राह से मंजिल
एक सवाल अकेले में अंदर ही अंदर मथे जा रहा था और फिर अल्पकाल में भीतर ही भीतर कहीं से एक आवाज जेहन में टकराई, ‘वस्तुतः तुम्हारी मत ही मारी गई है... क्या गरूर करना नौकरी-पद-स्टेट्स का...आखिर, इस नश्वर-नाशवान काया का गुमान काहे का...’
एक सवाल अकेले में अंदर ही अंदर मथे जा रहा था और फिर अल्पकाल में भीतर ही भीतर कहीं से एक आवाज जेहन में टकराई, ‘वस्तुतः तुम्हारी मत ही मारी गई है... क्या गरूर करना नौकरी-पद-स्टेट्स का...आखिर, इस नश्वर-नाशवान काया का गुमान काहे का...’
आँखों देखी यह घटना तो सच है ही। सच ओझल न हो जाए, इसलिए मैंने कल्पना का सहारा नहीं लिया है। वैसे काल्पनिक उड़ान की गुंजाइश तो सभी जगह होती है।
इस समय समाज के बीच स्त्रियों की स्थिति और परिस्थितियाँ जैसे बदली हैं और बदल रही है उनमें ‘स्त्री दृष्टि’ और स्त्री सोच का परिदृश्य बदलना चाहिए था। नई पीढ़ी की युवतियाँ, शिक्षित, प्रशिक्षित और प्रोफेशनल हैं।
मगर क्षणों में ही बाबूजी की खाट पर ही आँखें नम हो आईं, ‘...क्या बदहाल बनी है उनकी जिंदगी!’ वह बुदबुदाए और अंदर से छटपटाते-कराहते से कहीं गुम हो गए।
नैन फागुनी रूप चंदनी, तन सबने देखा पर मीरा की कवितावज्ञला मन किसने देखा?कानों में चंदा का कुंडल पहन चांदनी साड़ी,
अपने युग से असंतोष स्वास्थ्य का लक्षण हैं, वरना हम आत्मतृष्ट हो जाएँगे तो नया सृजन कैसे करेंगे। लेकिन बलिदानों की परंपरा हमारी विकास यात्रा को हमेशा रौशन करेगी, प्रेरणा देगी, वंदे मातरम्!