हँसुली हार
मेरे हाथ में पोटली थी, जिसमें वंश की धरोहर हँसुली हार थी। कभी उस हार को देखता, तो कभी बाबू को!
मेरे हाथ में पोटली थी, जिसमें वंश की धरोहर हँसुली हार थी। कभी उस हार को देखता, तो कभी बाबू को!
वे उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते थे। लेकिन, ऐसी प्रतीकात्मक ऑनर किलिंग से उन्हें जाने कैसा क्या संतोष मिला होगा।
‘भइया सतेन्द्रपाल ने जीवन भर समाज का साथ नहीं दिया। समाज रूपी डार से टूटे हुए लोग हैं ये! फिर आज समाज उनका साथ क्यों दे?’
नया करने की प्रवृति के कारण ही मधुकर एक पात्र होते हुए भी तटस्थ दर्शक की भूमिका में दिखाई देते हैं।
प्रभाकर और फुलझड़िया के बीच मानवीय संवेदनाओं की जो लौकिक नहीं हो सकती, रिश्ते का कोई नामकरण नहीं हो सकता
‘मैं वनफूल हूँ, जिसे बंधन की चाह नहीं...अपने वन के एकांत में खिलती हूँ, महकती हूँ...घूमती हूँ...मैं सोलो ट्रैवलर हूँ।