पंडित विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंध

ललित निबंध का प्रसंग आते ही मेरे सामने पद्मभूषण पंडित विद्यानिवास मिश्र की निर्मल छवि उभर आती है। क्या दिव्य व्यक्तित्व की आभा थी उनमें! बोलते तो उनकी जुबान से पूरबी की संस्कृति झरने लगती और लिखते तो जैसे उनके अथाह ज्ञान का सोता देसी संस्कृति में घुल-मिलकर असंख्य प्राणियों के तप्त हृदय को संतृप्त कर देता! पहली बार उनसे वर्ष 1988 में अपने गुरु आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा के सौजन्य से पटना स्थित उनके ही निवास पर मिला था।

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प्रतिरोध की सीधी-सादी कविता का जन्म

प्रतिरोध की कविता राजनीति का फॉर्म नहीं बने इससे ये बच गए हैं। किसी तरह की यांत्रिकता से भी। कविता से प्रतिबद्धता का यही परिप्रेक्ष्य एक स्वीकार की तरह शिवनारायण की कविताओं का सौंदर्य है। प्रश्नाकुलता का सौंदर्य जो वर्तमान में कविता का चरित्र है।

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बैल का प्रलाप

मेरे गोईं ने किया था एक दिन देहचोरई, अब वह भी निराश और हताश है आपके चले जाने से मालिक, आपको मालूम है कई दिनों तक खल्ली और भूँसा नहीं मिलने पर भी

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गुज़ारी अपनी ही मर्जी से जिंदगी तुमने

गुज़ारी अपनी ही मर्जी से जिंदगी तुमने कभी किसी की ज़रा-सी भी क्या सुनी तुमनेज़रा-सा हँस के कभी बोल क्या दिया उससे कि शक के घेरे में रख दी वफा मेरी तुमने

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बड़ा फर्क है प्रेम करने और निभाने में

निभाने और मन से अपनी इच्छा के अनुसार प्रेम करने में फर्क होता है, जो दूसरों को दिखता नहीं।

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मुसाफिर थक के जब प्यासा भी होगा

मुसाफिर थक के जब प्यासा भी होगा घने जंगल में इक दरिया भी होगाकभी जब आएगी गलती समझ में किए पर अपनी शर्मिंदा भी होगादुखों को आँसुओं में गर बहा दो तो मन से बोझ कुछ हल्का भी होगा

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