विश्व मेरे, बह रही है काल-धारा
विश्व मेरे, बह रही है काल-धारा अनवरत, जिसका नहीं कोई किनारा
विश्व मेरे, बह रही है काल-धारा अनवरत, जिसका नहीं कोई किनारा
विश्व मेरे, यह नया मेरा सबेरा! मिट गया मानस क्षितिज का क्षीण घेरा!
विश्व मेरे, स्वप्न मैं बुनता नया हूँ, आँसुओं के अग्नि-कण चुनता नया हूँ
विश्व मेरे, मैं तुम्हारा हो गया हूँ, मैं मिटा निज को तुम्हीं में खो गया हूँ
विश्व मेरे, मैं मिटा अस्तित्व अपना, चाहता हूँ भूल जाना यह तड़पना।
जग पड़ी हूँ चेतना में– स्वप्न के मधुमय निलय से उतर कर चुपचाप आई मैं हृदय में प्यास लेकर जग पड़ीं तब हैं अचानक स्वर लहरियाँ वेदना में। गीत के मधु संज पर इक, सो रहे थे प्राण मेरे, वे, सखी; अब नींद तज कर जग पड़े हैं आज धीरे सत्य की इक प्रेरणा में। वे मधुर से पल सुकोमल खो चुके हैं मधुरता सब प्राण ने जिनको दुलारा वे मदिर घड़ियाँ ही मेरी हैं पड़ी अवहेलना में!