हमें यह कहना है!

भारत-सरकार ने दिल्ली में देश के साहित्यिकों की जो सभा बुलाई थी, वह एक अभिनंदनीय घटना थी। स्वतंत्र भारत की सरकार देश के चहुँमुखी विकास में साहित्य को भी स्थान देती है, इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। किंतु, इस सभा पर शुरू से ही नौकरशाही की छाप थी। साहित्यिकों का चुनाव सरकारी ढंग पर हुआ।

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गाँधीवादी अर्थव्यवस्था

“अतएव महानुमाप-उत्पादन के सस्तापन का तर्क कोई मूल्य नहीं रखता। यहाँ कम परिव्यय दूसरों मदों के उन शोषणों के कारण है, जिनका भार न्याय दृष्टि से निर्माणी-स्वामियों पर पड़ना चाहिए था। इस दृष्टि से इसे चोरी किए गए पदार्थों की बिक्री ही समझना चाहिए।”

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मेरी कोटा-यात्रा (भ्रमण)

सुनते हैं, साहित्यिकों में ‘प्रसाद’ बड़े ही प्रवास-भीरु थे। पर जब से मैं जोशी कॉलेज में हिंदी का अध्यापक हुआ, तब से कुछ यों कोल्हू के बैल वाला चक्कर शुरू हुआ कि यदि आज ‘प्रसाद’ जीवित होते, तो उन्हें भी मेरे घर घुस्सपन का लोहा मानना पड़ता। लेकिन, मेरे पूर्व जन्म का घुमक्कड़-संस्कार बिल्कुल मर नहीं सका।

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वे मुखरित क्षण

आज से लगभग 15 वर्ष पूर्व हुए स्वर्गीया श्रीमती सरोजिनी नायडू ने एक क्लब में हम लोगों से कहा–“जिस धरती में किसी कला को जन्म मिला हो उसी की गोदी में उसका निखरा और पूरी तरह खिला रूप दीखता है। मैंने बंबई के ताजमहल होटल के भव्य रंगमंच पर कथकली का अभिनय देखा और मलाबार के तट पर कृत्रिम साधनों से विहीन देहाती रंगमंच पर भी। मलाबार के अभिनय के मुकाबले में ताजमहल होटल वाला अभिनय बेजान कठपुतलियों का नाच जान पड़ा।”

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