय: वहीं से लेता हूँ, पर सी.आई.डी. का काम खुद करता हूँ। अब इसी हीरे को ले लीजिए। जब इसे मैंने नौकर रखा तो अच्छे काम और चरित्र के सार्टीफ़िकेट देखने पर ही संतोष नहीं किया। कहाँ का रहने वाला है इसका पता किया। उसके घर चिट्ठी लिख कर देखा कि पता गलत तो नहीं दे दिया। जब वहाँ से उसके पिता का जवाब आ गया तो मुझे तसल्ली हुई। आप लोग नौकर रख लेते हैं पर पता रखते नहीं, फिर चोरी करें तो क्या हो?

श्याम :–लेकिन भई वो तुम्हारा नौकर बर्फ लेने गया था। अभी तक नहीं आया।

गुप्ता :–(जोर से आवाज देते हैं) हीरे, हीरे।

[गुप्ता साहब की लड़की भागी हुई आती है।]

रानी :–बाबू जी, बाबू जी, हीरा गहने उठाकर भाग गया।

गुप्ता :–(घबराए स्वर में) क्या कहती हो, कौन-से गहने ले गया?

रानी :–बीनू के घर शादी है ना, माता जी वहाँ गई थीं। आकर उन्होंने गहने उतारे थे कि दूसरे कमरे में ककू रो पड़ा। ट्रंक में रखे बिना वो दूसरे कमरे में गईं, आकर देखा तो एक भी नहीं। माता जी आपको बुला रही हैं।

गुप्ता :–(जाते हुए) मैंने बीस बार कहा कि चीज़ सम्हाल कर रखो पर इन औरतों को…(चले जाते हैं)

बिंदा बाबू :–मैं भी कहूँ कि बर्फ की दूकान तो नुक्कड़ पर है। यह साला आया क्यों नहीं…

दिनदयाल :–बताइए अब अते-पते को चाटेंगे, वह कोई घर थोड़ा जाएगा।

बाहर से आवाज :–लीकू साहब, लीकू साहब।

लीकू :–कौन है।

बाहर से :–पुलिस आई है।

लीकू :–आया

[लीकू जाते हैं। कौल, त्रिपाठी और सरदार साहब उनके साथ निकल जाते हैं।]

दिनदयाल :–अच्छा हुआ लीकू ने पुलिस को बुला लिया, गुप्ता को तकलीफ न करनी पड़ेगी।

श्याम :–जाने किस बुरे महूर्त में ताश खेलने बैठे थे।

(पत्ते समेटता है। गुप्ता घबराए हुए दाखिल होते हैं।)

गुप्ता :–चार हजार के गहने ले गया हरामजादा, मेरे ख्याल में लीकू के नौकर ने जरूर हीरे को मिला लिया होगा। क्या नंबर बताया था लीकू ने पुलिस-स्टेशन का?

दिनदयाल :–फोन करने की ज़रूरत नहीं। लीकू साहब के घर पुलिस आ गई है।

[सभी उठते हैं और दरवाजे की ओर जाते हैं, पर्दा गिरता है।]


Image: The Interior. Second Part
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Artist: Konstantin Somov
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