संबंध के पीछे
- 1 January, 2015
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- 1 January, 2015
संबंध के पीछे
‘आपको गायत्री का कोई मंत्र याद है?’
किसी महिला का स्वर सुनकर उसने तिरछे होकर अपनी दाईं तरफ देखा। कई स्त्री-पुरुष मुँह लटकाए सामने की ओर देख रहे थे। उसने सिर हिलाकर श्लोक याद न होने की विवशता जाहिर कर दी।
मंत्र की बात करने वाली औरत ने एक लंबी साँस खींची और होंठों में ‘ओम् नमः शिवाय’ का पाठ आरंभ कर दिया। मरीज के दायें-बायें लोहे के दो स्टैंड खड़े थे। एक पर खून की बोलत उलटी करके टंगी थी और कांच की नली से बूँद-बूँद करके रक्त एक बार रबर की नली में गिर रहा था। दूसरी ओर से इसी प्रकर ग्लूकोज की बूँदें गिर रही थीं। मरीज की आँखें टंग गई थीं और नाक में ऑक्सीजन की नली होने के बावजूद कठिनाई से सांसें खिंच रही थी।
मरीज एक बुढ़िया थी। जिसे चारों ओर से उसके दो बेटों, पाँच बेटियों और दो-तीन दामादों ने घेर रखा था। बुढ़िया की बहुओं को भी इस भीड़ में शामिल कर लिया जाए, तो गरीब एक दर्जन मर्द-औरत वहाँ मौजूद थे। सभी के चेहरों पर मौत का भय उभर रहा था और लग रहा था कि दवाओं, इंजेक्शनों और खून-ग्लूकोज के बावजूद वृद्धा की मृत्यु हो जाएगी। एक महिला, बुढ़िया के मुँह से कभी-कभी निकलने वाले अस्फुट शब्द सुनकर उसके चेहरे पर झुकती थी और उनका अर्थ जानने की चेष्टा करती थी, पर शब्द पकड़ में नहीं आते थे। कई डाॅक्टर बारी-बारी से आते थे और बहुत तत्परता से बुढ़िया की नब्ज टटोलते थे। बीच-बीच में ब्लड प्रेशर भी जांच लेते थे। यंत्र के गिरते हुए पारे को देखकर उनकी भौंहों में बल पड़ जाते थे। भाग-दौड़ करते डाॅक्टरों-नर्सों को गंभीर देखकर बुढ़िया के संबंधियों के मुँह से बेसाख्ता लंबी और हताश सांसें छूटने लगती थीं।
इतने बड़े समूह के रूप में खड़े आदमियों के मुँह से कोई बात नहीं निकल रही थी। हाँ, एक बेटी ने अत्यंत कायरता से एक बार स्वगत भाषण के तौर पर यह अवश्य कहा था, ‘इससे तो यही अच्छा है कि इसकी साँस घर में ही निकले। इसे और क्यों कटवाते हो! घर में होगी, तो बच्चे आखिरी बार शक्ल तो देख लेंगे।’ मगर उसके सुझाव पर किसी ने कोई खास तवज्जह नहीं दी। वे सब जड़ता और अवशता की उस स्थिति को पहुँच गए थे जहाँ कोई भी परिवर्तन सुविधाजनक दिखाई नहीं देता। ज्यादा से जयादा वे लोग यह करते थे कि चुपके से सबकी हाजिरी आँखों-आँखों में ले लेते थे और पहले से भी ज्यादा गंभीर हो जाते थे।
गो कि वे लोग मृत्यु के विषय में कुछ न कुछ कहने को बेचैन थे, मगर उन्हें अपने उद्गार प्रकट करने का क्षण अभी कुछ दूर दीख पड़ता था। जो महिला मरीज के ऊपर झुककर कुछ सुनने की कोशिश कर रही थी, अब एक स्टूल पर टिककर होंठों में कुछ बुदाबुदा रही थी। शायद वह मंत्र वगैरह के चक्कर में न पड़कर सीधे-सादे ढंग से ईश्वर का नाम ले रही थी। तभी वार्ड में एक साथ तीन डाॅक्टर दाखिल हुए और उनके पीछे हाथ में सिरींज पकड़े हुए एक छोटे कद की गुड़िया जैसी खूबसूरत नर्स भी आई। उसने आते ही वृद्धा की नाक में नली डालकर उसमें सिरींज अटकाकर पानी खींचना शुरू कर दिय। नर्स कुछ देर तक अपना कार्य बहुत तत्परता से करती थी। जब रक्त मिश्रित पानी से चिलमची भर गई, तो जमादार को उठाने के लिए पुकारती वह वार्ड के बाहर चली गई।
बुढ़िया दर्द से कराह उठी। उसके छटपटाने पर उसकी बेटियों ने अपनी प्रतिक्रिया आहें भरकर व्यक्त की। अब डाॅक्टरों ने मरीज की जांच आरंभ की। एक डाॅक्टर ने, जो डाॅक्टर से अधिक अभिनेता लगता था और जिसके सुनहरे रुखे बाल माथे पर छितराए हुए थे, खून की बोतल पर ढके कपड़े को हटाकर देखा और बोतल को यथावत ढक दिया। परीक्षण करके जब तीनों डाॅक्टर मस्तक पर सलवटें डालकर बाहर जाने लगे, तो उन्होंने बुढ़िया के बड़े बेटे छविनाथ को अपने साथ आने का संकेत किया। बड़े लड़के के साथ बुढ़िया का छोटा बेटा हरिनाथ और दामाद इस आशा में बाहर की ओर लपके कि शायद डाॅक्टर मरीज के संबंध में कोई विशेष बात बतलाने जा रहे हैं। दो डाॅक्टर वार्ड के बाहर जाकर ड्यूटी-रूम में घुस गए और एक दुबला-सा डाॅक्टर, जिसकी चुंधी आँखें चश्में के मोटे लैंस से आवृत्त, बड़ी भयंकर दिखलाई पड़ती थीं, अपने अधगंजे सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘…देखिए! ऐसा है कि एक बोतल खून का आपलोग फौरन इंतजाम कीजिए। जो खून बोतल में बाकी है ज्यादा से ज्यादा से दो घंटे में पास हो जाएगा।’
सब लोग साँस रोककर डाॅक्टर की बात सुनते रहे। डाॅक्टर ने गले में पड़े हुए स्टैथस्कोप को निकालकर हाथ में ले लिया और अपने सफेद लंबे कोर्ट को हिलाता हुआ आगे बढ़ गया। सब लोगों को हतवाक्य देखकर वह एक पल रुका और आश्वासन-सा देते हुए बोला, ‘मैं लिख देता हूँ, आप फौरन ‘ब्लड बैंक’ जाइए और एक बोतल खून ले आइए। इस टाइम ‘वेन’ पकड़ में है, खून चढ़ाने में कतई दिक्क्त नहीं होगी।’ डाॅक्टर की यह तजवीज सुनकर बड़े बेटे छविनाथ के चेहरे पर दुविधा दिखाई दी। वह गला खंखारकर बोला, ‘डाॅक्टर साहब, क्या उसकी हालत बहुत नाजुक है।’
डाॅक्टर ने छविनाथ के चेहरे पर आँखें केन्द्रित करके कुछ तीखेपन से कहा, ‘यह कौन कहता है? यह निश्चय ही ठीक होने लगी है। हम बढ़िया इलाज कर रहे हैं उसका। पहले से वह काफी अच्छी है।’ और आशा की किरण चमकाकर डाॅक्टर चिक हटाते हुए ड्यूटी-रूम में घुस गया। बाहर खड़े पाँचों आदमी कुछ देर तक चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। शायद वे लोग खून लाने की व्यवस्था पर विचार कर रहे थे। सब लोगों को सन्नाटे में देखकर छविनाथ बोला, ‘सुबह एक बोतल खून भी मुश्किल से मिला था। ऐसी आसानी से यहाँ खून मिलता कहाँ है? घंटों डाॅक्टर खोसला के आगे-पीछे घूमा हूँ। तब कहीं ये इंतजाम हो पाया था।’
छविनाथ की आवाज में झींकने का भाव देखकर उसके बड़े बहनोई हीरालाल बोले, ‘छवि, देर का काम नहीं है। जैसे भी हो, खून का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा।’
दूसरे बहनोई ने सुझाव दिया, ‘मेरे ख्याल से डाॅक्टर की सिफारिश ले चलो।’
छविनाथ पर दोनों बहनोइयों के सुझावों का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। वह रोने के स्वर में बोला, ‘जीजा जी, आपको मालूम नहीं, मैं आज सुबह पांच बजे खोसला साहब के यहाँ गया था। तब जाकर कहीं बारह बजे खून का इंतजाम हो पाया था, और जानते हैं, उन्होंने क्या कहा था? वह कह रहे थे, आप लोग खून ‘डोनेट’ क्यों नहीं करते; हमारे पास इतना खून कहाँ से आएगा?
हीरालाल ने छविनाथ के टूटते धैर्य को सहारा देने की गरज से कहा, ‘चलो-चलो, दूसरी मंजिल पर चलते हैं। कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा ही।’
‘ठीक इसी समय यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला एक स्टूडेंट आ गया जो हीरालाल की दो बेटियों को मुफ्त में ट्यूशन पढ़ाता था। वह समस्या का उत्साहवर्धक निदान देते हुए बोला, ‘मैं इंतजाम करा दूंगा। और अगर कुछ भी न हो सका, तो मैं अपना खून दे दूंगा। मेरा और नानी जी का ग्रुप एक ही है।’
कहा नहीं जा सकता कि उसकी बात में सच्चाई थी या वह महज हीरालाल की नजरों में चढ़ने के लिए यह दिलेरी दिखला रहा था। जब से सारा घर उठकर अस्पताल में आ गया था, यही लड़का, घर की खोज-खबर रखता था। उसका आश्वासन सुनकर सबके चेहरे पर आशा दपदपा उठी। एक बाहरी आदमी, जिसका बुढ़िया से कोई खून का रिश्ता नहीं था, जब इतना कुछ करने को तैयार था, तो सब लोगों को लगा कि वह अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ रहे हैं। लिहाजा उन्हें भी तो कुछ करना ही चाहिए। सब लोग सहसा कुछ न कुछ बोलने लगे।
वे सब दूसरी मंजिल पर रक्त-परीक्षण अधिकारी के कमरे में चले गए। जो युवक अपना खून देने का दिलासा देकर सबको यहाँ लाया था, रक्त-परीक्षक से बोला, ‘मेरा खून ग्रुप ‘ए’ का है। मेरा खून ले लीजिए।’
रक्त-परीक्षक ने उस सूखे पतले लड़के का मुँह देखा और कहा, ‘ऐसे खून नहीं लिया जाता, जनाब। जब भी ब्लड लिया जाएगा, तभी नये सिरे से खून जांचा जाएगा।’ रक्त-परीक्षक कुछ क्षण सोचता रहा और फिर सामने खड़ी भीड़ को संबोधित करते हुए, ‘आपमें से कौन-कौन ब्लड देना चाहते हैं? मेहनबानी करके वे आगे आएं।’
उसके शब्द सुनकर एक मिनट के लिए सन्नाटा छा गया और फिर धुकधुकी भरी आवाजें गूंज उठीं, ‘हमारा खून जांच लीजिए। हमारा खून ले लीजिए।’
रक्त-परीक्षक ने कांच के टुकड़ों पर छह आदमियों का अलग-अलग खून लिया और कहा, ‘बराए-मेहरबानी, आप लोग बाहर बैठें। अभी कुछ वक्त बाद आपलोगों के ग्रुप बतला दिए जाएँगे।’
सारी भीड़ कमरे से बाहर निकल आई। वे सभी परस्पर वार्तालाप करने लगे। दो ने सिगरेट सुलगा ली और कक्ष के द्वार से सटी बेंच पर पसर गए। वे सब वास्तव में बहुत थके हुए और शिथिल थे। उनमें से शायद ही कोई अस्पताल छोड़कर घर गया हो। वे सब पूरे हफ्ते से अस्पताल में थे और अपनी दैनिक क्रियाओं से भी जैसे-तैसे अस्पताल में ही फारिग हो लेते थे। घर से कोई लड़का या लड़कियों को ट्यूशन पढ़ाने वाला लड़का खाना ले आता था तो मरे मन से पेट में डाल लेते थे। र्वाउ के बाहर बेंच पर दो या तीन कंबल-गद्दे पड़े थे जिन्हें वे लोग रात के समय वार्ड के बाहर गैलरी में डालकर पड़े रहे थे।
हालाँकि वे लोग संख्या में इतने ज्यादा थे कि रात को बारी-बारी से सो या आराम कर सकते थे, मगर यह कभी संभव नहीं हो पाता था, क्योंकि हर आधे-पौने घंटे बाद कोई औरत वार्ड से बाहर निकलती थी और बुढ़िया के अंतिम साँस निकलने की विकट सूचना देती थी। इस पर वे सब झपटकर खांसते हुए उठ पड़ते थे और अपनी नींद से बोझिल आँखें झपकाते हुए बुढ़िया के बिस्तर के पास जा खड़े होते थे। उनमें से कोई भी घर जाते हुए घबराता था कि कहीं इसे लापरवाही खयाल न किया जाए। लगभग हर समय मरीज के निकट बनी रहने वाली सात औरतें और पांच-छह पुरुष रुग्ण हो चले थे। उनके चेहरों पर कष्ट, निराशा और थकान के स्थायी चिन्ह अंकित हो गए थे।
यों तो बुढ़िया की हालत कई दिनों से गंभीर थी, पर आज लग रहा था कि वह कुछ क्षणों की ही मेहमान है। इसलिए उसके हाथों से ‘गोदान’ के नाम पर कुछ ‘पुन्न’ भी करा दिया गया था। यही नहीं, पिछले एक घंटे से डाॅक्टरों की नजर बचाकर बीच-बीच में एक-दो बूँद गंगाजल उसके मुँह में छोड़ा जा रहा था। बुढ़िया को इतने लोगों से घिरा देखकर कोई-कोई डाॅक्टर झुंझला भी उठता था। पर बुढ़िया की सेवा करने वाले अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होते थे।
एक मरीज के पास इतने अधिक तीमारदार देखकर वार्ड के मरीजों को हैरानी भी होती थी। किसी बीमार के पास रात को शायद ही कोई रिश्तेदार ठहरता हो।
खैर, आध घंटे के बाद रक्त-परीक्षक ने अपने कक्ष से निकलकर बेंच पर ऊंघते लोगों को बतलाया कि बुढ़िया के रक्त से सिर्फ छविनाथ और हरिनाथ का ही खून मिलता है। हीरालाल ने फैसलाकुन स्वर में कहा, ‘ठीक है, हरि खून दे देगा। छवि और उसकी वीबी रूक्मणी ने तो पिछले महीने अस्पताल जाकर खैरात में एक-एक बोतल खून दिया था। ऐसा पता होता तो…।’ उन्होंने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। उनका कहने का मतलब यह था कि अगर यह पता होता कि छविनाथ को किसी दिन घर में ही ‘खून देना पड़ सकता है, तो वह व्यर्थ में अपना खून अस्पताल वालों को क्यों देकर आता?’
हालाँकि हीरालाल ने एक तरह से आखिरी फैसला दे दिया था, लेकिन फिर भी हर आदमी अपनी कैफियत सुनाने लगा। नंबर दो के दामाद ने कहा, ‘विद्या के तो पाँव भारी हैं।’ विद्या उनकी सहधर्मिणी थी। सबसे छोटे दामाद ने कहा, ‘प्रभा को तो आप सब जानते ही हैं, वह ‘एनेमिक’ है।’
अपनी-अपनी पत्नियों का सबने बचाव कर लिया।
हालाँकि रक्त-परीक्षक की रिपोर्ट से सबकी स्थिति पूर्ण सुरक्षित हो चुकी थी, मगर फिर भी, सब अपनी तत्परता और कर्तव्यपरायणता की दुहाई देने में लगे रहे। अब वृद्धा के लिए खून देने वालों में सिर्फ दो पुत्र बाकी रह गए थे। हीरालाल की लड़कियों को पढ़ाने वाला लड़का रक्त-परीक्षक से दोस्ताना लहजे में बोला, ‘डाॅक्टर साहब, कुछ इंतजाम तो होना ही चाहिए।’
उसने छविनाथ के लटके हुए चेहरे को लक्ष्य किया और चापलूसी दिखाने लगा, ‘मामा जी तो बेचारे इतने भले हैं कि पहले ही ब्लड बैंक को मुफ्त में खून दे चुके हैं। इनका खून इतनी जल्दी कैसे लिया जा सकता है?’
रक्त-परीक्षक इतने लोगों की झों-झों से तंग आ चुका था परंतु फिर भी सभ्यता से बोला, ‘हाँ, यह तो सही है। मगर अब तो अस्पताल में शायद ही कोई ‘डोनेटर’ मिल पाएगा।’ सहसा उसे अपने उस काम का ध्यान आ गया जो इन लोगों के कारण बीच में ही छूट गया था। वह किंचित् झल्लाकर बोला, ‘जाइए, जाइए, आप फौरन ‘ब्लड बैंक’ जाकर कुछ कीजिए। यहाँ वक्त खराब करने से क्या हासिल?’
उन सबके चेहरे बुझ गए। रक्त-परीक्षक की झिड़की से वे दीन-हीन हो उठे। वे वहाँ से उठ-उठकर चल पड़े और मन ही मन एक-दूसरे को तौलने लगे। शायद वह फिर भूल गए थे कि उनमें से खून किसी को नहीं देना है। सिवाय बुढ़िया के बेटों को छोड़कर बाकी सबके ब्लड ग्रुप भिन्न हैं।
हीरालाल ने खून की बात शुरू की और छविनाथ के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘चलो अब इमरजेंसी में तो हमलोगों को कुछ करना ही पड़ेगा।’
एकाएक सबने इधर-उधर कुछ टटोला। उनलोगों के बीच में बुढ़िया का छोटा बेटा हरिनाथ नहीं था। हीरालाल ट्यूटर से बोला, ‘मास्साब! आप जरा हरि को तो बुलाइए। मेरा ख्याल है, वह ऊपर वार्ड में ही बेंच पर रह गया है।’
मास्टर लपकते हुए ऊपर मंजिल में गया और वार्ड के दरवाजे पर अपनी पत्नी से खुसुर-पुसुर करते हरिनाथ को बुलाकर नीचे ले गया। मास्टर के साथ हरिनाथ को आते देख हीरालाल बोले, ‘देखो, ऐसी बात है, भैया, कि ‘ब्लड’ तुम अपना ही दे दो। डाॅक्टर कहता है कि छविनाथ का खून इतनी जल्दी नहीं लिया जा सकता। वह तो अभी पिछली बार खून दे भी चुका है।’
हरिनाथ के चेहरे पर भय का भाव उभर आया, लेकिन वह हौसता दिखलाते हुए बोला, ‘हाँ, हाँ चलो, इसमें ऐसी क्या बात है? जब खून कहीं से मिल ही नहीं रहा तो हम ही दे देंगे। क्या महतारी के लिए इतना भी नहीं करेंगे?’
सब लोग हरिनाथ के कथन से आश्वस्त हो गए। हीरालाल छविनाथ और हरिनाथ को लेकर आगे बढ़ गए और बाकी लोग पीछे लौटकर बुढ़िया के पास वार्ड में चले गए।
कोई आधे घंटे बाद बुढ़िया के बड़े दामाद हीरालाल, खून की बोतल हाथ में पकड़े हाँफते हुए वार्ड के द्वार पर पहुँचे। वे लिफ्ट से नहीं आए थे, इसलिए तीन मंजिल तक सीढ़ियाँ पार करने में उनकी हंफनी छूट रही थी। वार्ड के दरवाजे पर बैठे जो लोग इधर-उधर की चर्चा में मग्न थे, उन्हें देखते ही एक साथ उठकर खड़े हो गए। और समवेत स्वर में बोल, ‘खून मिल गया?’
हीरालाल तैश में बोले, ‘मिल क्या ऐसे ही गया! खून आज फिर छविनाथ ने ही दिया। हरि का तो कहीं पता ही नहीं चला। गया तो हमारे साथ ही था पर बीच में कहाँ उड़ गया कुछ मालूम ही नहीं हो पाया। मैंने और छवि ने भीतर इंतजार किया, जब वह नहीं पहुँचा, तो बेचारे छवि को ही खून देना पड़ा।’ निष्कर्ष देते हुए वह अंत में बोले, ‘कुछ नहीं जी। धोखेबाजी कर गया।’
सबने छवि की ओर देखा। वह हीरालाल के पीछे आकर खड़ा हो गया था। हालाँकि वह शांत और संयत था, लेकिन सब उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त करने लगे। दो-एक लोगों ने उसे पकड़कर जबरर्दस्ती बेंच पर लिटा दिया।
उन सबको वहीं छोड़कर हीरालाल खून की बोतल हाथ में लिए वार्ड में घुस गए। हालाँकि खून की बोतल ड्यूटी-रूम में बैठे डाॅक्टर को देनी थी, पर हीरालाल बुढ़िया के बेड के पास जा पहुंँचे और औरतों की ओर मुँह करके हांफते हुए बोले, ‘देखी कमीनी हरकत हरि की? जाने कहाँ भाग गया। खून बेचारे छवि को ही देना पड़ा।’
औरतें, जो बुढ़िया से संबंधित कोई न कोई कार्य कर रही थीं, अपनी व्यस्तताओं से उबरकर एकदम सतर्क हो गईं। प्राय: सभी बहनें आश्चर्य के स्वर में बोली ‘अयं! छवि भैया ने खून दिया? कहाँ है छवि?’ और सहसा उनकी अपने बड़े भ्राता के लिए ममता और सहानुभूति उमड़ पड़ी। हीरालाल ने उंगली से संकेत करके बतलाया, ‘होता कहाँ, बाहर बेंच पर पड़ा है।’
इसके बाद हीरालाल ने विस्तार से सारी बातें समझाते हुए कहा, ‘हम सबके साथ उसने अपने खून की जांच तो करवा ली, मगर ऐनवक्त पर धोखा दे गया।’ बुढ़िया के छोटे बेटे की बहू नीचे झुककर बेड के नीचे पड़े कपड़े उठा रही थी। उसके चेहरे पर हीरालाल की बात सुनकर ऐसा भाव आया मानो कोई बहुत अनहोनी घटना सहसा टल गई। छविनाथ की पत्नी रूक्मणी सास के मुँह पर भिन्नाती मक्खियों को यकायक भूल गई। हीरालाल की बात सुनकर उसने सिर पर दोहत्थड़़ मारा और चीत्कार के स्वर में बोली, ‘हाय, मर गई मैं तो, लोगों। देखूं तो कहां पड़े हैं- होश भी है उन्हें।’
छवि की पत्नी के हाय खाने से सारी बहनें और हरिनाथ की पत्नी सहम गईं। उन सबने बुढ़िया की तरफा देखा। उसकी आँखें थोड़ी-थोड़ी देर बाद खुल रही थी। और पोपले मुँह से कभी-कभी ‘फुरर्र’ की ध्वनि भी निकल रही थी। यदा-कदा आँखें मुलमुलाकर वह कुछ अस्फुट स्वरों में बड़बड़ाती भी थी लेकिन उसकी अस्पष्ट ध्वनि का अर्थ खोजने का उत्साह इस क्षण किसी में दिखाई नहीं पड़ रहा था।
बहनों में से किसी ने कहा, ‘छवि तो अपना सरवन कुमार निकला।’ कई कंठों ने इस संज्ञा को सही समझकर ताईद की।
डाॅक्टर ने जिस समय खून की बोतल बदली, तो कई मर्द-औरतों ने उस बोतल की ओर देखा जैसे इंतजार की घड़ियाँ इस बार अनिश्चितकाल के लिए खिंच गई हो। माँ के सिरहाने बैठकर मंत्र पढ़ने वाली बेटी माँ को भूलकर अपने बड़े भाई की हालत देखने वार्ड के बाहर चली गई।
Image: A Study of An Old Woman
Image Source: WikiArt
Artist: Abbott Handerson Thayer
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