अहसासों के जलतरंग
अहसासों के जलतरंग को पुरबा छेड़ गई। आँगन में– खिलती खिलती निशिगंधा भी स्वच्छंद हुई।किरणों के झुरमुट में उलझी चिड़िया सी चितवन पूनम फिर-फिर रूप निहारे झील बनी दर्पण।
अहसासों के जलतरंग को पुरबा छेड़ गई। आँगन में– खिलती खिलती निशिगंधा भी स्वच्छंद हुई।किरणों के झुरमुट में उलझी चिड़िया सी चितवन पूनम फिर-फिर रूप निहारे झील बनी दर्पण।
‘राष्ट्रीयता से क्या होता है। भारत में जन्म लेनेवाले सारे लोगों ने गीता पढ़ी है क्या? कालिदास और बाणभट्ट को पढ़ा है? नहीं न।’ स्वामी हँंसे, ‘वैसे मैं यह भी कह सकता था कि आप सेना में थे और शायद सैनिक लोग साहित्य नहीं पढ़ते।...चलिए शीयौं का किला देख आएँ। उसे देख कर आपको अच्छा लगेगा।
सहज नहीं होता बचपन, यौवन और बुढ़ापा किसी घर-आँगन में छोड़ बिना मुड़े निकल जाना गोबरलिपी ज़मीन की गंध खपरैलों में बसे घोंसलों में गौरैया के अंडे दरकती दीवारों में
कुछ शब्द रह गए थे मन में जगने पर भी अखबार से निकलकर बच्चा की पुलक में समायी थी– छोटी-छोटी खुशी मिसरी घोल रहे थे कानों में
अम्बर राम के पहले भी आये कितने राम परंतु मालिक के दाँत किटकिटाते उखाड़ देते अपना तम्बूमालिक के गुस्साते अक्सर पिचक जाती कोई थाली या फूट जाता लालटेन
शिक्षा, भाषा, अलगाववाद, आतंकवाद, सुरक्षा, वैचारिक विभ्रम विचारदारिद्रय, सत्तालोलुपता के कारण तुष्टिकरण, ग्रामों का पतन नगरों का असंतुलित विकास–ये सारे विषय इस संकलन के केंद्र में हैं। सर्वप्रथम प्रो. ब्रजबिहारी कुमार ने भारत के बौद्धिक परिवेश पर विचार किया है कि भारत का बुद्धिजीवी अपने में सिमट गया है। उसे यह नहीं दिख रहा है कि प्रजाति एवं भाषा के नाम पर भारत को तोड़ने का भीषण षड्यंत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा है।