ऋता शुक्ल की कहानियों में नारीवाद

जहाँ एक ओर पितृसत्ता का दंश और शोषण झेलती स्त्रियाँ हैं, तो कहीं आदर्श दांपत्य को सँभालती हुई देवियाँ, तो कहीं विकलांगता के बावजूद प्रतिरोध और संघर्ष करती नई स्त्रियाँ हैं तो कहीं स्वयं नारी होकर नारी का ही विरोध व शोषण करती हुई अबोध स्त्रियाँ हैं।

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सामान बदल गया था

सामान बदल गया था। कत्ल का सामान मेरे साथ आ गया था।’ फिर मैंने कत्ल के सामान वाली अटैची उठायी हत्यारे को सौंप दी और कहा ‘अब तुम भले ही मुझे मार सकते हो। तुमने...तुमने मुझ पर जो उपकार किया है, हत्या कहीं बहुत छोटी पड़ गई है।’ यह कहते हुए वह फूट-फूट कर रो पड़ा। ‘मार दो, जिस काम के लिए आए उसे पूरा कर लो।’

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अप्रतिम सौंदर्य का ‘जंगली फूल’

उपन्यास की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है–‘सुना है कभी तानी नाम का कोई फूल कहीं पर खिला था। लोगों की जुबान पर वह सिर्फ एक फूल है–रंगोंवाला फूल–रंगीन फूल–मानो उसमें कोई खुशबू ही नहीं थी

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खुशियाँ नहीं खुल पाती

आखिर एक दिन मालिक से कह ही दिया उसने ‘इस चाबी से आपके घर की खुशियाँ खुलती है और आप इसे रोज फेंक कर देते हैं।’ मालिक को बात सही लगी। उसने दरवाजे के हुक पर चाबी लटकाना शुरू कर दिया।

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मरै सो जीवै : दादू दयाल

ईश्वर सब जगह है, तुम्हारे भीतर भी बाहर भी। बस यही जान लेना है। ज्यूँ का त्यूँ देखने की आदत डाल लेनी है, ‘दादू द्वैपख रहता सहज सो, सुख-दु:ख एक समान। मरे न जीवे सहज सो पूरा पद निर्वाण।’

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