दरिया

समंदर भी मेरे जैसे कई दरियाओं से बना है! जब मैं नहीं, तो समंदर भी नहीं इसीलिए कहता हूँ– पहले दरिया बनो तभी तो समंदर भी बन सकोगे!

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पुन: भारत में

स्वामी विवेकानंद और उनके साथी राजकीय बग्घी में बैठे। उनके साथ अंगरक्षकों के नेता के रूप में राजा के भाई थे। भारतीय और विदेशी बैंड साथ चल रहे थे। ‘देखों हमारा जगत्-विजेता नायक आ रहा है।’ गीत की धुन बजाई जा रही थी। राजा स्वयं पैदल चल रहे थे। सड़क के दोनों ओर मशालें जल रही थीं और लोगों के द्वारा हवाइयाँ चलाई जा रही थीं। चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण था। जब वे गंतव्य के निकट आ गए तो राजा की प्रार्थना पर स्वामी बग्घी से उत्तर कर राजकीय शिविका में बैठे और वे पूरे तामझाम के साथ शंकर विला में पहुँचे। थोड़ा विश्राम करने के बाद स्वामी सभागार में उपस्थित हुए, जहाँ लोग उनको सुनने के लिए उपस्थित हुए थे।

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सुनहला अवसर

‘कल तुम्हारे इलाके की कुछ झुग्गी-झोपड़ियों में आग लग गई थी।’ ‘जी सर’ ‘उस वक्त तुम घटना स्थल पर थे या नहीं?’ ‘जी...जी सर’ ‘कुछ फोटोग्राफ्स और रिपोर्ट लाये हो?’ मुख्य संपादक ने उत्साह भाव से पूछा। लेकिन रिपोर्टर को काटो तो खून नहीं। उसने अपने सूखे होंठों पर जीभ फिराते हुए बोला–‘सर मैं घटना स्थल पर तो फौरन पहुँच गया था लेकिन...’ ‘लेकिन क्या?’ ‘ले...लेकिन सर बात ये हुई कि मैं जैसे ही घटना स्थल पर पहुँचा...सर वहाँ एक बच्चा आग में झुलस कर तड़प रहा था...मुझसे रहा नहीं गया उसे उठाकर तत्क्षण अस्पताल की तरफ भागा...फिर तो मैं फोटो खींचना और रिपोर्ट लिखना भूल ही गया।’ उसने मायूस लहजे में कहा।

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