आदमी की क़ीमत

आदमी की क़ीमत

‘हलुआ गरम, सूजी का हलुआ, घी चीनी का हलुआ’ गली में खोमचे वाले की आवाज और सुबह की धूप साथ ही उतरी। कातिक का महीना था। सुबह की हवा में हल्की सर्दी थी। लेकिन गरम हलुआ की आवाज सुनकर बच्चों में गर्मी दौड़ आई। वे दौड़े आए और खोमचे वाले को घेर कर खड़े हो गए। उनमें पैसों से दबी मुट्ठियाँ कम की थीं। ललचाई आँखें फैलाए, हलुआ की उड़ती भाप टुकुर-टुकुर निहारने वाले अधिक!

विशू बिछावन से जब उठा, माँ को पास नहीं पाकर मुँह लटकाए बैठा रहा। सुभद्रा घर के कामों में बझी थी, कई बार उसने विशू को हाथ-मुँह धोने को कहा, पर विशू नहीं माना। हलुआ वाले की आवाज़ सुन कर उसका सारा मान हवा में उड़ गया। चुपके से आकर माँ के कंधे पर झूल गया। सुभद्रा रोटी सेंक रही थी। बच्चे को देखकर हँस कर बोली–चलो, मुँह धुला दूँ बेटा, देखो तो कितनी फूली हुई रोटी है, खा लो। विशू ने माँ के ओठों से अपना गाल रगड़ते हुए कहा–मैं भी सूजी का हलुआ खाऊँगा, अम्माँ।

सुभद्रा विशू के मान जाने से जितनी प्रसन्न हुई थी, इस नई जिद को सुन कर उतनी ही चिंतित भी हुई। विशू हाल ही टायफायड से उठा था। बड़ी सेवा, आराधना और खर्च के बाद विशू को मृत्यु के मुँह से वह खींच पाई थी। बीमारी से उठने के बाद विशू रोज ही हलुआ खाने की जिद करता और सुभद्रा उसे बहलाया करती। कल वैद्यजी से विशू ने स्वयं ही पूछा हलुआ खाने की बात और उन्होंने हँसते हुए कह दिया था–हाँ, हाँ, कल सुबह तुम हलुआ ही खाना। तो सुभद्रा का मन कैसा तो हो उठा था! वह जानती है, बाजार में सूजी और चीनी दुष्प्राप्य है। चोर बाजार वाले सेर भर से कम सूजी देते ही नहीं। सेर भर सूजी, एक साथ तीन रुपए केवल सूजी के लिए खर्च कर सकें, ऐसी उन लोगों की स्थिति नहीं है। लेकिन इसे न तो वैद्यजी ही समझ सकते हैं, न अबोध विशू ही। बाजार का गंदा, पिल्लूभरा हलुआ वह कैसे खाने दे बच्चे को? सस्ती हो तो क्या? विशू तो उसे बहुत महँगा है। केवल साठ रुपए की मास्टरी विशू के पिता करते हैं। उस पर यह महँगाई। घर के तीन प्राणियों का निर्वाह किसी प्रकार हो जाता था। लेकिन विशू की इस बीमारी ने उन लोगों की कमर तोड़ दी। पास की पूँजी, जो दो-चार गहने पत्तर थे, गए ही ऊपर से छ: सौ रुपया कर्ज हो गया। उफ, छ: सौ रुपए उन लोगों की साठ साल की आयु तक भी नहीं सध पाएँगे…। उफ, सुभद्रा हाथ के बेलन से जमीन खुरच रही थी, तवे पर रोटी जलती रही। अम्माँ, विशू फिर रोनी आवाज में बोला–बैदजी ने कह दिया है अम्माँ, दो ही पैसे दो, मैं भी हलुआ खाऊँगा। बेटा!–सुभद्रा ने धीरे से उसका मुँह चूमकर गोद में उठा लिया–मैं आज जरूर हलुआ बना दूँगी। विशू जान गया कि यह फुसलाने का ढंग है। गोदी में छटपटाने लगा–नहीं, मैं लूँगा ही, यही हलुआ खाऊँगा, मुझे पैसे दो।–लेकिन ऐसा गंदा हलुआ खाकर बीमार पड़ जाओगे न? बाबूजी सूजी लाने गए हैं, आज तुम्हें जरूर हलुआ दूँगी। विशू रोने लगा–नहीं, तू रोज ही कहती है।

सुभद्रा बच्चे को गोद में लेकर बाहर के दरवाजे पर आड़ में खड़ी हो गई, खोमचावाला वहाँ से साफ नजर आ रहा था। सुभद्रा ने पुचकार कर कहा–देखो, ऊपरी चीजों पर धूल और मक्खी आती है!

आती है न?

विशू चुप था।

इतने ही में कूड़ा ढोने वाली गाड़ी उधर से आई। धूल से बचने के लिए खोमचे वाले ने हलुआ की थाल पर चिक्कट पोतन जैसा अपना अँगौछा फैला दिया। सुभद्रा ने कहा–देखो, कितना गंदा कपड़ा है, बाबूजी कहते हैं न कि गंदी चीजें खाने से लोग बीमार होते हैं। कड़ुई दवा पीनी होती है। सुई भोंकवानी पड़ती है…विशू को अपनी हाल की बीमारी का स्मरण हो आया। उतने मैले अँगौछे को देखकर उसका मन घिना गया, बोला–ना, ना, मैं नहीं खाऊँगा इतना गंदा हलुआ, खाऊँगा तो मर जाऊँगा, है न माँ?

सुभद्रा ने आतंकित होकर कहा–छी:, ऐसा नहीं कहते बेटा, तुम खाओगे ही नहीं इतनी गंदी चीजें। मैं तुम्हें घर में ही बहुत-सा हलुआ बना दूँगी।

विशू ने प्रसन्न होकर अपना हाथ फैलाते हुए कहा–एत्ता-सा उत्ता-सा, बना देना, अच्छा माँ!

–हाँ, मेरा राजा बेटा है, मैं तुम्हें भरपेट हलुआ खिलाऊँगी। विशू ने मौन स्वीकृति में माँ के कंधे पर सिर रख दिया।

…  … …

रात के अंधकार में एक छाया इसी ओर बढ़ती आ रही थी। जब द्वार से होकर वह आकृति जल्दी से भीतर आई, सुभद्रा ने उत्कंठित होकर पूछा–सूजी मिल गई?

–क्यों, अभी तक विशू जगा ही है क्या?

–अभी-अभी सोया है। रात का खाना तक उसने नहीं खाया है।

–सूजी तो नहीं मिली। बाजार में साढ़े तीन रुपए सेर सूजी मिल रही है। मैंने छटाक भर भी माँगी, पर सबने एक स्वर से कहा–पावभर से कम नहीं मिलेगा। लो, यह चवन्नी रख लो। इसमें दस आने पैसे जब और काट-कपट कर के मिला पाओगी, विशू तभी लहुआ खा पायगा।…पति ने एक लंबी साँस खींच कर कहा।

ओह, सुभद्रा सिर थाम कर बैठ गई। कैसा जमाना आ गया! कितनी कठिनाई से वह सोया है। जगते ही फिर रोएगा…

पति ने खीझ कर कहा–ऐसा दुलरुआ बना क्यों रखा है उसे? मैंने कितने अपमान की घूँट आज पी है इसके चलते, मालूम है तुम्हें? सीधे मुँह से खाना नहीं खाए तो मारो दो थप्पड़, सब जिद भूल जाएगा। पिता की इस क्रोध की आवाज से विशू जग गया। उसने देखा सामने उसके पिता खड़े कह रहे हैं–मारो दो थप्पड़, सभी जिद भूल जाएगा। वह भय से काँप उठा। घबराहट से उसने इतना ही कहा–बाबूजी! और डर से रोने लगा।

रुग्ण बच्चे की रोनी आकृति और करुणापूर्ण पुकार ने पिता के मन को छू दिया।

क्या है बेटा?–उन्होंने आकर विशू को गोद में उठा लिया–सुना कि तू खाना नहीं खाता है, जिद करता है। क्या अच्छे लड़के माँ-बाप को इसी तरह तंग करते हैं?

मैं रोटी खाऊँगा बाबूजी, मुझे भूख लगी है। हलुआ देने के लिए तो आपने ही कहा था न?

अपनी प्रतिज्ञा से पिता स्वयं ही लज्जित हो उठे। बोल–तुम्हें सोमवार को जरूर हलुआ मिलेगा बेटा! सुभद्रा को लक्ष्य कर बोले–जगन्नाथ आज मिल गया था। उसकी राशन की दूकान है न, उसने जब सुना कि सूजी के लिए मैं परेशान हूँ, तो बोला कि सोमवार को जब वह स्कूल आएगा, विशू के लिए सूजी ले आएगा।

आज शुक्रवार की रात थी। विशू मन ही मन जोड़ने लगा–सोमवार आने में कितने दिन और बाकी हैं।

… … …

लेकिन विशू के धैर्य का बाँध टूट गया। आज सुबह उसने माँ की पूजावाली मूर्ति के पीछे एक रुपया पड़ा देख लिया था। माँ ने कहा कि जब पाँच रुपए पूरे हो जाएँगे, तो बहुत मिठाई आएगी और देवता की पूजा होगी। देवता जी की दया से ही वह अच्छा हुआ है, यह रुपया देवता जी का है, कोई नहीं छूता इसे।

उसके बालक-मन में तर्क-वितर्क भर आए। शाम को उसने अपने पड़ोसी मुन्नू से पूछा–क्यों रे मुन्नू, तू तो रोज हलुआ खाता है, कभी बीमार नहीं पड़ता, क्यों?

–धुत्त, मैं बीमार क्यों पड़ूँगा? हलुआ खाने से ताकत होती है कि बीमार पड़ते हैं? कौन कहता है?

–मेरी माँ।

–हूँ! तुम्हें केवल फुसलाती हैं। तेरी माँ के पास पैसे हैं कहाँ कि हलुआ ले देगी! तेरी माँ गरीब है जो।
विशू को यह लांछन बहुत बुरा लगा। तमक कर बोला–हूँ, तुम्हीं जानते हो, मेरी माँ के पास पैसे नहीं हैं? मेरी माँ के पास रुपया है और वह रुपया माँ ने देवता जी को दिया है। गरीब किसी को कहीं कुछ देते हैं?

–कितना रे? मुन्नू का विस्मय जगा

–कितना क्या?–विशू ने अभिमान से कहा–अभी तो एक ही हैं, जब पाँच पूरे हो जाएँगे, तो बहुत-सी मिठाइयाँ मँगाकर माँ पूजा करेगी, सब को प्रसाद बाँटेगी।

–धुत्त, तुम झूठे हो!

–नहीं मानता? चल दिखा दें।

रुपया देखकर मुन्नू के मुँह में पानी भर आया। बड़े ही करुण शब्दों में बोला–हलुआ नहीं खाएगा विशू? मोहन भोग?

–हाँ खाऊँगा, जब बाबूजी सूजी ला देंगे तब।

–मूर्ख कहीं का! मुन्नू उसके कान में मुँह लगाकर बड़ी देर तक फुसफुसाता रहा। अंत में विशू ने उसके हाथ पर वह रुपया लाकर धर दिया। मुन्नू के मुँह पर एक कुटिल हँसी थी, पर विशू के चेहरे पर जाने किस दु:शंका की काली भयभीत रेखाएँ।

…  … …

बहुत रात गए जब विशू की आँख खुली उसने माँ के गले में बाँहें डाल कर पूछा–माँ, देवता जी का रुपया जब कोई ले लेता है, तो उसकी जगह दूसरा रुपया बन जाता है क्या, माँ?

–हाँ, बेटा, सुभद्रा ने नींद में ही कहा।

–और जो ले जाता है, उसे क्या होता है?

–ऊँ? सुभद्रा इस बार कुछ जगी, बोली–वह चोर है।

–चोर? विशू ने भय से कहा–चोर को क्या होता है?

–भगवान उसे दंड देते हैं।

–क्या दंड देते हैं माँ? चोर को क्या दंड देते हैं? विशू ने अटक-अटक कर पूछा।

सुभद्रा झुँझला गई। आज बहुत थकी थी और कल सबेरे ही उठना था। कल सोमवार था, स्कूल खुलने को था कल। बोली–सो जा चुपचाप! दिनभर बकाता ही है, रात में भी बकाने लगा अब। लेकिन विशू के प्राण काँप रहे थे, गिड़गिड़ा कर बोला–क्या दंड देते हैं माँ?

–वह मर जाता है, और क्या? सुभद्रा ने करवट बदल ली और विशू उछल कर बैठ गया–वह मर जाता है? ओह, उसके पेट में भयंकर मरोड़-दर्द हो रहा था।

सहसा आ…आ…आह, माँ! विशू की रुलाई और कै का शब्द सुन कर सुभद्रा धड़फड़ा कर उठी, देखा विशू विछावन से मुँह लटकाए कै कर रहा है।–माँ, माँ, बचाओ मुझे। मुझे देवता जी के पास ले चलो, मैं माफी माँगूँगा…अब नहीं…करूँगा माँ! विशू रोने लगा।

–क्यों, क्या किया है तुमने बेटा? आशंका से सुभद्रा के प्राण ओठों तक आ गए।

विशू गहरे पश्चात्ताप से बुक्का फाड़ कर रो उठा और कपड़ों में छिपाए पत्ते के एक दोने की ओर इशारा करके बोला–मैंने अपने मन से नहीं, मुन्नू ने मुझे सिखाया था माँ, अब नहीं चोरी करूँगा माँ। सुभद्रा को सारी स्थिति समझ में आ गई। विशू के पिता को जगाया। उस रात में हो सकने लायक सभी उपचार किए गए। पर सुबह होते-होते विशू की हालत बहुत खराब हो चुकी थी! कई लोगों ने कहा–अस्पताल ले जाओ। किसी ने कहा–डॉक्टर को साथ ले चलना ठीक होगा। कम से कम यहाँ पानी तो चढ़ा दिया जाए। पिता व्यवस्था के पीछे पागल होकर दौड़े और पगली माँ कभी असंख्य पिल्लुओं से भरे हलुआ का दोना उठा कर माथा कूटती, कभी देवता की मूर्ति के पास जाकर हाय हाय करती, कभी मरण के मुँह में खिंचे आते हुए बालक के शीतल ओठ, ललाट और गालों को गर्म आँसुओं और चुंबनों से गर्म कर देने का विफल प्रयास करती!

विशू के पिता जब डॉक्टर लेकर लौटे पंछी पिंजरा तोड़ कर उड़ चुका था जाने किस अनंत आकाश में अहश्य होकर। कुछ दूर पर दो-चार हमदर्द पड़ोसी कह रहे थे–हाल का बीमार लड़का था–बाजार का इतना गंदा हलुआ नहीं पचा सका।…लड़कों को ऐसा खाना दिया जाता है?

दूसरे सोमवार की संध्या थी। विशूहीन घर में घोर अँधेरा और शांति थी। विशू के माँ-बाप जैसे एक दूसरे को भी नहीं पहचान रहे हों, उदास बैठे थे। उनके पास ही लैंप की मद्धिम रोशनी में उससे दबा एक अखबार उड़ रहा था–यह उसी सप्ताह की सरकारी घोषणा की रिपोर्ट थी–“सरकारी स्टॉक में सूजी सड़ रही है। बिहार में सूजी की खपत नहीं है!”


Image: Children received their breakfast
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Artist: Ferdinand Georg Waldmüller
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