प्रिय बेनीपुरी जी,
आपका कृपा पत्र पहुँचा। प्रसन्नता हुई। आपके नए उद्योग की सफलता चाहता हूँ। परंतु मेरे लिए कठिनाई यह है कि अब बहुत थोड़ा लिख पढ़ पाता हूँ। मानसिक परिश्रम करने से गड़बड़ा जाता हूँ। फिर भी आपके नए आयोजन में मेरी शुभकामना तो है ही। लीजिए-
कब तक, अरे, और कब तक यह अकर्मण्यता की कारा?
कह, कब तक ‘ज्ञातस्य कूंप’ का वह जल भी जो है खारा?
उठ पृथिवी के पुत्र, स्वर्ग का अमृत जाए तुझ पर वारा।
खोल अभय निज मानस का मुख, निकले स्वयं नई धारा।
आप सानंद होंगे।