ऐसे दिन थे
ऐसे दिन थे बहुत चिरैया घर आती थीं गाने कुछ ताने दादी देती थीं कुछ अम्माँ के ताने। फिर भी निसि-दिन डाले जाते थे आँगन में दाने। कर्ज़े लदे हज़ार…
ऐसे दिन थे बहुत चिरैया घर आती थीं गाने कुछ ताने दादी देती थीं कुछ अम्माँ के ताने। फिर भी निसि-दिन डाले जाते थे आँगन में दाने। कर्ज़े लदे हज़ार…
मैं कुमार विमल को ‘समीक्षकों का समीक्षक’ मानता हूँ। पुस्तकें कैसे समीक्षित की जाती हैं, समीक्षकों को इसे कुमार विमल से सीखना चाहिए। इधर ‘चिंतन-सृजन’ के संपादक डॉ. बी.बी. कुमार ने उनसे मेरी पुस्तक ‘उत्तर-आधुनिकता : बहुआयामी संदर्भ’ की समीक्षा लिखने का आग्रह किया था। उन्होंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया था, पर दुर्योगवश वह समीक्षा पूरी नहीं हो पाई।
यह क्या हुआ कि जब मर्जी हुई तभी लगा दिया फोन और खामखाँ सामनेवाले की मुसीबत पैदा कर दी उफ! किस तरह मोबाइल का मिसयूज कर रहे हैं ये लोग।
गँठरी में मैं बाँध खेत-खलिहान उठाकर लाया हूँ। लोग बताते हैं अब मेरा प्रेत गाँव में बसता है किसी आम-बरगद के नीचे खड़ा अकेला हँसता है। मैं चाँदनी चौक में अपना गाँव खोज बौराया हूँ।
कहा, कबीरा ने रे पंडित बाद-बदंते झूठा... इसी बात पर दुनिया रूठी सारा काशी रूठा। बाबा, मैं पंडित घर-जारा मैंने झूठ न बोला सच कहने-करने की धुन में साधू चला अकेला।
बाज़-दफा खबरों से दूर रहने का कौल उठाता हूँ और थोड़ी ही देर में मेरी अँगुली की एक हरकत मात्र से स्क्रीन पर एक और अमानवीय देश का भयावह चेहरा उभर आता है!