मैं पार्क में घूम रहा था
शाम के 7 बजे मैं पार्क में घूम रहा था अजीब सी चहल-पहल अजीब सा शोर मानो शादी-ब्याह की सज-धज रोज़ की तरह मैं सुन रहा था चिड़ियों का मद्धिम संगीत
शाम के 7 बजे मैं पार्क में घूम रहा था अजीब सी चहल-पहल अजीब सा शोर मानो शादी-ब्याह की सज-धज रोज़ की तरह मैं सुन रहा था चिड़ियों का मद्धिम संगीत
हमें यह कहने में सकुचाहट नहीं कि युवा कवि राजकिशोर राजन का काव्य-परिवेश, प्रकृति और मानवीय अंतर्संबंधों के यथार्थ के मध्य दुर्निवार दुःख-तंत्र और उसके अंतःसंघर्ष की वह काव्य-कथा है जो सहज भाषा में लोकजीवन की संश्लिष्ट और अविकल अर्थ-छवियाँ रचती हैं।
कब्रगाह में रोने की जगह अब वे युद्ध के मैदानों में हैं उनके हाथों में हथियार चमकते रहते हैं मातम को छोड़कर अब मर्दों की तरह वे आजादी के सिर्फ स्वप्न देखती हैं रात-दिन।
मालूम है मुझे कल के महलआज बिखरे राखों में पड़ेधुएँ के फाहे सेअँधे कुएँ में पड़ा मैं, गायब नींद हैपस्त मेरे हौसले, मेरी खामोश चीख सेन मिलना बाकी किसी सेजमीनें इतनी सूखी, न सपने उगे
कहावत है न, ‘आयल पुन आयल दुःख कमाये लागल पुन, भागल दुःख।’ फिर तो दोनों ठहाका लगाकर हँसे थे। पाँच-पाँच बच्चे, फिर भी ठहाका! जैसे लड़के सब कमासुत हों...।
‘मुहब्बत ने काढ़ा है जुल्मत से नूर न होती मुहब्बत न होता जहुर मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत सबब मुहब्बत से आते हैं कारे–अजब।’