उजाले बाँटने फिर चल पड़े हैं

उजाले बाँटने फिर चल पड़े हैं हमारे दर पे नाबीना खड़े हैंये परदे रेशमी तो हैं यकीनन मेरे सपनों के इन में चीथड़े हैंहवाए-ताजगी ले आएँगे हम

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…क्योंकि सपना है अभी भी

तोड़कर अपने चतुर्दिक का छलावा जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा  विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था

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खानाबदोशी

इस खानाबदोशी में धूप से बचने के लिए मुझे एक छाते की दरकार थी जबकि सारे रंगीन छाते मुल्क के बादशाह के महल में सजाकर रखे गए थे

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सांस्कृतिक वर्चस्ववाद

भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक तंत्र की गुलामी से मुक्ति की घोषणा के बाद इसका सामाजिक-राजनैतिक एवं धार्मिक स्वरूप क्या हो या कैसा हो, इस पर राष्ट्र निर्माता एवं युग-द्रष्टा बाबा…

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मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में स्त्री विमर्श

इन दिनों हमारे घर में एक नया मुहावरा निर्मित हुआ है–‘मैत्रेयी का जाग जाना’। जब भी मैं किसी बात का विरोध करती हूँ तो घरवाले कहते हैं, “इसके अंदर की मैत्रेयी जाग गई।”

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एक ऐसी भी निर्भया : एक स्त्री की शोषण गाथा

‘एक ऐसी भी निर्भया’ उपन्यास नारी जीवन के दर्दनाक चित्र का अक्षर रूप है। लेखिका अपने सहज रूप में सामाजिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश जाहिर करनेवाली और पीड़ित, शोषित नारी के प्रति संवेदनशील एवं मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठा रखनेवाली हैं।

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