मनुष्यता को बचाने की आवाज

नीलोत्पल की कविताएँ मानवता की पक्षधर हैं। वह ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना से सराबोर ‘जियो और जीने दो’ की हिमायत है।

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जो मैंने नहीं चाहा

मुझे आज तक नहीं आया भिड़ाना तुकें। मसला जीवन का हो या मृत्यु का मुझे आज तक नहीं आया कुछ ऐसा करना जो मैंने कभी नहीं चाहा।

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परेशान है राजा

हुकुम दिया है राजा ने गरियाओ उनके मर्दों को भेजो लानतें। जगाओ उनके मर्दों में जहर मर्दानगी का। करो उन्हें अपनी औरतों के खिलाफ ताकि लौट जाएँ चौराहों से घर की चार दीवारियों में।

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तो भी शुक्रिया

शुक्रिया पहाड़! तुम हो तो कितने सुरक्षित हैं हम एक प्राकृतिक किला हो हमारा हमारे पूर्वजों के पुण्यों का फल। शुक्रिया सागर!

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मसीहा मुस्कुराता है

मेरी चारों ओर शिविर लगे हुए हैं जहाँ नई-नई तालिमें दी जा रही हैं दिशाओं में शोर है– इतिहास बदला जा रहा है पलित मूल्यों के पाए ढाए जा रहे हैं कोई अवतार या मसीहा जन्म ले रहा है मैं एक अदना आदमी की हैसियत से शिविर को देख रहा हूँ

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अब हंसने और हँसाने का

अब हँसने और हँसाने का कोई पर्व-त्योहार क्यों नहीं होता हर आदमी बदहवास होकर न जागता है न सोता है कई बार टिकट कटाकर सिर्फ हँसने-हँसाने के लिए ट्रेन पर चढ़-चढ़कर उतरता गया हूँ

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