आपने यह कहा है

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प्रिय बेनीपुरी जी,

आपका कृपा पत्र पहुँचा। प्रसन्नता हुई। आपके नए उद्योग की सफलता चाहता हूँ। परंतु मेरे लिए कठिनाई यह है कि अब बहुत थोड़ा लिख पढ़ पाता हूँ। मानसिक परिश्रम करने से गड़बड़ा जाता हूँ। फिर भी आपके नए आयोजन में मेरी शुभकामना तो है ही। लीजिए-

कब तक, अरे, और कब तक यह अकर्मण्यता की कारा?

कह, कब तक ‘ज्ञातस्य कूंप’ का वह जल भी जो है खारा?

उठ पृथिवी के पुत्र, स्वर्ग का अमृत जाए तुझ पर वारा।

खोल अभय निज मानस का मुख, निकले स्वयं नई धारा।

आप सानंद होंगे। 

    

भाई बेनीपुरी जी,

नमस्कार। ‘नई धारा’ मुझे सचमुच ही एक नई चीज लगी। आपकी किसी रचना का न होना खटका जरूर पर मुझे आशा है कि भविष्य में बराबर आप अपनी रचनाएँ उसे देते रहेंगे। इस अंक में भी आप की चिट्ठियाँ तो हैं ही। वे भी कम साहित्यिक नहीं हैं। ‘आपकी चिट्ठी’ वाला स्तंभ एक विशेष आकर्षण है।

अगर आप पूछें कि इस अंक में मुझे सबसे अच्छा क्या लगा तो मैं कहूँगा कि कोणार्क, हालांकि वह अभी अधूरा ही है। माथुर साहब साहित्य-निर्माता हैं यह मुझे पता ही नहीं था। एक आई. सी. एस. क्या साहित्य सृष्टि करेगा यह विचार कुछ ऐसा मन में बैठा हुआ था कि उधर कोई आशा ही नहीं थी। पर कुछ ही पंक्तियाँ पढ़कर मैं स्तब्ध-सा हो गया। कोणार्क के इस अंश में भाषा, भाव, नाटकीयता और प्रगतिशीलता के साथ-साथ कला का जो सुंदर रूप दिखाई दिया वह बहुत ही प्रसाद-जनक था। राजा साहब वाला स्तंभ भी अच्छा-खासा रहा, खूब रोचक है। इसकी धारा किन-किन रास्तों से गुजरेगी, कहाँ जाएगी यह देखने का कुतूहल जग गया है। राजेंद्र बाबू से दिनकर जी की भेंट छपी है, वह भी सुंदर है। इसकी एक अलग शैली है जिसकी हमें जरूरत है।

पहले अंक से ही ‘नई धारा’ हिंदी साहित्य में दिलचस्पी लेने वालों के लिए Indispensible (अनिवार्य लिखूँ?) हो गई है। सौ-सौ बधाई है।

संवेदना का तल स्पर्श

नई धाराका नया अंक मिला। प्रभाकर श्रोत्रिय का पुराकथाओं का सचऔर विश्वनाथ सचदेव का महानगर में कहानीपढ़कर बहुत अच्छा लगा। श्रोत्रिय जी का कहना सही है कि मिथक का सत्य अन्वेषण या उत्खनन का विषय है। पुराकथाओं की अंतरचेतना के उद्घाटन से उसके जिस सच का बयान उन्होंने किया है, वह प्रभावित करता है। इसी तरह एक महत्त्वपूर्ण दौर के कथाकारों के कथकर्म पर आधारित विश्वनाथ सचदेव का लेख भी प्रेरक है। बलराम का संस्मरण और कुमकुम नारायण का यात्रा-संस्मरण मन मोह लेता है। पेरू की यात्रा के बहाने वहाँ के जीवन-परिवेश और शिक्षा-संस्कृति की अच्छी झाँकी पेश की गई है। शिवशंकर मिश्र का व्यंग्य वाह रे नीसाहित्य के छद्म पर करारा व्यंग्य है।

इस अंक की कथा-कविताओं ने संवेदना के तल को स्पर्श किया, ऐसा कहना बिल्कुल वाजिब होगा। कथा कविताओं के चयन में आपकी सतर्कता झलकती है। सभी रचनाएँ एक से एक! इस बार आपका संपादकीय असहिष्णुता के विरुद्धबेजोड़ है। पिछले दिनों देश में सहिष्णुता के विरुद्ध बने माहौल पर राजनीति का प्रभाव ही अधिक रहा। उस पूरे प्रकारन पर आपने विस्तार से लिखा है। आपका कहना सही है कि भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों की संरक्षा के लिए बढ़ती संकीर्णता और असहिष्णुता के खिलाफ शंखनाद आवश्यक है, लेकिन उसका मार्ग भी संयमित एवं अनुशासित होना चाहिए।’ ‘नई धाराकी रचनाएँ समय, साहित्य और संस्कृति की समझ को सामने रखती हैं, जिसके लिए आपके संपादन को सलाम करता हूँ।