महर्षि रमण और उनकी ‘मैं’ की खोज (चिंतन : मनन)

गाँधी-हत्या-कांड के बाद जब समाजवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण ने देश को आध्यात्मिक नेतृत्व देने के लिए महर्षि रमण का नामोल्लेख किया, तो संभवत: ही इस मनीषी की ओर लोगों की जिज्ञासा जगी! प्रस्तुत लेख उस जिज्ञासा की तृप्ति कर सकेगा, ऐसी आशा है।

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प्यार न बाँधा जाए!

प्रसंग यह है कि सुभद्रा कुमारी स्मारक अनावरण के समय श्रीमती महादेवी वर्मा ने कहा–‘नदियों के विजय स्तंभ नहीं बनते…!’ यह विचार मन में घुलता रहा घुलता रहा और जब वह गीत बनकर निकला तो यों आया और 1949 की मेरी सबसे प्यारी रचना बन गया!

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पिंजरे का पंछी

हमारे ‘द्विज’ बिहार में कविता की नई धारा के अग्रदूतों में रहे हैं। किंतु, उनकी रचनाओं से इधर हिंदी-संसार सर्वथा वंचित रहा है। क्यों?

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शबनम की जंजीर

हाँ, प्रतिमाएँ तो बन गई हैं–किंतु उनमें दम कहाँ, जान कहाँ? उनमें प्राण-प्रतिष्ठा होनी चाहिए–किंतु करे कौन? कलाकार हुंकार कर रहा है–‘विज्ञान काम कर चुका, हाथ उसका रोको!’ हाँ, हाँ, प्रयोग के लिए ही सही, ‘कला-कल्याणी’ को भी एक अवसर दिया जाना चाहिए।

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हमें यह कहना है!

लीजिए, यह ‘नई धारा’। मैं इसके संबंध में क्या कहूँ? अपने तीस वर्षों के पत्रकार-जीवन की परिणति के रूप में इसे हिंदी-संसार के समक्ष पेश करना चाहता हूँ। किंतु, पहले अंक में ही कई स्थाई शीर्षक छूट गए; कई उपयोगी लेख छूट गए। समय और स्थान की खींचातानी। इसके बावजूद यह जो कुछ है, आप लोगों की सेवा में है।

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डिरी डोलमा (भ्रमण)

“मेरी आँखों के सामने था–गौरीशंकर का वही शृंग। इस समय भी उसने अपनी बाँहें दो चोटियों के कंधों पर फैला रखी थीं। वे दोनों माँ-बेटी सी दिखती थीं। उन्हें पहचानने में मैं भूल नहीं कर सकता था। वहाँ दाहिनी ओर वाली ही थी–मेरी डिरी डोलमा!”

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