कभी तो टोह लेते

कभी तो टोह ली होती उस मन की सुना होता अंतर्नाद जो गूँजता रहा निर्बाध आपादमस्तक अनसुना सा रहा आदि काल से दमित, तिरस्कृत, विदग्ध सदियों तक...कभी तो खोलते ग्रंथियाँ बंद मुट्ठियाँ जिनमें उकेरे गए थे सिर्फ शून्य रेखाएँ तो उभर आई थीं परंतु केवल भाल पर सिलवटें बन...

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मेरी काठमांडू यात्रा

दिल्ली से काठमांडू की कुल डेढ़ घंटे की विमान यात्रा एक दूसरे से बतियाते और नेपाल के मोहक पर्वतों के अभिभूत करते सौंदर्य को सराहते, कैसे पूरी हुई, पता भी न चला। क्षितिज पर कहीं गले मिलती शोख बदलियाँ थीं, कहीं धुनकी रूई के तूदों में इकट्ठा हुए ढेरों-ढेर बादल और दूर पहाड़ों की चोटियों को ढकती बर्फ की चुन्नटों वाली चूनर, जिसकी किनारियाँ गुलाबी रंग से रंगने लगी थीं। मुझे अपने कश्मीर के बर्फीले ताजों वाले बुज़ुर्ग पहाड़ याद आए। एसोसिएशन ऑफ़ आइडियाज! प्रकृति भी तो स्मृतियों पर दस्तक देती, जोड़ने का काम करती है।

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सवैया

हिय लेती लगाय सुधीरज को, करि देती बिना दुःख की छतिया बिकसाती कली मन की मुकुली, रसती रसना रस की बतिया तन पीरो परो कर देती हरो, जगती न बिताती सबै रतिया

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यार जुलाहे

यार जुलाहे मुझे भी सिखा दे चुनना और बुनना। कैसे चुनता है तू एक-एक धागा कैसे बुनता है तू सुंदर चदरिया।तू मुझे ये भी सिखा क्या बुनने से ज्यादा अहम है चुनना। मैं भी चाहता हूँ बुनना एक कविता जिसमें हो प्रेम की कढ़ाई भावों की तुरपाई संवेदनाओं की सीवन और सुंदर सा जीवन। पर मैं बुन नहीं पाता

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मैं पत्रकार हूँ

मैं पत्रकार हूँ! शब्द हैं मेरी आत्मा और खबर मेरी आवाज मस्तिष्क मेरा संपादकीय समीक्षा मेरी आँख! फीचर मेरे कान हैं विश्लेषण मेरी नाक मैं सच और झूठ का जानकार हूँ मैं पत्रकार हूँ!

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तुम जिसे शाम या सहर कहते

तुम जिसे शाम या सहर कहते हम उसे सिर्फ दोपहर कहतेबर्फ पिघली कि खुल गए रस्ते मौसमी ही है ये असर कहतेदेख लोगे धुआँ भी दरिया का थम जरा आँख में ठहर, कहते

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