आपने यह कहा है

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Strictly Private

प्रिय बेनीपुरी जी,

पंचतंत्र में एक नख-दंत-विहीन सिंह का किस्सा पड़ा था, जो वृद्धावस्था में एक सुवर्ण कंकण लेकर सरोवर के निकट बैठ गया था और बिचारा भगवान का भजन किया करता था! स्नान करने के लिए जो भक्त (और भगतिन!) आते उन्हें उपदेश देता था और एकाध को, जो निकट पहुँच जाते, अपना कलेवा भी बना लेता था! इसी प्रकार उसकी जीवन यात्रा चल रही थी। अंत में उस सिंह का क्या हुआ, मैं भूल गया हूँ, पर इतना मैं जानता हूँ कि उसका कंकण किसी ने नहीं छुड़ाया; और आपने तो मेरा वह कंकण ही छीन लिया! उक्त पत्र को पढ़ कर कितने दिलचस्प व्यक्ति चौकन्ने हो जाएँगे। नैतिकता का आवरण मेरे चारों ओर इकट्ठा हो गया था उसे इस पत्र के प्रकाशन द्वारा आपने दूर कर दिया। और अब मैं जनता के सम्मुख ‘नग्नरूप’ में उपस्थित हूँ। आपने तो “व्याघ्रचर्म प्रतिच्छन्न रासभ” को मार ही डाला। हितोपदेश का किस्सा आपको याद होगा कि वाघंबर ओढ़े हुए गधे की कैसी मौत हुई थी! लोग समझेंगे [और वे गलत नहीं समझेंगे!] कि यह आदमी बड़ा ही धूर्त है और अब कोई महिला मुझसे बात नहीं करेगी! आपने यह अच्छा ‘पर्दाफाश’ किया! पर बिल्ली को आप कहीं से पटकिए वह पैरों के बल ही गिरती है। सो जनाब इस ‘पर्दाफाश’ का भी लाभ मैं उठा लेना चाहता हूँ! अब ‘मनोरंजक’ व्यक्तियों से मेरी मैत्री सुलभ हो जाएगी!

गोर्की के जीवनचरित् में एक ऐसे ही व्यक्ति का जिक्र आता है, जो मेरी तरह adventurous था। उसे अरसिक धूर्तों ने मार डाला! बवासीर से मरने के बजाए उस प्रकार की मृत्यु अधिक वांछनीय होगी! अब जनाब मेरी हालत यह है कि मैं यहाँ अस्पताल में पड़ा हुआ हूँ! मसे उभर आए हैं और हाथी के दाँतों की तरह अब भीतर नहीं जाना चाहते!

नर्सें दिन में चार बार नब्ज देखती हैं और मुझे डर है कि कहीं नब्ज छूट न जाए! ज़रा कल्पना कीजिए कि यह पाणिग्रहण दिन में चार बार होता है! आज संपादकीय लेख लिखने की तैयारी कर लीजिए क्योंकि मैं परलोक यात्रा के इस सरस साधन को छोड़ना नहीं चाहता। अब मैं अंबेडकर का पक्षपाती बन गया हूँ। उन्होंने एक नर्स से ही विवाह कर लिया है। और मैं कोई स्मारक भी नहीं चाहता:–गया श्राद्ध मौकूफ सुकवि ‘लाल’ सुत सों कहैं, जहाँ चिता तहँ कूप मृगनैनी झुकि झुकि भरहिं। सुकवि लाल ने गया श्राद्ध को भी मौकूफ कर दिया था! इससे आपके प्रांत की, विशेषत: वियोगी जी की भयंकर आर्थिक हानि हुई। शांति निकेतन में जिस ‘अर्श’ को जन्म दिया, साबरमती आश्रम में जिसे पाला-पोसा उसका आपरेशन या वियोग असह्य है! देखिए क्या होता है!

मुझे डर है कि आप कहीं आगे चलकर इस पत्र को भी मेरे obituary के साथ-साथ न छाप दें। ऐसी फालतू चिट्ठियाँ मैंने सैकड़ों की संख्या में लिखी हैं। जब वे आगे चलकर छपेंगी, जो चिड़ियाँ उड़ाई हैं वे कभी न कभी बसेरा लेने लौटेंगी, तो हिंदी के नैतिक जगत में एक तूफान आ जाएगा! “बड़ा ही धूर्त निकला”–यह फैसला मेरे विषय में जनता द्वारा किया जाएगा! पर अभी क्या हुआ है–आत्मचरित लिखकर मैं स्वयं जो भंडाफोड़ करूँगा उससे ऐसा तहलका मचेगा कि तत्पश्चात् मैं शीघ्र ही कब्र में घुस जाऊँगा!

And now the piles are to be fomented! The nurse has come and biography remains unwritten! what a tragedy!

आदरणीय बेनीपुरी जी,

सादराभिवादन! ‘नई धारा’ प्राप्त हुई। देखकर ही हर्ष से हृदय पुलकित हो उठा। आपके कुशल हाथ जिस वस्तु में लग जाएँ, वास्तव में उसमें प्राण और रस का संचार हो जाएगा। पत्रिका की प्रशंसा मैं किन शब्दों में करूँ। उसमें आपने क्या नहीं रखा है! उपयोगिता के साथ-साथ लालित्य का सम्मिश्रण, कलात्मक साहित्य की सर्वांगपूर्णता की अनूठी सामग्री का आकर्षण ही इसकी श्रेष्ठता का परिचय देता है। मेरी हार्दिक कामना है–‘नई धारा’ नूतन राष्ट्र के प्राणों में ललछलाते हुए सपने जगावे, साहित्य के जीवन में विराट चेतना का प्रतीक बने, युगधर्म के आह्वान के अनुरूप ही सत्यं-शिवं-सुंदरम् की सृष्टि करने में उन्मुख हो। भगवान उसे युग-युग तक जीवित रखें।

प्रिय भाई बेनीपुरी जी,

‘नई धारा’ के दर्शन हुए। इसमें साहित्य की जितनी तरंगे हैं उतनी किसी पत्र में नहीं देखीं। आपकी उमंगों के झोंकों को ही इसका श्रेय मिलना चाहिए। और मैं जानता हूँ कि आपकी उमंगों के प्रभाव में कभी कमी नहीं होगी। इसलिए ‘नई धारा’ की तरंगों की विविधता में मुझे आगे भी कोई संदेह नहीं है।

यह जानकर और भी प्रसन्नता है कि आप हिंदी साधकों से नए-नए प्रकार का साहित्य लिखाने में सिद्धहस्त हैं। यदि इस प्रकार के प्रयत्न पहले होते तो हिंदी का गद्य-साहित्य अधिक समृद्धिशाली होता। आपका पत्र तो ऐसा है कि इसे देखकर ही लिखने की इच्छा हो जाती है। मैं समझता हूँ कि संपादन कला की यही सबसे बड़ी सफलता है जिसके लिए आपको हार्दिक बधाई है।