दशरथ माँझी
दशरथ माँझी पहाड़ से भी है ऊँचा जिसे देखकर पहाड़ के उड़ जाते हैं होश दशरथ माँझी सिर्फ तुम्हारा नाम ही है काफी पहाड़ को थर्राने के लिए क्योंकि तुम्हारे अंदर बसी है फागुनी देवी जैसे आगरे की ताजमहल में मुमताज
दशरथ माँझी पहाड़ से भी है ऊँचा जिसे देखकर पहाड़ के उड़ जाते हैं होश दशरथ माँझी सिर्फ तुम्हारा नाम ही है काफी पहाड़ को थर्राने के लिए क्योंकि तुम्हारे अंदर बसी है फागुनी देवी जैसे आगरे की ताजमहल में मुमताज
‘प्रेम का उदय’ आँखों से और आँखों में ही यह ‘अस्त’ भी हो जाता है– ‘होता है राज़-ए-इश्क-ओ-मुहब्बत इन्हीं से फाश आँखें जुबाँ नहीं है, मगर बेजबाँ भी नहीं।’
‘जाने जीवन की कौन सुधि ले लहराती आती मधु बयार रंजित कर दे यह शिथिल चरण ले नव अशोक का अरुण राग मेरे मंडन को आज मधुर रंजनीगंधा का पराग।’
व्याख्यान का विषय था–‘मैं गाँव पर ही क्यों लिखती हूँ।’ समारोह की अध्यक्षता चर्चित कवि एवं भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई ने की, जबकि संचालन ‘नई धारा’ के संपादक डॉ. शिवनारायण ने किया।
दर्द भी साथ रख नमी के लिए बीज बोने हैं कुछ खुशी के लिएकाम बेमन का करना पड़ता है दूसरों की कभी खुशी के लिएमेरी दुनिया में है यही काफी पास जुगनू है रोशनी के लिए
दूर तक जाती हुई बलखाती, मटकती-सी, ये सड़क जो कि हमें वहीं छोड़ देती थी, एक-दूजे के पास एक-दूजे के साथ