कभी तो टोह लेते
कभी तो टोह ली होती उस मन की सुना होता अंतर्नाद जो गूँजता रहा निर्बाध आपादमस्तक अनसुना सा रहा आदि काल से दमित, तिरस्कृत, विदग्ध सदियों तक...कभी तो खोलते ग्रंथियाँ बंद मुट्ठियाँ जिनमें उकेरे गए थे सिर्फ शून्य रेखाएँ तो उभर आई थीं परंतु केवल भाल पर सिलवटें बन...