जिंदगी
नगर के चौराहे पर कूड़े-कर्कट की ढेर को कुरेद-कूरेदकर दस-ग्यारह साल की एक लड़की अपने बोरे में प्लास्टिक के बोतल, टीन, शीशा आदि भरती जा रही थी। वह अपने काम में पूरी तरह तल्लीन थी। उसके चेहरे पर उलझे भूरे बालों का गुच्छा लटक रहा था।
नगर के चौराहे पर कूड़े-कर्कट की ढेर को कुरेद-कूरेदकर दस-ग्यारह साल की एक लड़की अपने बोरे में प्लास्टिक के बोतल, टीन, शीशा आदि भरती जा रही थी। वह अपने काम में पूरी तरह तल्लीन थी। उसके चेहरे पर उलझे भूरे बालों का गुच्छा लटक रहा था।
मित्र, कुछ स्वर्गिक-सुकोमल है तेरी पहचान में, जो हमेशा गूँजता रहता है मेरे गान मेंतीर्थ-व्रत से भी अधिक तब लाभ होता पुण्य का, निष्कलुष हो कर हृदय जब दो किसी को दान मेंजो नहीं अब तक कहा वह कह रहा हूँ बात मैं, गीत मेरे सब कसीदे हैं तुम्हारी शान में
विजयमोहन सिंह जी बड़े लेखक एवं आलोचक थे, किंतु वे साहित्य तक ही सीमित नहीं थे। वे कला तथा संगीत के भी ज्ञानी थे। उनको संगीत की शिक्षा ओंकारनाथ ठाकुर जी ने दी थी। 54-55 के दशक में इलाहाबाद से बी.एच.यू. आए; तब वे धर्मवीर भारती (नई कविता) के प्रभाव में थे। लेकिन बनारस आने के बाद उनमें बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ और धीरे-धीरे वे कथा साहित्य की ओर बढ़ने लगे। वे कुछ-कुछ कहानियाँ लिखने लगे। बाद में ‘टट्टू सवार’ नाम से उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। उस समय जब ‘नई कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, तब उसमें भी उनकी एक अलग पहचान थी।
शिक्षिका ने भी कुछ सिक्के कंडक्टर की हथेली पर रख दिये जिसे गिने वगैर ही पॉकेट में डालकर वह आगे बढ़ गया। कंडक्टर को बेफिक्र आगे बढ़ते देख मैंने शिक्षिका को टोका–‘बहन जी, आपने टिकट क्यों नहीं माँगा?’ वह मुस्कुराई। बोली–‘टिकट माँगूँगी तो दस रुपये देने होंगे...वैसे पाँच रुपये में काम चल जाता है।’
समुद्री तूफान था। रातभर तेज हवाएँ चलती रहीं। हवा की साँय-साँय के साथ पानी की बौछारें भी बंद खिड़की, दरवाजों से टकराती रहीं। मुँह अँधेर दूध वाले की घंटे से मेरी आँख खुली। दिदिया नहीं उठीं क्या? रोज तो वही दूध लेती हैं। दूध की थैली चौके में रखते हुए उनके कमरे की तरफ निगाह गई। बत्ती जल रही थी। उठ तो गई हैं वे...फिर दूध लेने क्यों नहीं आईं? उनके कमरे के दरवाजे को हल्के से ठेलकर मैंने अंदर झाँका। वे पलंग पर बेसुध गहरी नींद में थीं। खिड़की के पल्ले भी खुले थे