इनसानी फ़र्ज़
जो मान-मर्यादा भूलकर छोटी-बड़ी बच्चियों को अपना शिकार बना रहे हैं, माँ-बेटी के रिश्तों को कलंकित कर रहे हैं
जो मान-मर्यादा भूलकर छोटी-बड़ी बच्चियों को अपना शिकार बना रहे हैं, माँ-बेटी के रिश्तों को कलंकित कर रहे हैं
सफ़र में पेड़ नज़र नहीं आते थके पाँवों को ठाँव नज़र नहीं आते राहें तो अब अभी बदस्तूर हैं सड़क हैं राहगीर नज़र नहीं आते
धाराएँ सदा एक-सी नहीं होतीं कई बार उसकी ध्वनियाँ आर्त्त-नाद होती हैं सहमी तरंगों की सूखते जल गवाह हैं
तेरहवीं तक हलचल तो रही परंतु एक मर्यादित चुप्पी के साथ। लखनऊ वाले चाचा जी बोर हो गए थे। साथ लाई ‘सत्यकथा’ पढ़ डाली थी।
वैसे तो इतिहास की भी सबसे अच्छी किताबों में शुमार है, ‘फिक्शन इन द आर्काइव्स’! ‘सबसे ऊपर है, मनुष्य का सत्य, कहा था कवि गुरु ने!’
डाॅ. राय के शब्दों में उनकी कृति ‘नाटकनामा’ (1993) साठोत्तर हिंदी नाटक के चरित्र, रूपबंध, सीमा और उपलब्धियों का एक ख़ाका है