एक बेढब कविता

तुम रमेश तैलंग को याद करो और रमेश तैलंग हाजिर तुम रमेश तैलंग की बात करो और फेंको हवा में मुट्ठी भर शब्द हवा में बनता रमेश तैलंग का चेहरा

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गढूँगा अपने नायक,बिम्ब और प्रतीक

लो-सँभालो अपने देवी और देवता मैं छोड़ रहा हूँ पूजा-अर्चना करने का पूरा का पूरा ढकोसला। मैं जान गया हूँ

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कहीं के न रहोगे

वर्षों बाद आई है मेरे हाथों में कलम मैं अब करूँगा अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति दिखाऊँगा– समय और समाज को आईना एक-एक करके खोलूँगा

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मैं उन्हें अच्छा लगता हूँ

मैं उन्हें अच्छा लगता हूँ जब उनके घर-आँगन बुहारता हूँ मैं उन्हें अच्छा लगता हूँ जब मैं उनकी– बेगारी करता हूँ

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अभी-अभी निराला से हाथ मिलाकर

अभी-अभी निराला से हाथ मिलाकर आए थे वे सुनाने लगे हाल कि कैसे मिले थे पहली दफा और कैसा था रोमांच तब निराला लगते थे

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दलित नहीं,ठाकुर की पत्नी है

मैं ही नहीं बहुत दिनों तक डॉ. धर्मवीर भी यही समझते रहे कि– जिस महिला ने उन पर चप्पल चलाई वह एक दलित नारी है

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